Saturday, June 21, 2025

शहर और जंगल - लिखना

 लिखना 


हम क्या जानें 

अनपढ़ , गँवार

राजनीति , समिति 

संसद , राजपथ 

मंत्री , प्रधानमंत्री 

होगी , जिसकी होगी सरकार 

हम को दो रोटी की दरकार 


कौन सुनेगा हमारी आपबीती 

आप या आपकी राजनीति ?

ज़ात हमारी मज़दूरी है 

रोना अपनी मजबूरी है 

दो जून की रोटी गर मिल जाए  

फूल इस बग़िया  के फिर खिल जाएँ 

श्रम ही अपनी पूजा है 

बाक़ी सब बेकार ,

अख़बार 

हम पढ़ नहीं सकते 

स्वप्न हम गढ़ नहीं सकते 

भैया , तुम कवि हो।,

तुम लिखना 

लिखना , हम ग़रीब भी हैं 

ग़रीबी की रेखा में भी हैं 

रहने को अपने पास कोई घर नहीं है

फिर भी हम यारों ! बेघर नहीं हैं 


फुटपॉथ ही अपना बसेरा  है 

दूर बहुत हमसे सवेरा है 


लिखना 

हमारा पेट , पेट नहीं कुआँ  है 

जिसको जितना भरते हैं 

उतना ख़ाली होता है 


लिखना 

मरता है कोई , तो मरे 

भूल से भी कोई 

इस कुएँ  को न भरे 

बन के बम 

न कहीं  कोई फट जाए 

किसी रेल के नीचे 

न कोई कट  जाए 


लिखना 

किसी के बम बनकर 

फटने से पहले लिखना 

किसी के रेल से 

कटने से पहले लिखना। 


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