बासी गंध
महल में क़दम रखते ही
खिल गया राजकुमार का मन
पुती हुई दीवारें
फ़ानूस फ़व्वारे !
महल क्या था !
नई नवेली दुल्हन
हाँ , राजकुमार की दुल्हन
ताज़ा महकते फूलों सी सजी
दुल्हन रह गयी ठगी की ठगी
मन्द मन्द शर्माती थी
होंठों में मुस्काती थी
मैदान को खुलती खिड़की खोली
दुल्हन झिझकी , दुल्हन बोली
" सुनिए प्राणों के दास
कैसी है ये बास ? "
और महल के उस पार
दूर तक फैली झोपड़ पट्टी
उनसे उठता काला धुआँ
दूर तक फैला मुर्दा सन्नाटा
चटकते सूखे बाँस
खिड़की से घुसता काला धुआं
राजकुमार ने रोक ली
अपनी साँस
और झट से कर दी खिड़की बंद
लेकिन फिर भी आती रही
बासी गंध
धुएं में लिपटी बासी गंध
मज़दूर कि रोटी कि बासी गंध
बेटियों के बदन कि बासी गंध
जलते गोश्त कि बासी गंध
टूटते जिस्मों की बासी गंध
राजकुमार ने जड़वा दिए
अपारदर्शी शीशे खिड़की में
लेकिन फिर भी आती ही रही बासी गंध
गंध कब रुकती है
आग की तरह , इसके भी पैर नहीं होते
लेकिन फिर भी चलती है
हवा में घुल जाती है गंध
और न चाहने पर भी
घुस जाती है नथनों में
लेकिन , लोग
रख लेते हैं मुँह पर रुमाल
और निकल जाते हैं दबे पाँव
गंध रह जाती है वहीँ की वहीँ
कही कोई आवाज़ नहीं उठती
किसी की भी आत्मा से
नहीं उठता संगीत
और बासी गंध रच - बस जाती है
चंद ज़िंदा लाशों की
साँसों में।
कवि - इन्दुकांत आंगिरस
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