Thursday, July 17, 2025

शहर और जंगल - एक और कविता

 एक और कविता 


एक और कविता 

एक और गीत 

एक और ग़ज़ल 

किसके लिए ?


अख़बार में बासी ख़बर  के लिए ?

लपटों में घिरे शहर के लिए ?

सीमा पर तैनात सिपाही के लिए ?

राह में भटके हुए राही के लिए ?


कुछ परिचित , कुछ अपनों के लिए  ?

कुछ यादों कुछ सपनों के लिए  ?

कुछ गिनी -चुनी तालियों के लिए ?

कुछ ख़ास चुनी गालियों के लिए ?


या सिर्फ इसलिए कि चंद पैसे आएँगे  

और हम 

कुछ दिन और पान खाएँगे ?


अभी रचने ही होंगे मुझे छंद कई

ऐसा तो कोई अनुबंध नहीं 

फिट क्या लाचारी है 

क्यूँ क़लम मुझ पर भारी है ?


एक और कविता , एक और गीत , एक और ग़ज़ल 

मैं नित रच जाता हूँ 

और शाम के मुसाफ़िर सा थक जाता हूँ 


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