Wednesday, February 15, 2023

वसंत का ठहाका - गंगा

 

बनारस की गंगा


 

मैं गंगा हूँ ,  

देवभूमि गंगोत्री ,हिमालय की कोख से जन्मी

मैं बनारस की गंगा हूँ ,

मैं आतुर हूँ

धरती की फैली हुई बाँहों में

सदा सदा के लिए बहने को

धरती के रिसते  ज़ख़्मों की पीड़ा सहने को

करोड़ों लोगो की आस्थओं के दीप

मेरी लहरों पर बेख़ौफ़ तिरते हैं

मेरी लहरों पर चाँदनी के फूल खिलते हैं ,

मेरी पवित्र लहरों को छू कर

सूरज की किरणें भी जगमगा उठती हैं

उदास ,नम आँखें भी मुस्करा उठती हैं,


पेड़ , झरनें ,मिट्टी

फूल ,कलियाँ ,जंगल

पहाड़ , गावँ ,शहरों  से गुज़रती

मैं सिर्फ़ एक नदी नहीं

अपितु करोड़ों आत्माओं का विशवास हूँ

दुनिया की कोई भी मिसाइल

मेरी लहरों को भेद नहीं सकती

दुनिया का कोई भी एटम बम

मेरे पानी को फाड़ नहीं सकता

किसी  जेट विमान का गगन भेदी शोर भी

मेरी लहरों के संगीत को दबा नहीं सकता

मैं तो अनादि काल से बहती चली आ रही

प्रेम , शान्ति और विशवास की एक अनंत नदी हूँ


धूप ,हवा , पेड़ ,झरने ,मिट्टी

फूल ,कलियाँ , जंगल

पहाड़ , गावँ ,शहर सभी में मेरी प्रतिछाया  है

मेरी लहरें जन्म और मृत्य की अनाम माया है

मेरी पारस पवित्र लहरों को छू कर

मुरझायें फूल भी खिल उठते हैं

अधूरे सपने भी मुस्कराने लगते हैं

लोहे के सिक्के स्वर्ण मुद्राओं में तब्दील हो जाते हैं

स्वर्ण फूल दीपों के प्रकाश में जगमगा उठते हैं

मेरी लहरों में स्नान कर

महाकाल की आत्मा भी मुस्कुराने लगती है

ज़िंदगी का अधूरा नग़मा गुनगुनाने लगती है


 


एक दिन बदल जायेंगे

ये पहाड़ , जंगल , झरनें 

मिट्टी ,फूल और आदमी

सब बदल जायेंगे

लेकिन मैं सदियों सदियों तक

यूँ ही बहूँगी अनवरत

जन्म और मृत्यु की अनाम गाथा

मैं प्रेम , शान्ति और विश्वास की एक अनंत नदी हूँ 

मैं गंगा हूँ , हाँ , मैं बनारस की गंगा हूँ ।



कवि - इन्दुकांत आंगिरस 

 

 

 

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