मुहावरा - अंग-अंग खिल उठना
लघुकथा - नदी का प्रेम
यह सारी दुनिया प्रेम पर ही टिकी है। अगर दुनिया में प्रेम न होता तो हम और आप नहीं होते , ये ज़मीं , ये आसमां नहीं होता। फूल नहीं होते , तितलियाँ नहीं होती। नदियाँ और समुन्दर नहीं होते। एक समुन्दर की प्रेम कहानी आज फिर ज़ेहन में ताज़ा हो गयी। वो समुन्दर एक नदी के प्रेम में इतना पागल हो गया था कि रात रात भर जाग जाग कर तारे गिनता रहता। कभी ख़ामोश हो जाता तो कभी उसकी लहरें आकाश को छूने लगती। लेकिन नदी , चाँद से प्रेम करती थी , हाँ उसी चाँद से जो रोज़ उसके पानी में नहाता था। नदी ने बहुत चाहा कि किसी तरह चाँद ज़मीं पर उतर आये लेकिन ये नामुमकिन था सो नहीं हुआ। नदी को समुन्दर की चाह नहीं थी लेकिन उसके पास कोई और राह नहीं थी। अपनी क़िस्मत से ही लाचार थी। नदी अपने तटबंधों में कब तक बहती। आख़िर एक दिन समुन्दर में विलय हो गयी। समुन्दर के प्रेम की रौशनी में नहा कर नदी चाँद को भूल गयी और उसका अंग अंग खिल उठा। समुन्दर की ख़ुशी का तो कोई ठिकाना ही नहीं था। उसके ठहाके तो आकाश तक गूँज रहे थे।
लेखक - इन्दुकांत आंगिरस
No comments:
Post a Comment