Wednesday, June 18, 2025

शहर और जंगल - मेरे मरने के बाद भी

 मेरे मरने के बाद भी 


मेरे मरने के बाद भी  न कुछ बदलेगा 

फूल तब भी खिलेंगे 

जुलूस तब भी निकलेंगे 

जश्न , हंगामे 

यूँ ही रहेंगे महकाते 

काली स्याह अँधेरी रातें 

सूरज जैसा भी होगा , उगेगा 

चाँद बदरिया की धज पर ही रुकेगा 

बर्फ यूँ ही रहेगी पिघलती पहाड़ों से 

ये और बात है 

कुछ नदियाँ फिर भी बहेंगी सूखी 


मेरे मरने के बाद भी  न कुछ बदलेगा 

फिर क्या अर्थ है मेरे मरने का 

क्यों मैं घोंपता हूँ 

अपनी ही आँखों में सलाखें ?

क्यों मैं काटता हूँ 

अपनी मज़बूत टाँगें ?

शायद , हाँ शायद 

किसी बंजर आँख में इक गुलाब खिल जाए

उधड़ा हुआ गिरेबाँ किसी का सिल जाए 

हाँ , शायद इसीलिए 

अर्पित करता हूँ अपने प्राण 

पर आज तक समझ नहीं पाया 

क्या नाम है इस लालसा का ?

कैसे , कहाँ से आती है मन में ऐसी कामना ?

शायद इसीलिए आज तक मर नहीं पाया 

जो भी हो इस कामना का कारण 

जब भी हो मेरी मृत्यु 

लेकिन हे ईश्वर !

मेरी मृत्यु से पहले मुझे न मारना।  

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