Saturday, July 1, 2023

लघुकथा - पसलियाँ

  पसलियाँ 


लाल बत्ती चौराहे पर उस नर - कंकाल को देख कर मैं लगभग जड़ हो गया। उसकी ख़ाली कुर्सी वही पड़ी थी लेकिन  औरत ने उसे पकड़ कर खड़ा कर रखा था और उसके दोनों हाथ भीख माँगने के लिए फैला रखे थे। मैं ग़ुस्से में तमतमाते हुए उस औरत पर बरस पड़ा -

"तुम्हे शर्म नहीं आती।  इस पिंजर को अस्पताल में होना चाहिए और तुम चौराहे पर इसकी नुमाइश कर रही हो। "

वह सकपका कर बोली - " बाबू जी , इसको पकडे रखने में मेरी भी पसलियाँ  दुखती हैं लेकिन क्या करूँ मजबूरी है। अगर यह कुर्सी पर बैठ जाता है तो लोगो की नज़र इस पर नहीं पड़ती और इसके खड़े रहने से इसकी एक एक पसली भी  दिखाई देती हैं।  लोग यह जान कर कि ये मरने वाला है इसके कफ़न के लिए पैसे दे जाते हैं।बच्चें तीन दिन से भूखे हैं तो मैंने सोचा कि ख़ुद को बेचने से पहले इसकी नुमाइश ही कर दूँ।   

उसकी दलील सुन कर मैंने अपनी नज़रें झुकाई और आगे बढ़ गया। 


लेखक - इन्दुकांत आंगिरस 

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