Sunday, July 20, 2025

शहर और जंगल- उदयपुर की बड़ी हवेली के नाम

 उदयपुर की बड़ी हवेली के नाम 


मुझे मालूम ही नहीं पड़ा 

कब एक छोटा - सा गाँव 

एक शहर में 

और फिर एक आधुनिक जंगल में 

तब्दील हो गया 

इस आधुनिक जंगल में तो 

मंगल ही मंगल है 

पाँच सितारा होटलों से उठती 

अंग्रेज़ी धुनों के शोर में 

दबकर रह गयी है  सरगम 

आलिशान बंगलों के सायों में 

दम तोड़ रही हैं 

पुरानी हवेलियाँ  

लेकिन ढाई सौ साल पुरानी 

यह बड़ी हवेली 

आज भी वैसी की वैसी है 

इसके आँगन की तुलसी से 

महक उठती है मन की मिट्टी 

इसके ओसरों में दीपक जलते ही 

जगमगा उठते हैं 

हृदय के गलियारे ,

मुझे इसके ओसरों में बने 

चिडयों के घोंसलों के तिनके ,

तिनके नहीं 

हवेली के पुराने पत्थर दीखते हैं

जिनमें माँ की असीम ममता 

और बापू का स्नेह करवटें लेता है 

बाऊजी की सोंटी  की ठक ठक

और अम्मा की सुराही से निकलते 

पानी की कुल कुल की आवाज़ 

आज भी कानों में मिसरी - सी घोल देती है 

एक अविरल झरने की मानिंद 

इसकी दीवारों में आज भी 

उठता है संगीत 

आज भी सूरज की पहली किरणों से 

झिलमिला उठती हैं इसकी पलकें    

इसके झरोखों से आज भी 

झील से उठती ताज़ा हवा बहती है 

इसकी  दीवारों से 

अब तक नहीं उतरा है 

रस भरी होली का रंग 

असल में 

मेरे पूर्वजों की यह हवेली 

कोई हवेली नहीं 

अपितु 

भारतीत संस्कृति का प्रतीक है 

एक लम्हे , एक सदी का 

कभी न मिटने वाला 

अतीत है 

इसीलिए यह बड़ी हवेली 

मुझे इतनी प्रिय है। 

  

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