Wednesday, February 15, 2023

मुक्तक

 

तेरे मुस्काने भर से मेरा दिल निखर तो गया 

चढ़ा हुआ था जो  दरिया आख़िर उतर तो गया 


दिल से दिल का सिलसिला तो निकले 

इस रूह मैं फंसा आबला तो निकले 

कनेर के फूलों की धनक है तुझमें 

चाँद की किरणों सी चमक है तुझमे 

एक आशिक सा धड़कता मेरा दिल 

प्रेम की कुछ ऐसी झमक है तुझमें 



पत्थर से  शीशा बन जाना सब के बस की बात नहीं 

सीने में ग़म को दफ़नाना सब के बस की बात नहीं 

ग़ैरों के रिसते ज़ख़्मों पर कोई भी हँस लेता है

अपने ज़ख़्मों पर मुस्काना सब के बस की बात नहीं 



मेरा सफ़र रुक गया तो क्या हुआ 

इस रहगुज़र से  क़ाफ़िला तो निकले   


तुझ से मिले बगैर मेरा दिल घबराता है 

तेरा जमाल ही इस दिल को महकता है 


तुम मेरी आत्मा का जीवंत एहसास हो 

मैं तनहा हूँ लेकिन तुम आस पास हो  


खजुराहो में ढली एक सूरत हो तुम 

प्रेम की अनोखी एक मूरत हो तुम 






मुहब्बत को दिल में बसाये तू  रखना 

सदा शम्अ-ए-उल्फ़त जलाये तू  रखना

मिलन दो दिलों का न आसान होगा 

मगर दिल से दिल को लगाए तू रखना


रक़्स करती ज़िंदगी हृदये की धुन पर 

भाती है बहुत दिल को ये रुनझुन पर 


दर्द की एक ठहरी नदी लगती हो तुम 

सारंगी की तड़पती धुन लगती हो तुम 


कुछ शरारत तेरे लबों ने कर दी है 

ज़िंदगी मेरी खुशियों से भर दी है

 

मंदिर की दीपशिखा सी लगती हो 

तुम एक रूहानी परी सी दिखती हो 




सितम करो इलज़ाम न दो 

मुझे आँसू का इनाम न दो 

मैं भूल गया हूँ ख़ुद को भी 

अब मुझको कोई नाम न दो  



ठहरे हुए कितने पैमाने है इनमें

गुज़रे हुए कितने ज़माने है इनमें

ये आँखें नहीं गहरी झील हैं यारों

डूबे हुए कितने दीवाने हैं इनमें 


प्रीत  की एक नदी लगती हो 

लम्हों की एक सदी लगती हो 

लगता है क़यामत आने को है 

एक आसमानी परी लगती हो  

 


मैं  गगन का गीत हूँ और तुम धरा की ताल हो

मैं  हूँ लम्हा प्रीत का और तुम प्रणय का जाल हो

जीत कर भी हार ही जाऊंगा तुमसे हर क़दम

मैं भले इक्का यहाँ मगर तुम तुरूफ़ की चाल हो

 

 

माना कि आना जाना यहां हाथ में नहीं  हैं

अब हमसफर भी कोई अपने साथ में नहीं हैं

मुख़्तसर  है सफर बहुत ज़िंदगी का यारों

हमसाया  उजाले का अब रात में नहीं है

 

चांदनी से  चाँद भी जलने लगा

दर्द सा सीने में इक पलने लगा

स्वप्न जो ठहरा हुआ था आँख में

पीर के परबत सा अब गलने लगा

 

तुम जिसे छू दो नशा छाने लगे

जिस उदासी को कहो वो गाने लगे

रूप हो या कोई मदिरा हो तुम

कि जागते में नींद सी आने लगे

 

अधरों की मुस्कान  बना मैं

खुशबू की पहचान बना मैं

किशना की मुरली में ढ़लकर

सूर बना रसखान बना मैं



 चाँद की किरणों से चमक है तुझमे

वसंत के फूलों से धनक  है तुझमे

समंदर भी तू ,मौजे  रवानी भी तू

मंदिर के दीयों सी रमक है तुझमे

 

 

 

तुम बहा लो जितने भी बहा सको आंसूं

सबको अपने दामन मैं समेट लूंगा मैं

और फिर दर्द ,पीड़ा ,कष्ट ,विषाद ,विरह

इन सबको अपने नग़मों में पीरों दूंगा में 


धीरे धीरे मेरे सीने में उतर रही हो तुम

 धीरे धीरे मेरे लहू में पसर रही हो तुम

 एक बर्फ के टुकड़े सा सुलग रहा हूँ मैं

 और एक नदी बनकर बिखर रही हो तुम 


हरेक ग़म को पलकों पे सजाया नहीं करते 

बेवजह आसुओं को लुटाया नहीं करते 

जल जाते हैं अपनी ही आग में हँस कर 

परवाने किसी का दिल जलाया नहीं करते 


भूली हुई यादों को सजाया नहीं करते 

सोये हुई सपनो को जगाया नहीं करते 

कोई समझा दो इस पगले दीवाने को 

जाते हुई पतझड़ को बुलाया नहीं करते 



ग़म में डूबा साज़ भी अब यह गाता नहीं 

आँख में तेरा हुआ आंसू कही जाता नहीं 

रोज़ सजाता हूँ अपने वीराने दिल को 

इस नामुराद दिल में रहने कोई आता नहीं 


अपनी आँखों में महकता गुलाब रहने दे 

ग़ज़लें मोहब्बत की सच्ची किताब रहने दे 

मैं समझा ही लूँगा अपने मचलते दिल को 

मेरा सवाल रहने दे मेरा जवाब रहने दे 




कवि - इन्दुकांत आंगिरस