Monday, December 26, 2022

गीत - कोई ग़ुस्ताख़ी न हो मेरे वतन की शान में

 कोई ग़ुस्ताख़ी न हो   मेरे वतन   की शान में 

हिन्द का वासी हूँ मैं , रहता हूँ हिन्दोस्तान में 


भूल से भी जब कभी दुश्मन इधर को आएगा 

रोएगा,पछताएगा , वो मुँह की अपनी खाएगा

जीते जी अपने कोई भी इसको छू न  पाएगा   


है बसा   हिन्दोस्तां   मेरा ये   मेरी   जान में  


याद हम को जब शहीदों की हमारी आएगी 

लाख रोकेंगे मगर ये आँख  भर  ही जाएगी 

गीत मेरे ही वतन के हर ज़बां फिर  गाएगी 


तुम भी अपना स्वर मिला लो आज इस आह्वान में 


फूल इसके बाग़- सा अब और खिल सकता नहीं 

प्यार इस जैसा कही पर और मिल   सकता नहीं 

बात जो कह दे कभी ये उस से हिल सकता नहीं 


झूम  ऐ  मेरे  तिरंगे   अपनी  आन  और बान में   






कवि - इन्दुकांत आंगिरस 

गीत - मैं एक समुन्दर रीता हूँ

 

मैं एक समुन्दर रीता हूँ 

हूँ तो समय पर बीता हूँ  


बिन मोल  यहाँ लुटता हूँ  मैं 

इक दीपक - सा जलता हूँ मैं  

मेरे  अंतस  की  थाह   नहीं 

मैं सब के बस की राह नहीं 


मैं अन्धकार का सूरज हूँ 

मैं रोज़ रौशनी   पीता हूँ 


मैं  बिखरा इक अफसाना - सा 

दिल उजड़ा इक  वीराना - सा 

अब  ढलती  हुई   जवानी   है 

आँसू   की वही    कहानी   है 


इस दिल में लाखों ज़ख़्म मेरे 

मैं  पल पल जिनको  सीता हूँ 



कवि - इन्दुकांत आंगिरस 

Friday, December 23, 2022

लघु कथा - ढलती धूप



 ढलती धूप 


मोनू  यह  सोच कर ही परेशान था  कि  अब  उसे   8२  साल की उस बुढ़िया को  उठा कर उसके पलंग तक ले जाना होगा।  बुढ़िया कोई ग़ैर नहीं उसकी अपनी दादी थी और  उसके ६२ वर्षीय पिता में अब इतना दम  नहीं रहा था कि वह अपनी माँ को  उठा पाते। 


पिता निर्देश दे रहे थे - मोनू , अपनी दादी को  उठा कर उनके बिस्तर पर लिटा दे।  धूप  ढलने ही वाली है। 

" पापा , ये रोज़ रोज़ का जंजाल मुझसे नहीं होगा , पहले धूप के लिए आँगन में लिटाओ फिर भीतर ले जाओ।  "

" अरे , बेटा   कैसी  बात कर रहा है ,  सामने वाले मकान में गुलाठी साहब की माँ को देख।  पूरा परिवार उनकी सेवा में लगा रहता है। "

"  हाँ , पूरा परिवार लगा रहता है उनका क्योंकि गुलाठी साहब की माँ  की ६० हज़ार रुपये महाना पेंशन आती है। 


बेटे का जवाब सुन कर पिता जी मौन थे और ढलती धूप में बैठी दादी की  आँखों में थे आँसू । 



लेखक - इन्दुकांत आंगिरस 

Thursday, December 22, 2022

लघुकथा - ऑक्सीजन

 


 ऑक्सीजन




एक जंगल ने दूसरे जंगल से कहा :


- "अरे , तुम अभी तक ज़िंदा हो , तुम्हारे पेड़ों का  टेंडर तो पिछले महीने ही खुल गया था। "

- "टेंडर तो खुल गया था , लेकिन पेड़ों को काटने अभी तक कोई नहीं आया।  लगता है टेंडर कैंसिल हो गया है। " 

-" टेंडर खुलने  के  बाद कैंसिल , लगता है कोई नया घोटाला है।" 

-" नहीं , घोटाला कोई नहीं , सुनने में आया है कि मृत्यु लोक में ऑक्सीजन की भारी कमी हो गयी है , इसीलिए  फ़िलहाल पेड़ नहीं कटेंगे।" 

-" चलो , मनुष्य को कुछ तो सद्बुद्धि आई।" 

- "हाँ  भाई ,  इस मृत्यु लोक में ऑक्सीजन सप्लाई करने के लिए हमें कुछ और साल जीवित रहना होगा।"  

-" यह तो बहुत अच्छी ख़बर है ।  आओ , मिलकर ज़िंदगी का गीत गातें हैं। " 


उनकी बाते सुन कर दिल ख़ुश हुआ और  तभी झूमते पेड़ों को छू कर ताज़ा हवा का झोंका मेरी आत्मा में पसर गया। 



लेखक - इन्दुकांत  आंगिरस 

लघुकथा - लॉक डाउन

  


लॉक डाउन


घर में अलसाई पत्नी  को पति प्रेम से सहलाने लगा। 

-  पता नहीं आपको , लॉक डाउन  चल रहा  है ,-  पत्नी ने पति का हाथ झटकते हुए कहा। 

- अरे , लॉक डाउन तो बाहर चल रहा है , घर में तो ओपन है ।  

-  नहीं , घर में भी  लॉक डाउन  है ।    

- अच्छा ,  घर के लॉक डाउन की गाइडलाइन्स तो सुने ।    

- आप खाना बना सकते हैं ,झाड़ू -पौंचा कर सकते हैं , कपडे धो सकते हैं और काम करते करते थक जाये तो मुझसे    दो गज की दूरी पर सो सकते हैं। 


 निराश पति  बंद खिड़की खोल बाहर झाँकने लगा। उसे यह देख कर आश्चर्य  हुआ कि सामने वाले फ़्लैट की मुंडेर पर बैठा कोइलों  का एक जोड़ा मधुर आवाज़ में कोई प्रेम गीत गा  रहा था। 





लेखक - इन्दुकांत आंगिरस 


Wednesday, December 21, 2022

लघुकथा - बजट


 बजट 


"10,000/ रुपए राकेश को भी देने है " , मैंने पत्नी को महीने का बजट समझाते हुए बताया। 


" राकेश को क्यों देने हैं ? उस से भी उधार ले रखा है क्या ?


