सूरज की उगती
किरणों के साथ ही
टूट जाती है रात की नींद
नींद अपनी अधखुली आँखों से
देखती है जंगलों को
सुनती है उनकी ख़ामोशी को
फैलने लगते हैं जंगल
और फैलने लगते हैं सपने
धूप ,हवा , पानी , पर्वत ,झरने
सब मिलकर गाते हैं
प्रकृति का गीत
सपनों की अधखुली आँखों में
गिरती हैं
बारिश की बूँदें
शाम ओढ़ लेती है
रात की पोशाक
सूरज एक बार फिर
डूब जाता है
गहरे समुन्दर में
हवा सहलाने लगती है
रात की पलकों को
नींद आ ही जाती है
थके मांदे सूरज को
गुज़र जाता है एक और दिन
प्रकृति लेती है करवट
और
हम सब प्रतीक्षा करते हैं
अगली सुबह की ।
कवि - इन्दुकांत आंगिरस
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