Thursday, December 31, 2020

कीर्तिशेष आचार्य सर्वेश चंदौसवी - 2020 और 20 किताबें

 


उर्दू अदब की दुनिया में उस्ताद और शागिर्द की रवायत बहुत पुरानी है , विशेषरूप से साहित्य और संगीत  के क्षेत्र में उस्ताद - शागिर्द की परम्परा सदियों से चली आ रही है।  यूँ तो गुरु -शिष्य की परम्परा हिन्दी साहित्यिक संसार में भी है लेकिन बहुत हद तक धार्मिक गुरु और शिष्य ही देखने को मिलते हैं या फ़िर चंद मिसालें  संगीत के क्षेत्र में पाई जा सकती हैं। हिन्दी  साहित्य के क्षेत्र में  गुरु-शिष्य की परम्परा लगभग लुप्त है क्योंकि अधिकतर हिन्दी कवि स्वयं को ही किसी गुरु से कम नहीं समझते। अपना ही एक शे'र ज़हन में आ गया -


  आज घर घर में हैं अदीब "बशर "

   कौन घर  जाए अब   अदीबों के 


        कीर्तिशेष आचार्य सर्वेश चंदौसवी उस्तादों के उस्ताद थे और उर्दू ग़ज़ल और उरूज़ में उन्हें महारत हासिल थी। सं २०१४ से उनकी किताबों के प्रकाशन का सिलसिला शुरू हुआ , २०१४ में १४ किताबें , २०१५ में १५ किताबें ,२०१६ में १६ किताबें , २०१७ में १७ किताबें , २०१८ में १८ किताबें , २०१९ में १९ किताबें और योजनानुसार २०२० में २० किताबों का प्रकाशन होना था लेकिन 25 मई ' 2020 को सर्वेश जी  इस दुनिया को अलविदा कह गए और उनका बीस किताबों का सपना अधूरा  रह गया।  

    

 आचार्य सर्वेश चंदौसवी के इस अधूरे सपने को उनके शिष्यों ने पूर्ण कर साहित्यिक संसार में एक अद्भुत मिसाल दी है ।  27 दिसंबर 2020 को आचार्य सर्वेश चंदौसवी जी के  20 ग़ज़ल संग्रहों का लोकार्पण दिल्ली के हिन्दी भवन में गरिमापूर्ण संपन्न हुआ।  पदमश्री सुरेंद्र शर्मा की अध्यक्षता में संपन्न हुए इस कार्यक्रम  में देश के अनेक सुप्रसिद्ध कवियों ,शाइरों एवं लेखकों ने शिरकत  फ़रमाई  जिनमें  सर्वश्री क़तील शिफ़ाई , सीमाब सुल्तानपुरी , मंगल नसीम , कीर्ति काले  , राजेश चेतन , जगदीश मित्तल , मोईन अख़्तर अंसारीविजय स्वर्णकार , अरविन्द असर , अजय चौधरी के नाम उल्लेखनीय  हैं 

आचार्य सर्वेश चंदौसवी जी के शागिर्द सर्वश्री विजय स्वर्णकार , अनिल मीत, प्रमोद असर, रसिक गुप्ता,राजेंद्र कलकल ,बलजीत कौर  , शुभी सक्सेना     ने अपने गुरु जी के चरणों में भावभीनी श्रद्धांजलि अर्पित की। 


इस भव्य साहित्यिक कार्यक्रम के आयोजन के लिए दिल्ली की साहित्यिक संस्था " साहित्य सरगम " निश्चय ही बधाई की पात्र है।  कार्यक्रम का संचालन अनिल रघुवंशी ने किया। 


जन्म - 1 जुलाई ' 1949 , चंदौसी -उत्तर प्रदेश 

निधन - 25 मई ' 2020 - दिल्ली



NOTE : सर्वेश जी के शागिर्द  विजय स्वर्णकार और  अनिल मीत को उनके सहयोग के लिए शुक्रिया । 

अपने इसी ब्लॉग पर १६ नवंबर २०२० को मैंने आचार्य सर्वेश चंदौसवी जी के  बारे में कुछ विचार रखे थे, अगर आपने पहले न पढ़ें हो तो अब पढ़ सकते हैं - https://adbiyatra.blogspot.com/

Wednesday, December 30, 2020

हंगेरियन कविता - Emberke का हिन्दी अनुवाद

 

