Wednesday, February 15, 2023

वसंत का ठहाका - माँ

  माँ


 

आज वो माँ नहीं रही 

उस जैसी और कोई भी नहीं , कही भी नहीं

 

 वो जिसने मुझे अपनी छाती  का दूध पिलाया था

वो जिसने मुझे पईया पईया चलना सिखाया था

वो जिसकी सांसों से चन्दन की गंध  आती थी

जो मुझे  बेरहम दुनिया के सितमों से बचाती थी 

 

जिसकी गोद में छिपकर मैं महफूज़ रहता  था

जिसकी पूजा मैं भगवान से पहले करता था

जिसकी आँखों में खुशिओं के चिराग़ जलते थे 

जिसकी आँखों में मेरे अधूरे सपने पलते थे 

 

जो खुद   भूखा रह कर भी मुझे खाना खिलाती थी

जो हर रात देर  तलक मुझे लोरियां  सुनाती थी

जो चांदनी रातों में मेरा पालना झूलाती थी

सुलाने को मुझे परियों  की कहानिया सुनाती थी

 

 जो मेरी हर नई चोट  पर बिलबिला उठती थी

मेरे हर ज़ख्म पर ममता की मरहम रखती थी

जिसकी आँचल की छाया में, मैं चैन से सोता था

जो पौंछती  थी हर आंसूं मैं  जब भी रोता   था

 

चूल्हे को फूँक फूँक जिसकी आँखे जल जाती थी

रोटीआं सेंकते जिसकी उंगलिआं  जल जाती थी

जिसकी हर सांस में मेरी ज़िंदगी गुनगुनाती थी

ज़िंदगी की कड़ी धूप में जो ठंडक बन जाती थी




कवि - इन्दुकांत आंगिरस 

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