Thursday, June 12, 2025

शहर और जंगल - ज़रूरत

 ज़रूरत 


इस अँधेरे शहर में 

कोई भी नहीं जलाता 

अपना घर ,

तंग सीलन भरी 

बीमार गलियों की साँसें मजबूर हैं 

अपने ही क़दमों के नीचे 

दबी ज़मीन से बहुत दूर हैं 

इन अँधेरी गलियों में 

ज़रूरत , किसी  सूरज की नहीं है 

ज़रूरत सिर्फ 

मिटटी के एक दिए की है 

जो हमारे आस - पास ही 

यही कहीं है 

ज़रूरत है सिर्फ 

उस मासूम मुस्कान की 

जो अपने ही घर में 

आग लगाने से 

बेसाख़्ता  आ ही जाती है 

जो अपना सब कुछ लुटा कर भी 

किसी न किस के 

काम आ ही जाती है 

लेकिन 

इस अँधेरे शहर में 

कोई भी नहीं जलाता 

अपना घर। 


कवि - इन्दुकांत आंगिरस 

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