मैं कच्ची अनाम मिटटी 
धूप  हवा पानी में घुलमिल कर
 खिलने  लगा  खिलखिलाने लगा
तुम फूल बन कर 
मेरी आत्मा से उठे 
और मुझसे 
चढ़ती बेल की मानिंद लिपट गये
लम्हों का सफर तय करते करते 
मुझे मालूम ही नहीं पड़ा 
में कब तब्दील हो गया 
एक पत्थर में 
तुम फिर मेरी आत्मा से उठकर 
लिपट रहे हो मेरी देह से 
और मैं
पिघल रहा हूँ धीरे धीरे 
तुम्हारी बाँहों  में 
फिर से  कच्ची अनाम मिटटी में 
मिलने के लिए ।
कवि - इन्दुकांत आंगिरस
 
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