एलिज़ाबेथ ब्रूनर के नाम
यही कही नाज्कनीज़ा की गलियों में
पली - बढ़ी होगी एलिज़ाबेथ ब्रूनर
यही कही सीखा होगा उसने
गुटनिया चलना
माँ की ऊँगली पकड़
घुमरिया फिरना
माँ के सपनों में अक्सर
एक स्वप्न दस्तक देता था द्वार
कोई बुलाता थे उन्हें
क्षितिज के उस पार
फिर माँ - बेटी चल ही पड़ी
एक दिन दूना की लहरों को छोड़
बड़ा की पहाड़ियों के दूसरी ओर
निकलपड़ी अनजान नगर में
पकड़ बेटी की अंगुली
लिए आँखों में तस्वीर पैशत की
धुँधली धुँधली
माँ - बेटी का एक उदर था
खाये कौन रहे फिर भूखा
होंठों की मुस्कानों में
दर्द दबा था रूखा - सूखा ,
रंगों के इस जीवन में
जीवन यूँ भी बदरंग हुआ
बंजारों की मानिंद रही घूमती
लंका , लंदन , इटली , सिसली
लेकिन रास न आया कोई ठौर
दस्तक देती थी पूरब की भोर
द्वारे आ पहुँची टैगोर
एक शाम के धुँधलके में
माँ का जीवन रीत गया
रीत गया , हाँ बीत गया
हे परमेश्वर ! हे नाथ !
एलिज़ाबेथ हुई अनाथ
रच डालीं फिर उसने
सुन्दर सुन्दर रचनाएँ
कर डालीं चित्रित
मानव -मन की
कैसी -कैसी पीड़ाएँ
चित्रित करते करते पीड़ा
ख़ुद ही बन बैठी पीड़ा ,
नमस्कार इंद्रपाल जी , आपका नाम सुनिश्चित कर लिया गया है। सादर - इन्दुकांत आंगिरस
बेबस लाचार
मुड़ी - तुड़ी उँगलियों से
फिसलती तूलिकाएँ ,
अब इन बेबस लाचार
उँगलियों का चित्र कोई बनाये
तो जीवन फिर मुस्काये।,
ओ संसार के कलाकारों !
मैं आमंत्रित करता हूँ तुम्हें
उठाओ अपनी तूलिकाएँ
और बनाओ
एक अविस्मरणीय चित्र
इन मुड़ी - तुड़ी बेबस
लाचार उँगलियों का
यूँ भी दर्द को तराशना
और चित्र मैं ढालना
सहज नहीं
हाँ , यक़ीनन सहज नहीं
क्योंकि सिर्फ मृत्यु के पास ही
ऐसी तूलिकाएँ हैं
ऐसे रंग हैं
जिनसे
तराशा जा सकता है दर्द को
और फिर उस दर्द को
सहजता से ढला जा सकता है
एक चित्र में
एक उदास चित्र में
एक बेरंग चित्र में
एक सफ़ेद चित्र में।
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