" उधार नहीं ले रखा ,  तुम्हे पता है न ये जॉब उसी की सिफ़ारिश  से मिला है "


" तो फिर , क्या जॉब दिलाने का कमीशन मांग रहा है वो ? "


" हाँ , ऐसा ही समझ लो , अगर नहीं दूँगा  तो जॉब किसी दूसरे को मिल जाएगा  "


" राकेश आपका सालो पुराना दोस्त है , फिर भी यह सब ..."


"  तुम नहीं समझोगी , आजकल दोस्ती से बड़ा पैसा है।  वो ज़माना चला गया जब लोग दोस्ती में अपनी ज़िंदगी लुटा देते थे "


पत्नी ने एक गहरी साँस ली  और बजट के पर्चे का पुनः अवलोकन करने लगी। 



लेखक - इन्दुकांत आंगिरस 

लघुकथा - जन गण मन ....


 जन गण  मन  ....


किसी भी राष्ट्र का राष्ट्र गान उस राष्ट्र के गौरव का प्रतीक होता है। इस दिशा में भारत के सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय ने महत्त्वपूर्ण क़दम उठाया।  अब सिनेमा घरों में  फ़िल्म  के आरम्भ होने से  पूर्व राष्ट्र गान बड़े परदे पर गाया जाता है और सभी दर्शक खड़े हो कर इसको गाते हैं।  ऐसे ही एक अवसर पर फ़िल्म शुरू होने से पहले राष्ट्र गान के लिए सभी खड़े हो गए लेकिन मेरे बराबर वाली सीट पर बैठा  प्रेमी युगल अपनी  सीट पर ही बैठा  रहा।  मुझे ये सरासर राष्ट्र - गान की तौहीन लगी और राष्ट्र गान समाप्त होने पर मैंने उनसे  पूछा - क्या मैं जान सकता हूँ कि राष्ट गान के लिए आप अपने स्थान  पर खड़े क्यों नहीं हुए ? 

युवक ने तपाक से जवाब दिया -  "यह कोई स्कूल नहीं हैं।  हम यहाँ फ़िल्म देखने और एन्जॉय करने आएँ हैं। "

उसका जवाब सुन कर मैं तिलमिला उठा और न चाहते हुए भी मेरे मुँह से निकल पड़ा - "ओह , तो जनाब के लिए प्रेम ज़्यादा ज़रूरी हैं  लेकिन जो अपने देश से प्रेम नहीं कर सकता वो और किसी से क्या प्रेम करेगा ? जनाब का प्रेम एक छलावा हैं और कुछ भी नहीं.....


लेखकइन्दुकांत आंगिरस   

लघुकथा - कागा और अतिथि


कागा  और  अतिथि



 आज सुबह सुबह जब छत की मुंडेर पर कागा  काँव काँव  बोलने लगा तो मैंने पत्नी से कहा - " लगता है आज कोई अतिथि आएगा  "

- "आपको मालूम है कि जब से आप रिटायर हुए है और जब से आपके पैसे ख़त्म हो गए हैं तब से कोई रिश्तेदार इधर झांकता भी नहीं।  बेटे - बहू विदेश में बैठे हैं , वो तो उड़ के आने से रहे।  " - पत्नी ने मेरे वक्तव्य पर लम्बी टिपण्णी करी।  मैं कुछ पल के लिए ख़ामोश हो गया कि तभी कागा की काँव काँव  दोबारा और भी ऊँची और स्पष्ट।  

" सुना तुमने , आज ज़रूर कोई अतिथि आएगा " - मैंने विशवास भरे स्वर  में कहा। 

"  आप कौन से ज़माने में जी रहें हैं।  २१ वी सदी है ये।  आदमी चाँद पर जा पहुँचा है  और आप अभी तक कागा की काँव काँव और अतिथि की रट लगाए बैठे हैं।  "   

अभी पत्नी  ने बात ख़त्म ही करी थी कि उसका  फ़ोन घनघना उठा।  आई थी ख़ुशख़बरी  विदेश से।  बेटी के बिटिया हुई थी।  पत्नी नानी और मैं नाना बन गया था। 

कागा की काँव काँव थी सच्ची।  नया अतिथि आया था  अपने ही परिवार में , चाहे  हज़ारों मील दूर ही सही।



लेखक - इन्दुकांत  आंगिरस   


Sunday, December 18, 2022

कहानी - दूसरी औरत

 दूसरी औरत


बचपन कभी लौट कर नहीं आता लेकिन बचपन की यादें हमे ज़िंदगी भर सताती रहती हैं। वे भी क्या दिन थे , न कोई फ़िक्र न कोई बोझ , उन दिनों स्कूल का बस्ता भी हल्का -फुल्का ही होता था। अक्सर गर्मियों की छुट्टियों में अपने मामू के यहाँ चला जाता , जो पुलिस में इंस्पेक्टर थे। लगभग हर साल उनका तबादला होता रहता और इस बहाने मुझे नए - नए कस्बों या शहरों में घूमने को मिलता। मेरी ख़ूब आवभगत होती , पुलिस की जीप में घूमता और ख़ुद को किसी इंस्पेक्टर से कम न समझता। दूध - मलाई और देसी घी ख़ूब मिलता और अक्सर उनके यहाँ बिताई एक महीने की छुट्टी में मेरा वज़न बढ़ जाता।

मामू के दो बेटे मेरी हमउम्र थे। बड़े का नाम नरेंद्र उर्फ़ मुन्नू और छोटे का नाम सुरेंद्र उर्फ़ चुन्नू । चुन्नू कुछ कम-दिमाग़ था लेकिन मुन्नू उतना ही शातिर और अक़्लमंद। मुन्नू अपने को किसी दरोगा से कम नहीं समझता। मामू की रोयलनफील्ड पर मुझे बिठा कर शहर की ख़ूब सैर कराता। बाज़ार में किसी भी दुकान से कुछ भी मुफ़्त में सौदा -सुल्फ़ लेता। सब उसे इज़्ज़त देते और मुन्नू भाई कह कर पुकारते तो कुछ लोग उसे छोटे दरोगा कह कर बुलाते । कसी की इतनी मजाल नहीं थी कि उससे सौदा के रूपये मांगता बल्कि सौदे के साथ 10-20 रूपये उसको फ़िल्म देखने के लिए भी दे देते। उसकी उम्र अभी 16 साल की थी लेकिन उसके शौक़ उसकी उम्र से बड़े थे। कस्बों के मामूली सिनेमा हॉल में फ़िल्मे देखना , कभी कभी ताश की बाज़ी , जीते तो वाह वाह और हार गए तो उधार , किसी की मजाल न थी कि उससे जुए के हार के रुपएवसूल करता। फ़िल्मों के अलावा नौटंकी , नुमाइश और शाम होते होते थोड़ी शराब।