                                                         Kaffka Margit ( 1880 - 1918 )

                                                           

Emberke - छुटका पहलवान


( मुझ पर खुलता दरवाज़ा )


माँ , यहाँ हो तुम ? आदतन  दबे पावँ  चली आई हो 

तुम्हारे बेटे का अभिवादन कौन करेगा ? भूल गई हो 

अँधेरे में  चमकती आँखें ? अग्निष्ठिका के पास, देखूँ उधर 

मिल गयी , उल्लू हो तुम , जलती तुम्हारी हथेलियाँ इधर 

लग जाऊँ गले ? कोई प्रेम से पूछे तो सिर्फ़ गूंगे जवाब नहीं देते 

-तुम्हीं ने कहा था कि उल्लू की आँखें अँधेरे में चमकती हैं

इसीलिए नाराज़ हो क्या ? आख़िर कब बोलोगी प्यारी माँ

देखो! मैंने पूरी कॉफ़ी पी डाली , चाहो तो पूछ लो बाई से 

नहाते वक़्त रोया भी नहीं ,  सब बटन भी लगाएँ हैं ठीक से 

गले से "क " का उच्चारण भी सीख गया ," क " से कुत्ता, कॉफ़ी

ठीक हैं न , क्योंकि मैं हूँ  तुम्हारा इकलौता समझदार बेटा

स्नोवाइट की तस्वीर बनाई , पर इसके पैर ताबूत में पसरते नहीं 

बड़े हो कर तुम्हारी तरह बनाऊँगा अक्षर , और तुम्हारी तरह 

मिलेंगे मुझे भी बहुत पैसे , और  तब रोज़ लाऊँगा मैं

कार , तलवार और पासा ,लेकिन तुम्हारे लिए यह सब नहीं, बल्कि 

लाऊँगा केक ,किताब और दस्ताने , जैसे स्नोवाइट के लिए लायें  बौने 

और घोड़ा औ बन्दूक अपने लिए , तुम आज कुछ नहीं लाई मेरे लिए ?

सिर्फ़ मज़ाक में पूछता हूँ , नहीं लाई फ़िर भी तुमसे प्रेम करता हूँ 

सिर्फ़ गंदे बच्चें माँगतें हैं हर रोज़ कुछ न कुछ 

आज वो बर्फ़ वाली कविता सुनाओ , बर्फ़ गुलगुलो का आँचल 

क्या हुआ हैं माँ तुम्हें ? फ़िर पहले की तरह   उदास हो तुम ?

तुम्हें किसी ने दुखी किया है क्या ? मैं डंडे से मारूँगा उसे 

जानती हो, पिछले साल मेरी लाल गेंद भी   छीन ली थी 

उस गुंडे ने सड़क पर , लेकिन तब मैं सिर्फ़ एक छोकरा था 

पर अब गुरुगुंटाल हूँ  मैं , ठोकूँगा ख़ूब उसे गर मिल गया तो 

माँ , तुम्हें चूमा नहीं अभी तक ,उदास मत हो ,अपना मुखड़ा  दो 

इधर झुको .. नहीं झुक सकती, जानती हो, महाआलसी हो तुम 

ठीक है , कुर्सी पर चढ़ कर आता हूँ , आह.. बहुत भारी है कुर्सी 

 यहाँ ..  दुखता है माथा ?अभी भगाता हूँ दर्द ,चूमता  हूँ उधर ही 

पुच्च  ..एक बार और , तीन बार.. और एक बोनस 

देखो ! अब तुम बिलकुल ठीक हो गयी हो 

ठीक है न मेरी प्यारी माँ , मुश्किल काम था 

पर कोई बात नहीं 

लेकिन अब तो तुम मेरे साथ खेलो माँ !



