मज़हबी जुनून
जब शहर की सड़कों से गुज़रता हुआ
मुर्दा सन्नाटा
बंद दरवाज़े की छोटी सी झिरी से
घर में आ घुसा
तो कलेजा मुँह को आ गया
बस अब नहीं बचेंगे हम
हे ईश्वर !
बस आज की रात किसी तरह गुज़ार दे
लेकिन समय कब रुका है
कब किसी शय के आगे झुका है
मेरी सदा दहलीज़ भी न लाँघ पाई
दरवाज़े पे एक जंगली दस्तक आई
दरवाज़ा खोलो नहीं तो तोड़ डालेंगे
हे ईश्वर !
अपनी डूबती कश्ती को बचने अब किसे बुलाऊँ
इन जवान बेटियों की उरानियाँ कहाँ छुपाऊँ
बस अब थोड़ी ही देर में
मेरी रगों में बहता ख़ून
फ़र्श पर बिखर जाएगा
जो काम मुझसे हो न सका
वो दोस्त मेरा कर जाएगा
दरवाज़ा खोलो !
ऐ मेरे ख़ुदा ! , कुछ तो बोलो
अगर तुम मेरी मदद को आ नहीं सकते
तो फिर
मुझे अँधा और बहरा बना दो
क्योंकि ज़बान के होते हुए भी
गूँगा तो हूँ मैं वैसे ही ,
पर सुनो
मुझे अँधा और बहरा बनाने से पहले
एक बार सिर्फ एक बार
मुझे मोहम्मद , गाँधी , यीशु और नानक के
बलिदान की कथा सुना दो
फिर मुझे अँधा और बहरा बना दो।
दरवाज़ा खोलो
ऐ मेरे ख़ुदा ! कुछ तो बोलो
वो दरवाज़े के उस पार जो शख़्स खड़ा है
यक़ीनन मेरी जान के पीछे जो पड़ा है
कभी बचपन की गलियों में
मेरे साथ वो खेला होगा
इक दूसरे का सुख - दुःख
मिलजुल कर हमने झेला होगा
वो भी मुझको
देखते ही पहचान जायेगा
फिर भी वो ज़ालिम लेकर मेरी जान जाएगा
फिर खोल ही देता हूँ दरवाज़ा
भीतर जो वो आता है , आए
बुझती हो मेरे ख़ून से
जो प्यास उसकी , तो बुझाए
बेशक इस क़त्ल को
हक़ीक़त ही माने आप
पर फिर भी
सच कुछ और है जनाब
वो फ़र्श पर बिखरा
मेरा ख़ून भी , मेरा नहीं है
मैं मानता हूँ मेरे दोस्त
तेरा जुनूँ भी तेरा नहीं है
क़त्ल तो इक मज़हब ने
दूसरे मज़हब का किया है
इस मज़हबी जुनून ने
क़त्ल उसका मेरा या तुम्हारा नहीं
क़त्ल हम सब का किया है।
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