शराब के दो घूँट अंदर जाते ही मुजरे की राह। रंगीन शाम का रंगीन नज़ारा , तबले की थाप और सारंगी की आवाज़ फ़िज़ा में घुलने लगती। बेला , चमेली के फूल नर्तकी के गजरे से झरते रहते। कमरे में एक मदहोशी पसर जाती। मदिरा की महक और सिगरेट का धुआं वाह.. वाह.. के शोर में लिप्त रहता। हवा में उछलते फिकरे - क्या बात है मुन्नी बाई....ज़ोर बलम न कीजो मुझपे...मैं हूँ तुमरी पुजारिन... बाहँ पकड़ न लीजो मोरी .. मैं हूँ तुमरी पुजारिन। मुजरा ख़त्म होने के बार मुन्नू नचनिया के शयनकक्ष में खिसक जाता और में बैठक मैं जगमगाते फ़ानूसों की रौशनी में खो जाता। उनसे छनती रौशनी दीवारों पर अप्सराओं के चित्र उकेरती। ऐसा आभास होता मानो मैं किस इंद्रसभा में बैठा हूँ।

काफ़ी देर बाद मुन्नू नचनिया के शयनकक्ष से बाहर आता और रात के अँधेरे को चीरते हुए हम अपने घर लौट जाते। घर में देर से पहुँचने का डर हमे नहीं था क्योंकि मामू अक्सर दौरे पर होते और मामी तब तक अक्सर सो रही होती। हाँ , जब मामू शहर में होते तो मुन्नू शाम ढले ही घर आ जाता। मामी को सब दरोगन कहते और मामी इस लफ़्ज़ के नशे में डूबी रहती। उसे भी इस बात की सुध नहीं रहती कि उसके बच्चे उसके हाथ से निकल रहे हैं ।


उस दिन मामू कोतवाली में हाज़िर थे , सभी सिपाही और हवलदार चुस्त दीखते , इधर से उधर दौड़ते - फिरते ,

कोतवाल साहिब को सभी मक्खन लगा रहे होते। तभी एक ग़रीब औरत रोटी - बिलखती थाने में घुसी ,उसके साथ

उसका बेटा भी था जिसकी उम्र लगभग तीन साल रही होगी। कोतवाल साहब को देखते ही वह ज़ार - ज़ार रोने लगी -

" हजूर , मुझे बचा लीजिये , मेरा सब कुछ लुट गया है "

" रोना बंद कर और ठीक से बता , क्या हुआ तेरे साथ ";- कोतवाल ने झिडकते हुए कहा।


" हजूर मेरे शौहर ने मुझे ,मेरे बच्चे समेत घर ने निकाल दिया है "

"क्यों निकाल दिया तुझे ? "

"हजूर , दूसरी औरत को घर ले आया है , अब आप ही बताये इस भरी दुनिया में इस बच्चे को लेकर कहाँ जाऊँ ?"

" पर तुम्हारे मज़हब में तो चार औरते रखना जायज़ है "

" जी जनाब ,पर उसने उससे निकाह नहीं किया है , बल्कि ऐसे ही उठा लाया है और मुझे घर से निकाल फैका है। कुछ

कीजिए हजूर ,मैं ….शौहर के रहते बेवा की ज़िंदगी नहीं जी सकती "

"हूँ ...कोतवाल ने लम्बी साँस खींच कर हवलदार को तलब किया - रंग बहादुर , अभी उठा के ला इसके शौहर को "

रंग बहादुर कोतवाल के हुक्म की तामील करने निकल पड़ा। उधर कोतवाली के पीछे ही घर के दरवाज़े से दो शातिर आँखें झाँक रही थी, मुन्नू की शातिर और कामुक आँखें उस औरत का मुहायना कर रही थी। उसके दिल में ज़रूर उस औरत को पाने की कामना जाग उठी होगी , औरत उसकी सबसे बड़ी कमज़ोरी थी। कुछ ही वक़्त गुज़रा होगा कि रंग बहादुर उस औरत के शौहर को उठा कर ले आया था।

उस दुबले - पतले इंसान को देखकर कोतवाल को भी कुछ हैरानी हुई। यूनुस उम्र में भी उस औरत से कुछ बड़ा ही लग रहा था , चेहरे पर हलकी सी ढाढी , पिचके गाल और पके हुए बाल। कोतवाल को लगा कि अगर वो उसे एक झापड़ रसीद कर दे तो शायद वही ढेर हो जायेगा यूनुस। उन्हें कुछ आश्चर्य भी हुआ कि कैसे एक फटीचर सा आदमी दो दो औरतों को पालने की सोच रहा है। कोतवाल साहिब ने उसे ज़ोर से हड़काते हुए पूछा -

“क्या नाम है तेरा “?

“यूनुस , हुज़ूर “ ।

“ये औरत तेरी बीबी है “ ?

“ जी , हुज़ूर ..”

“और ये औलाद भी तेरी है “? कोतवाल ने लड़के की तरफ़ इशारा करके पूछा।

“ जी हुज़ूर “ ।

“ तू दूसरी औरत को घर ले आया और अपनी बीबी को घर से निकाल रहा है “ ?

“जी नहीं हुज़ूर , मैं तो ...मैं ....”

“ क्या मैं..मैं लगा रखी है “

“ हुज़ूर मैंने इसे घर से नहीं निकाला , मैं तो इसे भी रखने को तैयार हूँ “।


“ क्या काम करता है ?”


“ कुछ नहीं हुज़ूर “

“ कुछ नहीं , तो फिर दो दो औरतों को खिलायेगा कहाँ से “ ?

“ हुज़ूर , मैं नहीं , ये मुझे खिलाएंगी “।

“ मतलब ....? “

“ मतलब यही हुज़ूर अब इसकी अकेली कमाई से मेरे घर का खर्च नहीं चलता , इसीलिए मैं दूसरी औरत को घर लाया हूँ। पर ये समझती ही नहीं है , कहती है या तो वो रहेगी या फिर मैं “।

“और अगर दो की कमाई से भी तेरे घर का खर्च नहीं चला तो तीसरी उठा लाएगा ?”

