आक्रोश
सामने वाली दीवार पर
एक अरसे से
उभरती ही जा रही है
एक घिनौनी तस्वीर
काळा होंठ , बुझी आँखें , ज़र्द चेहरा
और
कितना बेडौल है ये पेट
जाने कौन खोद गया एक भद्दी गाली
धीरे धीरे उस दीवार की
एक एक ईंट गिरती रही
फिर उभरा
एक साफ़ - सुथरा मकान
बालकनी पर एक इंच मुस्कान
आज रात
मैं ज़रूर चिपका दूँगा
इस साफ़ - सुथरे मकान की
हर दीवार पर
जिस पर
ठीक वैसी ही घिनौनी तस्वीरें
आज रात
मैं ज़रूर फाड़ दूँगा
ये महीन परदे
पर , मुझे डर है
मेरी आत्मा मुझे मार न दे
इसलिए आज रात
मैं ज़रूर मार दूँगा
अपनी आत्मा।
शहर और जंगल
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