कहानी - ठहाके
४ फुट , ४
इंच , हाँ लगभग इतना ही क़द है  उस काले - कलूटे  मरियल से जीव का जिसका एक बाज़ार भी अधखुला है ।
यूँ तो जनाब सरकारी मुलाज़िम है  लेकिन शाइरी
का शौक़ फ़रमाते हैं  और ख़ुद को शाइर कहते हैं
। तरन्नुम में ग़ज़ल पढ़ते यानी  गाते अच्छा हैं
। अब शाइर है तो शाइरों वाले शौक़ भी हैं , आख़िर ग़ज़लें यूँ ही तो नहीं कही जाती।  उनकी शाइरी का हर रोज़ नया अफ़साना , शमा , बुलबुल
,मैख़ाना , साज़ और आवाज़ , सुरा और सुंदरी,  नज़र
और नज़राना , गजरा और मुजरा  , ये सब अनासिर
मिले तो ग़ज़ल होती है। 
दिल्ली की
एक पुराने अदबी हल्क़े में उनसे पहली मुलाक़ात आज भी ज़ेहन में ताज़ा है। हल्क़े की नशिस्तों
में आते - जाते जनाब कब शाइर बन गए , उन्हें ख़ुद मालूम नहीं पड़ा।  तरन्नुम से ग़ज़ल पढ़ते , कोई  दाद  दे
या नहीं   बिजली की तरह माइक पर जाना और ग़ज़ल
पढ़ कर लौट आना। कई बार तो मुशायरे का आगाज़ उन्हीं के क़लाम से होता और इसी बात से वो
खीज उठते और नाज़िम को बुरा - भला कहने से नहीं चूकते -" अरे भई , ये तो ग़ालिब
है , बस यही कहते हैं ग़ज़ल , बाक़ी तो सब घास काटते हैं "। 
पता नहीं
नाज़िम तक उनकी शिकायत पहुँचती या नहीं लेकिन अगर मुशायरे के आगाज़ के वक़्त वो मौजूद
हो तो मुशायरा का आगाज़ उनके क़लाम से होना तय था। 
मुलाक़ाते बढ़ी तो बातों का सिलसिला बढ़ता गया। एक दिन मुशायरे के बाद मुझे  अपने साथ अपने 
घर ले गए। उनके घर के दरवाज़े पर लकड़ी के नेम  प्लेट  पर
उर्दू ज़बान में उनका नाम लिखा था।  मैंने अपनी
टूटी - फूटी उर्दू से धीरे धीरे वो नाम पढ़ा - " बरबाद  देहलवी "। 
मुझे लगा
ये शाइर एक दिन ज़रूर अपना नाम रौशन करेगा , ख़ुद तो बरबाद है ही , दिल्ली के अदबी माहौल
को भी बरबाद कर के छोड़ेगा।
कामिनी ,
हाँ यही नाम था उनकी बीवी का जो मुझे पहली नज़र में क्यों अच्छी लगी , नहीं मालूम। शायद
इसलिए कि दूसरो की बीवियाँ और अपने बच्चें सभी को अच्छे लगते हैं। परिवार के नाम पर
जनाब के पास एक अदद बीवी और छह बच्चें थे , चार लड़कियाँ और दो लड़के।  सभी बच्चे अभी पढ़ ही रहे थे।  बीवी का रंग भी काला था लेकिन  नैन नक्श 
आकर्षक  थे। मुँह में पान और होंठों
पर पान की लाल पपड़ी के कारण  मैं उसके होंटो
के रंग का अंदाजा नहीं लगा पाया था। काली घनेरी ज़ुल्फ़े जो उसके काले बदन के साथ घुल
-मिल जाती।  चाल - ढाल और रंग - ढंग ऐसा कि
पहली नज़र में कोई उसे जमादारनी समझ ले तो कोई आश्चर्य नहीं। " रानी हो कि मेहतरानी
मुस्कुराएगी ज़रूर , जवानी हर हाल में गुनगुनाएगी ज़रूर "। कुछ रंग ऐसे भी होते
हैं जो जितने भी काले हो लेकिन दिल को भा जाते हैं।   जी , इसमें कोई दो राह नहीं थी कि छह बच्चे जनने
के बाद भी वो जवान दिखती थी लेकिन अनपढ़ थी । अब मेरी समझ में आया कि कामिनी अभी तक
अपने खड़ूस खाविंद  को छोड़ कर भागी क्यों नहीं
थी। एक तो अनपढ़ दूसरे छह बच्चों की माँ  , जो
अब तक अपने शौहर को छोड़ कर नहीं भागी तो अब अपने बच्चों का घोंसला  छोड़ कर उड़ने वाली
नहीं हैं।  मौलाना जलालुद्दीन रूमी का जुमला
' बच्चों  वाली औरत कभी भी आपको पूरी नहीं मिल
सकती ' भी मैंने नज़र अंदाज़ कर दिया और उससे मुहब्बत  का सिलसिला बढ़ाने लगा।  