“नहीं हुज़ूर , अभी 5-7 साल इसकी ज़रूरत नहीं पड़ेगी। सलमा अभी जवान है , खूब डटकर काम करेगी “।

“और बाद में …..”

तभी कोतवाल साहब का फोन खनखनाया - “ यस सर , मैं अभी हाज़िर होता हूँ , आधे घंटे में “। एस पी साहिब का

बुलावा था , कोतवाल को जाना लाज़मी था। उन्होंने हड़काते हुए यूनुस से कहा -“ इसे अपने साथ घर लेकर जा , और अगर कोई शिकायत सुनने को मिली तो कुटूंगा बहुत और जेल में सड़ा दूंगा “।

फिर उस औरत को मुखातिब होकर बोले – “ जाओ इसके साथ घर में और एडजस्ट करके रहो “।

दरवाज़े से लगी दोनों आँखें एक बार फिर से चमकी और ग़ायब हो गई। यूनुस की बीबी मन मारकर अपने शौहर के साथ चल पड़ी। वह बड़बड़ाती हुई जा रही थी। गालियाँ किस को निकाल रही थी , समझना मुश्किल था , शायद सभी को..........


*****


लेखक - इन्दुकांत आंगिरस


कहानी - लेडीज़ टेलर

 लेडीज़ टेलर 


लेडीज़ टेलर का अर्थ यह नहीं कि दरज़ी कोई महिला होगी बल्कि एक लेडीज़ टेलर वह होता है जो महिलाओं के कपडे सीता है। यूँ तो बदलते ज़माने के साथ आजकल रेडीमेड कपड़ें पहनने का चलन है और ख़ास तौर से युवा पीढ़ी रेडीमेड कपडे पहनती हैं विशेषरूप से जींस, टीशर्ट  और टॉप्स।   जिस तरह से घरों में खाना बनाने का कार्य अक्सर महिलाएँ  ही करती हैं लेकिन रेस्टोरेंट्स और होटल्स में  शेफ़ अक्सर पुरुष ही होते हैं उसी तरह लेडीज़ टेलर भी अक्सर पुरुष ही होते  हैं।  आप सभी ने लेडीज़ टेलर से सम्बंधित बहुत से वीडियोस यूट्यूब पर ज़रूर देखे होंगे और उन वीडियोस ने आपको ज़रूर गुदगुदाया होगा लेकिन आज जिस लेडीज़ टेलर की कहानी मैं आपको सुनाने जा रहा हूँ उसे सुन कर  संभव है कि आप लेडीज़ टेलर बनने की आरज़ू कर बैठे , तो दिल थाम के पढ़िए अफ़लातून लेडीज़ टेलर की  अफ़लातून कहानी।  


अफ़लातून लेडीज़ टेलर की उम्र लगभग ४५ साल , क़द दरम्याना , रंग गोरा , पके  हुए रंगीन बाल , कमान - सी भौएँ , चश्मे से  झलकती उल्लू-सी आँखें , ३६० डिग्री का मुआयना करती। उस छोटे से  कस्बे में अफ़लातून की छोटी - सी दुकान थी जिसमे उसकी पैरोंवाली सिलाई मशीन का बड़ा पहिया कभी कभी घूमने लगता और उस पहिये के साथ साथ उसकी ज़िंदगी के क़िस्से।  हाँ , प्रेम भरे , रंगीले क़िस्से। जब दो घूँट सुरा दरज़ी के गले से उतर जाती तो वह ऐसे मज़ेदार क़िस्से सुनाता कि दिल हाय हाय कर बैठता , सुनने वाले कभी अपने दिल को थामते तो कभी जिगर को।


महिलाओं के कपडे सीने में उसे माहरत थी और विशेषरूप से ब्लाउज़ , ब्लाउज़ के डिज़ाइन उसके दिमाग़ में महफूज़ रहते।  एक से एक बेहतरीन ब्लाउज़ , बाज़ार में चल रहे फैशन के ब्लाउज़ तो वो बखूबी बना ही लेता , उसके अलावा नए नए ब्लाउज़ के डिज़ाइन ईजाद करने में लगा रहता।  दुकान की  दीवारों पर अलग अलग डिज़ाइन वाले ब्लाउज़ पहने महिलाओं के पोस्टर , ख़ूबसूरत दिलों को लुभाते पोस्टर। उन पोस्टरों को अपने सीने से लिपटाती बेज़ान  दीवारें  भी  कभी इतराती तो कभी शर्माती।

यह वो ज़माना था जब औरतो ने  घर से निकलना शुरू किया ही था और स्कूलो और दफ़्तरों  में काम करना शुरू कर दिया था। काम - काजी महिलाओं के लिए ज़रूरी हो गया कि वे सज-धज कर घरों से निकले। उन्हें शायद इस बात का इल्म हो भी या नहीं भी कि राह में कितने शिकारी जाल बिछाये बैठे हैं और खुली धूप में परोसते रहते हैं दाना,, जिसे चुगने को  हर चिड़िया रहें  ललायित।


जिस तरह एक डॉक्टर के गले स्टेथोस्कोप शोभा देता है  उसी तरह एक दरज़ी के गले  में इंचीटेप। अफ़लातून  के  गले में भी एक  इंचीटेप और कान में एक पेंसिल अटकी रहती।  लेकिन इंचीटेप और पेंसिल का इस्तेमाल वह सिर्फ़  दिखावे के लिए करता।  असल में औरतो को देखते ही उनके ब्लाउज़ का नाप उसके दिमाग़ में फिट हो जाता , उनके उरोजों की गोलाई , कसावट , ढिलाई ,यहाँ तक कि कुचक का आयतन भी वह एक नज़र में नाप लेता। ऐसा तो कभी हुआ ही नहीं कि उसके द्वारा सिले गए ब्लाउज़ से कोई औरत संतुष्ट न हुई हो।  

लेकिन एक बार एक ब्लाउज़ के माप में अफ़लातून भी गचका खा गए। सुडौल कंधे वाली उस आसमानी परी के ब्लाउज़ का माप उसने लिया तो उसे इंचीटेप की ज़रूरत पड़ी और कॉपी  पेंसिल की भी।आसमानी परी के सीने की पहाड़ियाँ चट्टान - सी सख़्त थी , धूप के स्पर्श से उनका रंग बदलता , कभी सुरमई , कभी नीली तो कभी सुनहरी रंग की ये पहाड़ियाँ  दरज़ी  की आँखों से हो कर उसके सीने में उतर गयी।  रंगो के साथ साथ उनकी गहराई , उनकी गोलाई भी बदलती।  सुबह का रंग शाम  को फीका   लगता।  सुबह की गोलाई दोपहर तक बढ़ जाती और शांम होते होते और अधिक गहरा जाती। 

