Wednesday, October 30, 2024

Semi - FINAL Book Of Ghazal -Muktak

 पत्थर से  शीशा बन जाना सब के बस की बात नहीं 

सीने में ग़म को दफ़नाना सब के बस की बात नहीं 

ग़ैरों के रिसते ज़ख़्मों पर कोई भी हँस लेता है

अपने ज़ख़्मों पर मुस्काना सब के बस की बात नहीं


( फैलुन फैलुन फैलुन फैलुन फैलुन फैलुन फैलुन फा

22  22  22  22 22 22 22  2

इसमें कभी कभी 2112 आने पर 11 कौ 2 मान लिया जाता है यह हिन्दी छन्द पर आधारित है

इसलिए  121 भी मान लिया जाता है। लय में मिसरा होना चाहिए । साथ में कुल मात्रा टोटल एक समान होना चाहिए ) 

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अधरों की मुस्कान  बना मैं

खुशबू की पहचान बना मैं

किशना की मुरली में ढ़लकर

सूर बना रसखान बना मैं

( फैलुन फैलुन फैलुन फैलुन

22   22   22   22 )

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ठहरे हुए कितने पैमाने है इनमें

गुज़रे हुए कितने ज़माने है इनमें

ये आँखें नहीं गहरी झील हैं यारों

डूबे हुए कितने दीवाने हैं इनमें 


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प्रीत  की एक नदी लगती हो 
लम्हों की एक सदी लगती हो 
लगता है आने को है  क़यामत
तुम नूर ए  अहदी  लगती  हो  
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मुस्तफ्इलुन  मुस्तफ्इलुन  मुस्तफ्इलुन
    2212       2212        2212
ठहरे हुये कितने ही पैमाने मिले
गुजरे हुये कितने ही अफसाने मिले
आँखें नहीं गहरी है कोई झील ये
डूबे हुये कितने ही दीवाने मिले
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प्रीत की एक नदी लगती हो
एक लम्हा की सदी लगती है
ढाने वाली हो कयामत तुम तो
आसमानी सी परी लगती हो
या
खूबसूरत सी परी लगती हो
इस मुक्तक की बहर है
फाइलातुन  फइलातुन फैलुन
2122         1122     22

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