ज़रूरत
इस अँधेरे शहर में
कोई भी नहीं जलाता
अपना घर ,
तंग सीलन भरी
बीमार गलियों की साँसें मजबूर हैं
अपने ही क़दमों के नीचे
दबी ज़मीन से बहुत दूर हैं
इन अँधेरी गलियों में
ज़रूरत , किसी सूरज की नहीं है
ज़रूरत सिर्फ
मिटटी के एक दिए की है
जो हमारे आस - पास ही
यही कहीं है
ज़रूरत है सिर्फ
उस मासूम मुस्कान की
जो अपने ही घर में
आग लगाने से
बेसाख़्ता आ ही जाती है
जो अपना सब कुछ लुटा कर भी
किसी न किस के
काम आ ही जाती है
लेकिन
इस अँधेरे शहर में
कोई भी नहीं जलाता
अपना घर।
कवि - इन्दुकांत आंगिरस
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