किसी तरह से कड़ी मेहनत कर के दरज़ी ने ब्लाउज़ तो बना डाला लेकिन  फिटिंग बराबर नहीं  थी  और होती भी कैसे , हसीना की साँसों के साथ साथ पहाड़ियों का उठना - गिरना।  ब्लाउज़ कभी इधर से ढीला तो कभी उधर से टाइट।  दरज़ी दोबारा नाप लेता और दोबारा ब्लाउज़ बनाता लेकिन हर बार कोई न कोई कमी रह जाती।  दरज़ी इस ब्लाउज़ में ऐसा फँसा  कि उसका सारा वक़्त इसी में ज़ाया  होने लगा।  इसके चलते वह नया काम पकड़ने से इंकार करने लगा और धीरे धीरे उसके सब ग्रहाक टूट गएँ ।  अब वह इकलौते ग्राहक का इकलौता दुकानदार था। सुबह से शाम और शाम से सुबह हो जाती लेकिन ब्लाउज़ की सिलवटे न निकली।  

दरज़ी इससे पहले भी कई बार  पहाड़ियों पर चढ़ा - उतरा था  लेकिन इन पहाड़ियों पर चढ़ते - उतरते उसे थकान होने लगी।   धीरे धीरे उसके तलुए घिसने लगे , आँखें धुंधलाने लगी , कमर कमान की तरह टेढ़ी हो गयी  लेकिन उस आसमानी परी का वो आसमानी ब्लाउज़ न कभी पूरा होना था न कभी हुआ ।


शाम ढलते ढलते , पहाड़ियों से उतरती धूप की किरणें  थामे वो आसमानी परी आज भी कभी कभी आती है लेकिन दुकान के  आधे झुके  शटर को देख लौट जाती है आसमान में,  शायद किसी दूसरे लेडीज टेलर की तलाश में...... …………….

                                                                        *****


लेखक - इन्दुकांत आंगिरस 



 

Saturday, December 10, 2022

लघुकथा - मापदंड

 लघुकथा  - मापदंड 



सेठ जी ने अपनी आलिशान ऊँची इमारत की तरफ देखते हुए मुझसे कहा - -


" शहर में इतनी ऊँची इमारत दूसरी नहीं है। देखने के लिए पूरी गर्दन ऊपर उठानी पड़ती है ,  आकाश को छू रही है ,आकाश को "।


- "सेठ जी , मैं इसकी ऊँचाई यहाँ खड़े खड़े नाप सकता हूँ ।"


- "अच्छा , बताओ इसकी ऊँचाई ,हम भी देखे आपका मापदंड। "


- "सबसे ऊपर की मंज़िल पर वो मज़दूर दिख रहा है ?" मैंने सेठ जी से पूछा ।


- " हाँ ,हाँ ,देखो बिलकुल बौना लग रहा है " सेठ जी ने हँसते हुए कहा ।


- "बस समझ लीजिये आपकी इमारत की ऊँचाई उस बौने के कद से ज़्यादा नहीं है " मैंने मुस्कुरा कर कहा ।


सेठ ने एक बार उस मज़दूर को देखा ,फिर मुझे देखा और मेरे मापदंड के फॉर्मूले पर अपना सिर खुजलाने लगें।




लेखक  - इन्दुकांत आंगिरस


कहानी - पेंशन

कहानीपेंशन


वह  इतने ज़ोर से चिल्लाई थी कि मैं सकपका गया । अपने जवान बेटे को गालियाँ  दे रही थी और उसका वो शरीफ़ बेटा भी आज गर्म मिज़ाज़ में  था और अपनी अम्मी पर चिल्ला रहा था । दरवाज़ा पर गिरा पर्दा उनके कमरे से उठती  आवाज़ों को नहीं रोक पा रहा था ।मैं  उनकी हैदराबादी झगड़ालू  ज़बान का लुत्फ़ भी उठा रहा था  और कुढ़ भी रहा था कि मुझे उनकी पूरी बात समझ नहीं आ रही थी । उनकी चीख़ती  हुई आवाज़े ट्रैफिक के शोर को चीरती हुई कभी पूरी तो कभी आधी मेरे कानो के ज़रिये मेरे दिल में  उतरती जा रही थी । मेरी रगों मैं बहते ख़ून की  रफ़्तार बढ़ गयी थी कि तभी दरवाज़े के बाहर लटका पर्दा दरवाज़े के पीछे चला गया और एक भयंकर  आवाज़ के साथ दरवाज़ा बंद कर दिया था रेहाना ने ।अब मैं सिर्फ़ टूटी - फूटी अस्पष्ट आवाज़े सुन पा रहा था । उनके लफ्ज़ अब उस कमरे मैं क़ैद  हो गए थे जिन्हे या तो वो सुन सकते थे या फिर उनका अल्लाह ।


हाँ  , वही अल्लाह जिसने चार बरस पहले रेहाना की ज़िंदगी का दरवाज़ा बड़ी बेरहमी से हमेशा के लिए बंद  कर दिया था । उसके शौहर की एक  साम्प्रदायिक दंगे  में  मौत हो गयी थी । एक बेवा की ज़िंदगी किसी अज़ाब से कम नहीं । उसका शौहर  बस एक दिहाड़ी मज़दूर था तो पेंशन का तो सवाल ही नहीं उठता क्यों कि दिहाड़ी मज़दूर को महाना तन्खॉह नहीं मिलती । उनको दिहाड़ी की हिसाब से मज़दूरी मिलती  अगर महीने में बीस दिन काम किया है तो बीस ही दिन की मज़दूरी मिलेगी ।

रेहाना जवान थी नैन नक्श भी बुरे न थे , किसी पुरुष को आकर्षित करने के लिए उसका सुडौल  बदन ही काफी था । अनपढ़ होना उसकी  नियति नहीं थी , उसके कबाड़ी बाप के पास बच्चे पैदा करने के अलावा कोई काम न था , और उन्हें पैदा करने के बाद वह उन्हें अक्सर भूल जाता था  । बीड़ी के धुएँ में ज़िंदगी की हर फ़िक्र को उड़ाए जाता था । किस तरह  उसकी अम्मी न उसे पाल -पोस कर बड़ा तो कर दिया लेकिन उस पढ़ा नहीं पाई । अम्मी ने वक़्त आने पर उसकी शादी  भी कर दी लेकिन शादी का लम्बा सुख उसकी क़िस्मत  में न था ।


