Saturday, June 28, 2025

शहर और जंगल - अपरिचित

 अपरिचित 


ओ  अपरिचित !

तुमसे परिचय न बढ़ाने का कारण 

सिर्फ़ इतना था कि

मेरा नागा स्वार्थ 

कल किसी चौराहे पर 

तुम्हें नंगा  करता 

तुम अपने तन को ढाँपती

कमजोर हाथों से मारती 

मैं फिर भी नहीं मरता 

इन मुक़फ़्फ़ल किवाड़ों को 

तुम कब तक खटखटाओगी  ?

इनकी हक़ीक़त भी इक दिन 

तुम जान जाओगी 

मेरा पाप फिर भी 

तुम्हारी मुट्ठी में बंद नहीं हो पाएगा 

और मैं जनता हूँ 

तुम्हारी बंद मुट्ठी का गुलाब भी 

कभी पत्थर नहीं हो पाएगा। 

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