लघुकथा - सोलह श्रृंगार
- " कुछ सज - सँवर कर रहा कर , तभी तो पति को रिझा पायेगी। " रीता ने अपनी छोटी बहिन चाँदनी से कहा।
- " दीदी , काजल , बिंदी सब लगाती तो हूँ .."
- " अरे , ख़ाली काजल , बिंदी से कुछ नहीं होगा , सोलह श्रृंगार होते हैं। "
- " उई माँ , मुझे तो सोलह श्रृंगार के नाम भी नहीं मालूम। "
रीता ने अपनी बहिन चाँदनी को सोलह श्रृंगार का ज्ञान दे दिया और शाम ढलते ढलते चाँदनी सोलह श्रृंगार कर तैयार हो गयी। देर रात थका - माँदा पति घर लौटा तो वह उसके सामने जा कर खड़ी हो गयी और बोली - सुनिए , आज कैसी लग रही हूँ मैं ?
पति मेहनत कर के लौटा था। उसका बदन पसीने में भीगा हुआ था और प्यास से उसका गला सूख रहा था। उसने झल्ला कर अपनी पत्नी से कहा - " महारानी , पहले एक गिलास पानी ले आओ , कैसी लग रही हूँ मैं....अरे , जैसी हो वैसी ही लग रही हो ....
चाँदनी सकपका कर पानी लाने रसोई में घुस गयी और अपने सोलह श्रृंगार की ठीक - से गिनती करने लगी।
लेखक - इन्दुकांत आंगिरस
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