आखिर कुछ  दिनों की मातमपुर्सी के बाद रेहाना ने फ़ैसला किया कि वह घरों में चौका बर्तन और खाना बनाने का काम करेगी।  बुरका पहनकर  जाने से उसे हिन्दू घरों में काम मिलना मुश्किल था ।इसलिए  उसने   आपने बुरका उतारा और बक्से में संभाल  कर रख दिया ।अब इसकी ज़रूरत नहीं थी । हिन्दू घरों में काम पाने के लिए उसने अपना नाम भी बदल लिया और मोहल्ला भी ।


संगीत के सात सुरों  से उसका कोई लेना देना नहीं था लेकिंन संगीता नाम में एक धमक थी सो उसने संगीता नाम की नाम प्लेट अपने गले में लटका ली । स्वादिष्ट खाना बनाने के लिए लिखाई -पढाई की ज़रूरत नहीं । कुछ औरते अपने परिवार में ये सब सीख लती है । संगीता स्वादिष्ट  खाना बनाती थी और माँसाहारी  खाने का तो जवाब ही नहीं । उसके स्वाद खाने की सब तारीफ़ करते विशेष रूप से घर के मर्द ।  खाने की तारीफ़ करते करते उँगलियाँ  चाटने लगते , उनका बस चलता  तो बावर्चिन  की उंगलियन भी चाटने लगते ।अक्सर घरों में काम करने वाली नौकरानियों की उँगलियाँ खुरदरी हो जाती हैं लेकिन खुरदरी उँगलियों का भी एक अलग मज़ा है।

उसने सोचा  था कि किसी तरह घरों में मेहनत -  मज़दूरी   करके  इज़्ज़त  की दो रोटी मिल जाएगी , लेकिन इस देह का क्या करे , इसकी अपनी ज़रूरतें  होती हैं। रेहाना की देह भी हाड -मांस की बनी थी , वसंत की सरगम उसकी रगों को छेड़ती रहती, नागिन -सी काली घटाएँ उसके जवान जिस्म को डसती  रहती , इस नागिन के ज़हर से उसका बदन जलने लगता और वह एक अँगीठी की मानिंद सुलग उठती।


उस दिन बहुत बारिश हो रही थी लेकिन रेहाना का बदन भट्टी की तरह सुलग रहा था। उसके होंठों पर आज शरारत भरी मुस्कान तैर रही थी , फ़िल्मी प्रेम गीत फ़ज़ा में गुनगुना रहे थे कि तभी उसके फ़ोन की घंटी बजी और उसने बिजली की फुर्ती से फ़ोन उठाया -

हेलो , हाँ , कहाँ हो ? "

" यहाँ पहुँच गया हूँ , बस स्टॉप  पर खड़ा हूँ लेकिन बारिश बहुत हो रही है।  बारिश रुकते ही आता हूँ। "

" नहीं , नहीं , बारिश रुकने की इन्तिज़ार मत करो , कोई ऑटो पकड़ कर फ़ौरन  आ जाओ , अच्छा वही रुको , मैं आती हूँ ऑटो लेकर "

उसे डर था कि वह ऑटो का इन्तिज़ार में वक़्त बर्बाद न कर दे और कही उसे ऑटो वाला चक्कर न कटाता रहे  क्योंकि आज उसके लिए एक एक पल क़ीमती था। उसका बेटा  आज स्कूल पिकनिक पर  गया था और शाम से पहले नहीं लौटने वाला था। इसलिए उसने

अफ़रातफ़री  में  एक टूटी छतरी उठाई और एक ऑटो करके अपने यार को लेने निकल पड़ी। १५-२० मिनट में ही वह अपने यार को लेकर वापिस आ गयी थी और अपने घर का दरवाज़ा ज़ोर से बंद कर लिया था।

" लो पहले कपडे बदल लो , नहीं तो ठण्ड लग जाएगी " - रेहाना ने रमन को  तौलिया पकड़ाते हुए कहा।


रमन तौलिया पकड़ बाथरूम में घुस गया और रेहाना अपनी लटों में उँगलियाँ घुमाते  हुए सोचने लगी  , कितना दिलकश और  बांका है रमन , काश  वह कुंवारा होता तो वह ज़रूर उससे शादी बना लेती।  हालांकि रमन ,रेहाना से उम्र में दस साल बड़ा था। उसके पास एक क़ानूनी बीवी और दो बच्चे थे।  रेहाना से यह उसकी तीसरी  मुलाक़ात थी।  पहली मुलाक़ात विधवा पेंशन के दफ़्तर में हुई थी , रमन ने पेंशन  के दफ़्तर में मुलाज़िम था और उसने रेहाना को पेंशन   दिलवाने में मदद करने का वायदा किया था। उनकी दूसरी मुलाक़ात एक लॉज  में हुई जिसमे  सारे पर्दें गिर चुके थे इसलिए अब उनके बीच औपचारिकता जैसी कोई बात नहीं रह गयी थी।  रेहाना जानती थी कि रमन से उसकी शादी नहीं हो सकती लेकिन फिर भी वह उसे पाने के लिए बेताब रहती थी। बाथरूम से बाहर निकलते ही रेहाना ने उसे एक शेरनी की तरह  दबोच मारा -

" अरे , क्या कर रही हो , रुको तो एक मिनट  "

" मुझे नहीं रुकना , जल्दी करों , बेटा कभी भी लौट सकता है "

" अगर इतना डरती हो तो मुझे बुलाया क्यों था ? "

" तुम समझते नहीं हो , पहले काम कर लो , बातें बाद में करना "

  शेरनी की पकड़ गहराती गयी और शिकारी ख़ुद शिकार हो गया।  घने बादलों में थमा पानी झर झर कर बहने लगा।  बारिश...और बारिश ...और बारिश।  बारिश में देर तलक भीगते रहे थे दो बदन।


- " तुम्हारे लिए एक ख़ुशख़बरी है " रमन ने अपना पसीना  पौंछते हुए कहा। "

- " क्या ख़ुशखबरी है ? जल्दी बताओ।  तुम्हारी  बीवी मुझे अपनी सौतन बनाने को तैयार हो गयी क्या ?"

- " रेहाना , मैं तुम्हे पहले ही बता चुका हूँ कि यह मुमकिन नहीं। "

 - तो फिर ?

