जहाँ तक मुझे याद पड़ता है बिजनौर के रहने वाले राजगोपाल सिंह से मेरी पहली मुलाकात ग़ाज़ियाबाद में चौधरी सिनेमा हॉल के मेज़निन फ्लोर में आयोजित 'इंगित ' संस्था की काव्य गोष्ठी में हुई थी। उन दिनों वो ग़ाज़ियाबाद में ही रहते थे। इस काव्य गोष्ठी में डॉ कुंवर बेचैन भी उपस्थित थे। राजगोपाल तब लोक गीत की धुनों पर मीठे तरन्नुम में अपने गीत सुनाया करते थे और डॉ कुंवर बेचैन उनसे अपने गीतों की धुन बनाने की गुज़ारिश करते थे।
बाद में राजगोपाल सिंह से दिल्ली में फिर मुलाकात हो गयी। सरकारी कॉलोनी आर के पुरम में रहते थे और यही उनकी मुलाकात उर्दू और फ़ारसी के उस्ताद शायर जनाब ब्रह्मानंद ' जलीस ' से हुई। राजगोपाल सिंह , जलीस साहब के शागिर्द बन गए थे और ग़ज़लें कहना शरू कर दिया था। उनका पहला ग़ज़ल संग्रह ' ज़र्द पत्तों का सफ़र ' इसी दौरान प्रकाशित हुआ था। जलीस साहब ने उन्हें 'समर ' उपनाम दिया था। इसीलिए अब उनका नाम राजगोपाल सिंह 'समर ' बिजनौरी हो गया था। दिल्ली की एक पुरानी उर्दू की संस्था ' हलका -ए-तिश्नगाने अदब ' की महाना नशिस्तों में आप अक्सर शिरकत फरमाते जहाँ उनका परिचय एक हिंदी कवि के रूप में दिया जाता और अक्सर मुशायरे का आगाज़ उनके क़लाम से किया जाता। बाद में इन नशिस्तों में उनकी हाज़री कम हो गयी थी। दिल्ली के अलावा गुड़गांव ( गुरुग्राम ) और फ़रीदाबाद की बहुत-सी साहित्यिक संस्थाएं उन्हें सादर आमंत्रित करती थी। इन गोष्ठियों में , मैं अक्सर उनके साथ होता था।
उनकी ग़ज़लें और गीत सुनकर अक्सर श्रोताओं , विशेषरूप से महिलाओं के आँसू निकल आते थे और इस बात का मैं गवाह हूँ। उन दिनों उनके पास मोपेड होती थी। एक बार फ़रीदाबाद से देर रात दिल्ली के लिए लौटते हुए एक छोटा-सा हादिसा गुज़रा। रात के लगभद २ बजे का समय था और सुनसान सड़क पर राजगोपाल मोपेड चला रहे थे और मैं पीछे बैठा था। वो अपने शे'र भी मुझे सुनाते जाते थे ,अचानक मोपेड के आगे एक बड़ा पत्थर आ गया और मैं उछल कर सड़क पर जा गिरा। कुछ पलों के लिए आँखों के सामने अँधेरा छा गया। राजगोपाल को भी हल्की-फुल्की छोटे आयी लेकिन बचाव हो गया।
मेरी उनसे आख़िरी मुलाक़ात उनके नानकपुरा वाले घर में ही हुई थी। मैं २००६ में बैंगलोर आ गया और इसी कारण दिल्ली के बहुत से साहित्यिक मित्रों से मिलना -जुलना लगभग बंद हो गया। ग़ज़ल के बाद उनका झुकाव दोहो की तरफ़ हो गया था और उन्होंने मानवीय संवेदनाओं से परिपूर्ण अत्यंत सुन्दर दोहो की रचना करी । राजगोपाल एक ज़िंदादिल शायर थे और अपनी सच्ची शायरी के ज़रीये वो अदबी दुनिया में हमेशा जीवित रहेंगे।
मैं रहूँ या न रहूँ मेरा पता रह जायेगा
शाख पे गर एक भी पत्ता हरा रह जायेगा
उनके बारे में अधिक जानकारी के लिए देखे - www.rajgopalsingh.com
उपरोक्त वेबसाइट की देख-रेख राजगोपाल सिंह के सुपुत्र अंकुर सिंह करते है।
उनके शागिर्द जनाब चिराग़ जैन को उनके सहयोग के लिए शुक्रिया अदा करता हूँ।
NOTE:यह भी एक संयोग ही है कि जनाब सर्वेश चंदौसवी और राजगोपाल सिंह,
दोनों की जन्म तिथि १ जुलाई है।
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