जुआ
हमने पहले भी
बग़िया में उगाये थे गुलाब
पर कोई न रोक सका
अपनी उँगलियाँ
सभी ने तोड़ - तोड़ कर
सजा लिए
ख़ूबसूरत गुंचे
गुलाब पर आने से पहले शबाब
यक़ीन मानो
मेरी ज़िंदगी तो
बीएस एक जुआ बन कर रह गयी है
जिसका हर दाँव
तुमने ही जीता है
मेरा अंदर - बाहर
सब रीता है
ऐ मेरे नाख़ुदा
तुम मुझे
लगाओ , न लगाओ उस पार
तुमसे मैं अक्सर हारा हूँ
आज फिर जाता हूँ हार।
No comments:
Post a Comment