- मैं तुम्हें ' विधवा पेंशन ' दिलाने के लिए अपने बॉस से बात कर आया हूँ।  अगले सोमवार को अपने काग़ज़ात लेकर आ जाना , अल्लाह ने चाहा तो तुम्हारी ' विधवा पेंशन ' तत्काल शुरू हो जाएगी।

- अच्छा , कितनी पेंशन मिलेगी ?

- ३०००/ हर   महीने।

घरों मैं चौका - बर्तन करने के बाद भी रेहाना का हाथ तंग रहता था , ऐसे में हर महीने अगर सरकार से ३०००/  मुफ़्त के मिलेंगे  तो इसमें बुरा क्या है ?वह घर के भाड़े , राशन और लड़के की पढ़ाई का हिसाब - किताब लगाने लगी।

ठीक है , कुछ तो राहत मिलेगी , मैं  इतवार को ही तुम्हारे पास आ जाऊँगी , मेरे लिए एक होटल बुक कर देना।

- हाँ , होटल बुक कर दूँगा , अपने सब काग़ज़ात लाने मत भूलना।

- नहीं भूलूँगी , सब कुछ ले कर ही आऊँगी। कहकर रेहाना ने फिर रमन को अपनी बाहों मैं लपेट लिया।


अभी तोता -मैना अपनी चौंच भिड़ा ही रहा थे कि दरवाज़ा भड़भड़ा उठा। लड़का दरवाज़े पर अपने पैरों से ठोकर मार रहा था।दोनों ने ख़ुद को संयत किया और रेहाना ने उठ कर दरवाज़ा खोला।  खुले दरवाज़े  से रमन तीर की तरह  निकल गया।  लड़का रमन की एक ही झलक देख पाया था।  बेतरतीब बिस्तर को देख कर उसका लहू खौल गया और उसने अपनी अम्मी से चीख़ कर पूछा था -

" अम्मी , कौन था ये सूअर की औलाद ओर हमारे घर में क्यों आया था ? "

" कोई नहीं बेटा , वो पेंशन अधिकारी था और पेंशन के काग़ज़ात चेक करने आया था "


१४ साल का हमीद अब बच्चा नहीं था। बिस्तर की बेतरतीब सिलवटों का मतलब ख़ूब समझता था।  वह ज़ोर ज़ोर से चीख़ने लगा और उसकी माँ उसे गालियाँ सुना रही थी। कुछ देर बाद हामिद तमतमाता हुआ अपने दबड़े में से बाहर निकल सूनी झील की ओर बढ़ गया। उस रात वो तन्हा देर रात तक झील के किनारे  बैठा रहा था।  आसमान में सितारें चमक उठे लेकिन उनमे भी वो अपने अब्बू को नहीं ढूंढ पाया। उसके लिए यह ऐसी रात थी जिसका सवेरा शायद कभी न निकले। वह धीरे धीरे झील के गहरे पानी में उतरने लगा।  उसको तैरना तो आता था लेकिन आज वह डूब जाना चाहता था सो धीरे धीरे उसने ख़ुद को झील में डुबो दिया।

 

अगली सुबह झील की सतह पर तैरती हामिद की लाश  की  ख़बर बस्ती में पानी  की तरह फ़ैल गयी।  रेहाना ने अपनी छाती पीट पीट करमातमपुर्सी करी। आसमान की ओर मुँह कर ज़ोर ज़ोर से चीख़ने लगी - "या अल्लाह , तो मुझे ही उठा लेता। " लेकिन अल्लाह अपना काम बख़ूबी जानता है।  वह अपने पास वक़्त से पहले उन्हीं को बुलाता है जिन्हें वो प्यार करता है।

 

सोमवार को हामिद गुज़रा था। अगले कुछ दिनों तक रोते रोते  रेहाना के आँसू सूख गए थे ओर अब उस सहरा में उसके तमाम आँसू  ज़ज़्ब हो चुके थे।  अगले इतवार वायदे के मुताबिक़ रेहाना रमन से मिलने चली गयी। पेंशन से सम्बंधित सभी काग़ज़ात उसने संभाल कर रख लिए थे। उसके विचारों में उथल -पुथल मची हुई थी। इसी राह पर वह कई बार अपने शौहर के साथ घूमी थी लेकिन आज उसके साथ उसका

उसका शौहर नहीं बल्कि उसका डेथ सर्टिफिकेट था , जिसके बिना पर रमन उसे पेंशन दिलवाने वाला था।

वह सही वक़्त पर होटल पहुँच गयी ओर चेक इन भी कर लिया। अभी शाम के सात ही बजे थे।  रमन वायदे के मुताबिक़ आठ बजे आने वाला था। उसे मालूम है कि रमन वक़्त का पाबन्द है सो सही समय पर पहुँच जायेगा।  वह नहा - धो कर उसका इन्तिज़ार करने लगी।

 

आठ बजते ही रूम की घंटी  बजी।  उसने फुर्ती से दरवाज़ा खोला।  रमन के साथ एक आदमी और  था , दोनों शराब और कबाब लेकर आये थे।  

"ये मेरे बॉस  है रेहाना , यही तुम्हारी पेंशन बनवाएँगे " रमन ने अपने बॉस का परिचय करवाया।

" सलाम वालेकुम  " रेहाना ने अदब से बॉस को सलाम किया। जवाब में बॉस ने मुस्कुरा कर सर हिला भर दिया।

- "अपने काग़ज़ात तो दिखाओ , बॉस को "

- रेहाना ने अपने काग़ज़ बॉस की ओर बढ़ा दिए।

बॉस न एक नज़र काग़ज़ातों पर दौड़ाई ओर रमन से कहा - इनकी एक ज़ेरॉक्स कॉपी करा लाओ अभी।

कमरे से रमन के जाते ही बॉस ने भूखी  नज़रों से रेहाना  के सुडौल  जिस्म को निहारा ओर पलंग पर बैठते हुए इत्मीननान से बोला-

देखों , रेहाना , तुम्हारी पेंशन तो शुरू हो जाएगी पर बदले में हमे क्या मिलेगा ?

- रेहाना  ने एक पल चुप रह कर धीरे से पूछा - क्या चाहिए आपको ?