औरतो को पटाने
के हुनर में , माहिर था मैं ,  विशेषरूप  से शादी - शुदा औरतों को उनके खाविन्दों की मौजूदगी
में।  जब तक उनके खाविन्दों को पता लगता अक्सर
देर हो गयी होती।मैं  कभी बरबाद देहलवी के साथ
तो कभी अकेले उसके घर आने - जाने लगा। बच्चों के लिए चॉकलेट और उनकी माँ के लिए कोई
न कोई उपहार मसलन परफ्यूम , पान , पाउडर , फूल 
...अक्सर खाना -पीना भी होता।  बरबाद
साहिब की ग़ज़लें मुझे झेलनी पड़ती। शाइरी होती तो मैखाना भी खुलता , तीन - चार पैग के
बाद बरबाद अक्सर लुढ़क जाता लेकिन हमारी बातों का सिलसिला देर रात तक चलता रहता। मैं
उससे दिलचस्प बाते करता और वो खूब मज़ा लेकर सुनती , बीच बीच में उसकी हँसी के झरने
फ़ज़ा में घुलने लगते।  उसकी ज़ुल्फ़े खुल जाती
तो नदी की लहरों की तरह बल खाती। मुझे उसका गँवारपन अब भाने लगा था। उसकी अनपढ़ी भाषा
में एक अजीब क़िस्म का लुत्फ़ था। अब मुझे पढ़े -लिखे लोगो की नपी -तुली भाषा बनावटी लगने
लगी थी। ज़र्दा , शराब और शबाब की मिली जुली ख़ुश्बू और खिड़की से आती ठंडी हवा के झोंके।
कुछ बहार और कुछ ख़ुमार  का मौसिम।  
ऐसी ही सर्दियों
की एक शाम मैं उनके घर गया। जनाब शाइर अपनी नई ग़ज़ल सुना रहे थे। मय और मैख़ाना , शमा
और परवाना , नज़र और नज़राना।  अभी थोड़ा ही  वक़्त
गुज़रा था कि बरबाद देहलवी मुझसे मुखातिब हो बोले - 
" हज़ूर
, थोड़ा टाइम है आपके पास ? देर तो नहीं हो जाएगी ?"
उसकी बात सुन कर मैं अंदर ही अंदर जल गया। इस काले - कलूटे मरियल जीव से भी कोई इश्क़ कर सकता है क्या ? , क्या उसे इसका एक बाज़ार भी दिखाई नहीं दिया ? वो भी इसकी तरह कानी है क्या ?
ख़ैर , हम लोग बाज़ार में पहुँचे , उन्होंने मेहँदी के चार पैकेट ख़रीदे और हम लोग वापिस उसी मोड़ पर पहुँच कर उस आने वाली का इन्तिज़ार करने लगें। घडी नौ की सुई पार कर गई लेकिन आने वाली ना आई। बरबाद की बेसब्री बढ़ी जाती थी। अँधेरे में दूर से आती किसी औरत की आकृति दिखाई पड़ी तो मैंने उत्सुकता से पूछा - " यही हैं क्या ?"
- " बहुत दुखियारी
है हज़ूर , कल तो मेरे सीने से लिपट के रो पड़ी थी " - बरबाद ने जज़्बाती हो कर कहा था।
" अपनी
लड़की को लेकर  परेशान है , भाग कर शादी कर ली
है उस ने। " बरबाद ने मेरे कान में फुसफुसाते हुए कहा गोया ये क़िस्सा कोई गहरा
राज़ था। 
मैं ताड़ गया
कि मुझको भगाना चाहता है लेकिन मैं बेशरम बन डटा रहा।  इसी तरह आधा घंटा बीत गया लेकिन यार का यार न आया।
अंततः यही तय हुआ कि अगले दिन मैं उसे किसी समाज सेविका से मिलवाऊँगा और  बरबाद उनको लेकर मेरे पास आएगा।  यूँ तो मैं समाज सेविका के नाम दो लाइनों का ख़त
भी लिख कर दे सकता था लेकिन मेरा मन बरबाद की छम्मक - छल्लों को देखने में अटका था  सो मैंने अपना जाल बिछा दिया था। 
                                                                          ***
अगले दिन
नियत समय से कुछ पहले ही बरबाद अपनी बुलबुल को साथ ले कर मेरे पास आ गया जिसका नाम
मीना था  । पहली नज़र में मुझे बुरी नहीं लगी।
गोरी -चिट्टी , इकहरे बदन की लम्बे क़द वाली , शोल्डर कट बाल ,जींस और टॉप्स में किसी छैल - छबीली सी दिखती थी।।  पति ने छोड़ दिया था या यूँ कहे
