Wednesday, May 7, 2025

शहर और जंगल - आक्रोश

 आक्रोश 


सामने वाली दीवार पर 

एक अरसे से 

उभरती ही जा रही है 

एक घिनौनी तस्वीर 

काळा होंठ , बुझी आँखें , ज़र्द चेहरा 

और 

कितना बेडौल है ये पेट 

जाने कौन खोद गया एक भद्दी गाली 

धीरे धीरे उस दीवार की 

एक  एक ईंट गिरती रही 

फिर उभरा 

एक साफ़ - सुथरा मकान 

बालकनी पर एक इंच मुस्कान 

आज रात 

मैं ज़रूर चिपका दूँगा 

इस साफ़ - सुथरे मकान की 

हर दीवार पर 

जिस पर 

ठीक वैसी ही घिनौनी तस्वीरें 

आज रात 

मैं ज़रूर फाड़ दूँगा 

ये महीन परदे 

पर , मुझे डर है 

मेरी आत्मा मुझे मार न दे 

इसलिए आज रात 

मैं ज़रूर मार दूँगा 

अपनी आत्मा।  



शहर और जंगल 

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