रात
आज शाम से ही
बेतरतीब हो उठी है रात
बेशरम दुनिया के साथ साथ
जाग उठी है रात
ख़्वाबों के बिना
सूनी आँखों वाली रात
बिस्तर की सिलवटों में
उलझी उलझी रात
तूफ़ान में दिये सी
जलती बुझती रात ।
कवि - इन्दुकांत आंगिरस
No comments:
Post a Comment