उसने अपने पति को छोड़ दिया था। पति बेड़वा था और रोज़ रोज़ की मार पीट से तंग  आ कर  वह
बच्चों को ले कर अलग रहने लगी थी। ख़ैर समाज सेविका के पास जाने से पहले मैंने उसे फ़ोन
किया तो पता चला  कि उसके कुनबे  में कोई गुज़र  गया था जिसके चलते आज उस से मुलाक़ात नहीं हो सकती।  
सर्दियों
की  खिली खिली धूप थी , सो हम तीनो नज़दीक ही एक पार्क में जा कर बैठ गए।  आधा किलो मूंगफली ख़रीद ली गयी और मीना ने अपनी किताब
के पन्ने उलटने शुरू किये  । 
- "
आप सोच तो रहे होंगे कि आख़िर इस नमूने से मेरा क्या रिश्ता है " - मीना ने मुझ
से मुस्कुराते हुए कहा। 
मैं उसकी साफ़गोई पर थोड़ा हैरान हुआ लेकिन ख़ुश था कि हूर धोखेबाज़ नहीं है। फिर भी मैं समझ नहीं पा रहा था कि वह ये सब बाते मुझे क्यों सुना रही थी।अपनी दास्तां आगे बढ़ते हुए बोली - " आपको क्या बताऊँ , बुड्ढे से कुछ होता ही नहीं ..."
उस दिन मेरी समझ में आया कि एक औरत का दूसरी औरत से जलने का कारण सिर्फ उसकी सुंदरता ही नहीं होती। एक सुन्दर औरत भी एक औसत औरत से जल सकती है। एक ऊँची बिरादरी की औरत नीची बिरादरी वाली औरत से ईर्ष्या रख सकती है। ख़ैर तब तक बरबाद वापिस आ गया था और हमारी गपशप आगे बढ़ गयी थी। माहौल को ख़ुशनुमा बनाने के लिए बरबाद ने मीना से गाने की फ़रमाइश कर डाली और मीना ने अपनी दर्द भरी आवाज़ में दर्दीला फ़िल्मी गाना सुनाया " दुनिया में हम आये है तो जीना ही पड़ेगा , जीवन है अगर ज़हर तो पीना ही पड़ेगा। " गाना ख़त्म होते ही बरबाद भड़क उठा - ' अरे , ज़हर पिए तुम्हारे दुश्मन , हम है न तुम्हारे साथ , घबराओ नहीं , सब ठीक हो जायेगा , क्यों हज़ूर ? ' बरबाद ने मेरी तरफ नज़र उठाते हुए कहा।
- "
हाँ , हाँ , क्यों नहीं , बरबाद तुम्हें बरबाद नहीं होने देगा।  " मैंने चुटकी लेते हुए कहा।
- "
हज़ूर , एक गुज़ारिश है आपसे। " मीना ने उदासी से कहा 
- "
जी कहिये , क्या ख़िदमत करूँ आपकी " मैंने शायराना अंदाज़ में कहा। 
- "
ख़िदमत तो हज़ूर की हम करेंगे , आप तो थोड़ी Help कर दीजिये हमारी। " मीना ने कहा
हेल्प शब्द
मेरे लिए नया नहीं था।  मैं समझ गया कि अब पैसो
की बात उठेगी , फिर भी मैं  अनजान बन कर बोला
- " बोलिये कैसी हेल्प चाहिए। "
मीना पेशोपश
में थी , उसने बरबाद की तरफ़ नज़रे उठाई और बरबाद उसका इशारा समझ कर बोला - " हज़ूर
इनके  DDA फ्लैट की EMI पेंडिंग हो गयी है।  कमाऊँ जवान लड़की घर से भाग चुकी है। DDA से नोटिस
आ चुका है।  आप इन्हें १ लाख की हेल्प कर दें
, ये जल्दी लौटा देंगी आपको , क्यों मीना ? " बरबाद ने मीना की ओर सवालिया नज़र
उठाई। 
- अब तो ख़ुश हो जा " बरबाद उसकी कमर पे हाथ फेरते हुए बोला।
- " देखिये हज़ूर , बुड्ढा फिर शुरू हो गया " कह कर उसने ज़ोर से ठहाका लगाया।
वो दोनों
चेक लेकर चले गए थे और मैं खुले आसमान में चलता 
जा रहा था। नज़दीक से कुछ औरतों के ठहाके मेरे कानों में बज रहे थे। इस दुनिया
में औरतो की खनखनाती हँसी और ठहाकों से क़ीमती दौलत कुछ भी नहीं।
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लेखक - इन्दुकांत
आंगिरस
  
  
 
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