Wednesday, July 2, 2025

शहर और जंगल - बैसाखी पर लटका ईमान

 बैसाखी पर लटका ईमान 


बेबस देखता है 

किसी गहरी खाई में 

अपने ही टुकड़े 

हर तरफ़

दरारें ही दरारें 

आती हैं नज़र ,

मैं कहाँ तक लगाऊँ 

इश्तहार इन सब पर 

इस आकाश के क्षितिज भी 

न जाने कहाँ खो गए ,

कटे पंखों वाले परिन्दें भी 

उड़ने की कोशिश मैं 

थक कर सो गए ,

आओ , आओ 

इनके जागने से पहले 

हम इस जंगल में 

आग लगा दें 

और इंसानियत के 

जितने भी मूल्य हैं 

उन सब को भुला दें। 

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