Wednesday, February 15, 2023

वसंत का ठहाका - रहगुज़र

 


 

गुज़र जाते है मुसाफिर मुझ पर

करते है तय अपना सफर

कभी कोई तनहा ,कभी कोई काफिला

मेरे सीने पे रख कर क़दम

करता है तय अपना सफर

कुछ को मिल जाती है मंज़िले

कुछ भटकते रहते तमाम उम्र

मंज़िले भी तलाशती है दूसरी मंज़िले

पीड़ा का एक अंतहीन सफर

बस मैं ही रह जाता हूँ तनहा

बनती हूँ सबकी हमसफ़र

पर अंत  मैं रह जाती हूँ तनहा 

मैं हूँ एक जागता लम्हा

कभी भी कोई भी पुकार ले

मैं सदिओं से सोइ नहीं हूँ

मुझे तो जागना ही पड़ता है

फिर चाहे वो

रहज़न हो या रहबर। 



कवि - इन्दुकांत आंगिरस 

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