- हर महीने यहाँ आकर  एक बार हमे ख़ुश कर दिया करो , आने - जाने का भाड़ा ओर होटल का खर्च हम ही देंगें।

एक लम्बी चुप्पी के बाद रेहाना के मुँह  से बस इतना निकला - जी

बॉस ने रेहाना का हाथ अपने हाथों में लिया ओर उसके क़रीब खिसक गए।

- रमन ज़ेरॉक्स करा कर अभी आने वाले होंगे -  रेहाना ने हिचकते हुए कहा।

- ज़ेरॉक्स की सब दुकाने बंद है , वह अब सुबह ही आएगा।, उसके साथ अपने काग़ज़ात लेकर मेरे दफ़्तर आ जाना - कहते हुए बॉस ने रेहाना को अपनी बाहों में भर लिया।

 

 रेहाना अपनी आँखें बंद कर एक लम्बी काली रात के दर्द को किस्तों में जीती रही। 




लेखक - इन्दुकांत आंगिरस 


लघुकथा - शगुन के रुपए

 लघुकथा  - शगुन के रुपए


संगीत के कार्यक्रम के उपरान्त  बाहर पंडाल में प्रीतिभोज का आयोजन था। अभी अंतिम कार्यक्रम चल ही रहा था कि दर्शक बाहर पंडाल में एकत्रित होने लगे। सभी को भोजन की प्रतीक्षा थी और भोजन के आते ही एकत्रित भीड़ भोजन पर टूट पड़ी। किसी के हाथ रोटी , किसी के हाथ सब्ज़ी तो किसी के हाथ सिर्फ़ थाली लगी। मेरे एक मित्र  भी भीड़ में घुसकर भोजन ले आये थे। उनके मुखमण्डल पर पसीने की बूँदें छलछला रही थी और उनका चेहरा एक विजयी योद्धा की तरह  दमक रहा था।  मुझ पर और मेरी खाली थाली पर उनकी निगाह पड़ी तो एक पल को ठिठके ,फिर स्नेह से मुझे अपने साथ खाने की दावत दी लेकिन इतनी छीना- झपटी  देख कर मेरा मन ही उचट गया था।

- खाइये  ,आप खाइये , यह सब देख कर मेरी तो भूख ही मर गयी है - मैंने सकुचाते हुए मित्र से कहा।

- अरे , छोड़िये जनाब , आजकल ऐसे ही चलता है और हमने कौन से यहाँ शगुन के रुपए दिए हैं - रोटी का अगला कौर अपने मुँह में ठूसते हुए मित्र मुझे समझाने लगे और मैं  ठसाठस भरे  उनके मुँह को देखता रहा।


लेखक - इन्दुकांत आंगिरस 

लघुकथा - घोंसला

 लघुकथा  - घोंसला


नए घर के रौशनदान की सफ़ाई करते करते मज़दूर अचानक रुक गया था।


- साहिब , यहाँ तो चिड़िया का घोंसला है , क्या करें ?


- अरे ,उठा कर फेंक दे घोंसला और क्या करेगा ? साहिब ने झल्ला कर जवाब दिया।


- लेकिन साहिब ,इसमें तो चिड़िया के अंडे हैं।


- अबे तेरी समझ में नहीं आया क्या , फेंक उठा कर घोंसला। विल दे लिव एट अवर कोस्ट ( ये हमारे पैसों पे मौज करेंगें ? ) साहिब ने ज़ोर से मज़दूर को फ़टकारा था।


मज़दूर ने बोझिल मन से वह घोंसला फर्श पर गिरा तो दिया लेकिन वह समझ नहीं पा रहा था कि चिड़ियों का जोड़ा साहिब के पैसों पे कैसे मौज कर रहा था ?



लेखक - इन्दुकांत आंगिरस


लघुकथा - फ़ोन रिचार्ज

लघु कथा - फ़ोन रिचार्ज




ग्राहक- भैया ,20/ का टॉक टाइम रिचार्ज कर दो।


दुकानदार - 20/ के रिचार्ज में टॉक टाइम 15/ रुपए  का ही मिलेगा।


ग्राहक- , 25% कट जायेंगे , यह तो ज़्यादती है , जितना रिचार्ज करा रहे है उतनी ही राशि का टॉक टाइम मिलना चाहिए।


दुकानदार  -  ये कंपनी की प्लान्स हैं , अगर कोई 5000/ का रिचार्ज कराता है तो उसे कम्पनी 50/ रुपए  का अतिरिक्त टॉक टाइम देती है और 20/ का रिचार्ज करने वाले के 5/ रुपए   का टॉक टाइम काट देती है।


ग्राहक- ओह , अब समझा कि किस तरह ग़रीबों के पैसों से ही अमीर और अमीर बनते जा रहे हैं। ठीक है  भैया 20/  रुपए  का रिचार्ज कर दो,  हम अपने बीवी -बच्चों से थोड़ा कम ही बतिया लेंगे।




लेखक - इन्दुकांत आंगिरस



प्रेम - प्रसंग -कविता - हरे काँच की चूड़ियाँ

 हरे काँच की चूड़ियाँ


तुम्हारी हरे काँच की चूड़ियाँ

आज भी दिल को  याद आती हैं

तड़पते इस दिल को नग़में

भूले - बिसरे सुना जाती हैं,

चूड़ियों की

मधुर झंकार का  

संगीत भी बीत गया

तन्हा दर्द भी रीत गया

कही भी दूर दूर तक

कोई शोर नहीं गूँजता

कौन डस गया झरने की

मीठी कल कल

प्राण गलते रहे जल जल ,

कोई भी लहर

वापिस नहीं आई किनारे से

तकते रहे चाँद हम

रात भर उस किनारे  से ,

चूड़ियों  का मधुर संगीत

अब ढल चुका है

एक शोक गीत में

और यह शोक गीत

अब पसर गया है 

मेरी वीरान आत्मा में ।



कवि - इन्दुकांत आंगिरस 


वसंत का ठहाका - रहगुज़र

 रहगुज़र


गुज़र जाते हैं  मुसाफ़िर मुझ पर

करते हैं  तय अपना सफ़र

कभी कोई तन्हा 

कभी कोई क़ाफ़िला

मेरे सीने पे रख कर क़दम

करता है तय अपना सफ़र

कुछ को मिल जाती हैं  मंज़िले

कुछ भटकते रहते तमाम उम्र

मंज़िले भी तलाशती है दूसरी मंज़िले

पीड़ा का एक अंतहीन सफ़र,

बनती हूँ सबकी हमसफ़र

पर अंत  मैं रह जाती हूँ तन्हा

मैं हूँ एक जागती रहगुज़र

कभी भी ,कोई भी पुकार ले

मैं सदिओं से सोई नहीं हूँ

मुझे तो जागना ही पड़ता है

फिर चाहे वो

रहज़न हो या रहबर।  



कवि  - इन्दुकांत आंगिरस