बैसाखी पर लटका ईमान
बेबस देखता है
किसी गहरी खाई में
अपने ही टुकड़े
हर तरफ़
दरारें ही दरारें
आती हैं नज़र ,
मैं कहाँ तक लगाऊँ
इश्तहार इन सब पर
इस आकाश के क्षितिज भी
न जाने कहाँ खो गए ,
कटे पंखों वाले परिन्दें भी
उड़ने की कोशिश मैं
थक कर सो गए ,
आओ , आओ
इनके जागने से पहले
हम इस जंगल में
आग लगा दें
और इंसानियत के
जितने भी मूल्य हैं
उन सब को भुला दें।
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