घूंघट
बचपन में घर से बाज़ार तक जाने में उस गली के मोड़ पर इस्तरी करने वाली वो औरत मेरे लिए किसी कौतुहल से कम नहीं थी। सुबह , दोपहर , शाम जब कभी भी उस गली से गुज़रता वह एक लम्बा घूंघट डाले इस्तरी करती दिखती। घूंघट के पीछे उसकी सुंदरता को देखने को मेरा मन ललायित रहता। घूंघट के पीछे ज़रूर चाँद - सा मुखड़ा होगा लेकिन उस चाँद से मुखड़े के दीदार कब होंगे , कौन जाने। दिन , हफ़्ते , महीने और साल गुज़र गए लेकिन उसके घूंघट की लम्बाई कम न हुई। उसके हाथ , कलाइयाँ और पैरों के अलावा सब कुछ ढका रहता। मुझे आश्चर्य भी होता कि घूंघट डाले डाले कोई इतनी देर तक काम कैसे कर सकता है। एक दिन जब मैं उसके पास इस्तरी के कपडे लेने पहुँचा तो अचानक वो बेहोश हो कर गिर पड़ी। राहगीरों ने तत्काल उसके मुँह पर पानी के छींटे डाले तो उसका मुखड़ा देख कर मुझ पर बिजली - सी गिर पड़ी। वो पीले चाँद - सा मुखड़ा चेचक के दाग़ों से भरा हुआ था।
लेखक - इन्दुकांत आंगिरस
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