आज बहुत दिनों बाद 
कविता की शाम ने 
 फिर दस्तक दी है 
मेरी आत्मा पर 
और मेरी आत्मा 
निकल पड़ी है 
कविता के 
अंतहीन सफर पर 
इस सफर  में 
धरती , पेड़ झरने 
सूरज , चांदनी , पहाड़ 
नदी , समुंदर सब साथ है 
मेरे हाथ में तुम्हारा हाथ है 
वसंत ने बदली है करवट 
और मेरी आत्मा ने 
फिर सुना है 
वसंत का ठहाका ।
कवि - इन्दुकांत आंगिरस
 
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