कवियत्री - Kaffka Margit 

जन्म -   10th June ' 1880 , Nagykároly

निधन - 1s December ' 1918 , Budapest 


अनुवादक - इन्दुकांत आंगिरस 

  

Sunday, December 27, 2020

हंगेरियन कविता - Betlehemi Királyok का हिन्दी अनुवाद


ऐसा मानना  है कि भगवान् यीशु के जन्म पर पूर्व दिशा  से तीन राजा , भगवान्  यीशु को देखने बैतलहम गए।  अत्तिला योझेफ  की यह कविता इसी प्रसंग पर आधारित है। 


Betlehemi Királyok - बैतलहम के राजा 


 नमस्ते, नमस्ते यसु हमारे 

राजा तीन हैं  द्वार तुम्हारे 

तारा सर पे ठहर गया था 

दौड़े  आयें समय कहाँ था 

नन्हीं भेड़ ने बतलाया था 

यहीं पे रहते यसु मसीहा 

मेन्यारत  राजा मेरा नाम 

बना दो बिगड़े मेरे काम । 



ईश्वर पुत्र नमस्ते ,नमस्ते 

सुनो , नहीं हम बूढ़े पंडे

सुना, तेरा जन्म  हुआ है 

तू ही ग़रीबों का राजा है 

हैं चरणों में तेरे आ पहुँचे

मोक्ष पाने,  स्वर्ण देश में 

गाशपार  मैं,  ख़ाकसार हूँ 

राजा ज़मीन का, ग़ुबार हूँ । 



तुमसे मिलने आयें हैं हम 

गरम देश से आयें हैं हम 

दाल-भात सब खत्म हुआ 

चमकीला बूट भी टूट गया 

छह मुट्ठी भर सोना लायें

गन्धरस ,लोहबान भी लायें

राजा बोल्दिज़ार  कहो तुम 

हूँ मैं काला भूत, सुनो तुम । 



लाज की किरणें मद्धम मद्धम 

बहुत ही ख़ुश थी माँ मरियम 

ख़ुशी के आँसू यूँ झरते थे 

जिनमें नज़र यसु पड़ते थे 

गाये  ख़ुशी का गीत गडरिया 

अब दूध पीयेंगे यसु मसीहा 

जाओ, जाओ राजाओं अब 

शुभ रात्रि,  जाओं तुम सब । 




कवि -         József Attila

अनुवादक : इन्दुकांत आंगिरस 



Saturday, December 26, 2020

कीर्तिशेष पद्मश्री शम्सुर रहमान फ़ारूक़ी और उनकी दास्ताँगोई



घरौंदे पर बदन के फूलना क्या 

किराए पर तू इस में रह रहा है 


        कीर्तिशेष पद्मश्री शम्सुर रहमान फ़ारूक़ी इस बात से बख़ूबी वाकिफ़ थे कि जिस घरौंदे में वो रह रहे हैं वो किराए का है। शम्सुर रहमान फ़ारूक़ी उर्दू ज़बान के मारूफ़ शाइर और समालोचक है। उर्दू साहित्य उनके साहित्यिक योगदान को कभी भुला  नहीं पायेगा। उर्दू के अलावा  अरबी , फ़ारसी और अँग्रेज़ी भाषा में भी इनकी गहरी पैठ थी।  इन्होने १९६६ से २००६ तक   इलाहाबाद से प्रकाशित उर्दू अदब की पत्रिका " शबख़ूँ  "का सम्पादन किया। पेशे से डाक विभाग में कार्यरत थे लेकिन University of Pennsylvania  में पार्ट टाइम प्रोफ़ेसर भी थे। इनकी किताब " शे'र -ए-शोर अंगेज़ " ( 3 भाग ) के लिए इनको १९९६ में " सरस्वती सम्मान " से नवाज़ा गया। २००९ में इनकी  साहित्यिक उपलब्धियों के लिए इन्हें भारत सरकार द्वारा  " पद्मश्री " सम्मान से भी नवाज़ा गया।

साहित्य से लगभग लुप्त होती कला " दास्ताँ गोई " को पुनर्जीवित करने का श्रेय भी इन्हीं को जाता है। २००६ में प्रकाशित इनकी किताब " कई चाँद थे सरे आसमान " ने इनको आसमान की बुलंदियों तक पहुँचा दिया। इस मशहूर किताब का अँगरेज़ी भाषा में तर्जुमा " The Mirror of Beauty  " के नाम से उपलब्ध है। इनके द्वारा रचित पुस्तकों की एक लम्बी फ़ेहरिस्त हैं लेकिन चंद उल्लेखनीय किताबों के नाम देखें-


1  ग़ालिब , अफ़साने की हिमायत में 

2 .शे'र ,ग़ैर शे'र और नस्र

3. मीर तक़ी मीर ( 1722 -1810 ,टिप्पणियों के साथ मीर का समग्र साहित्य  )

4. उर्दू का इब्तदाई ज़माना 

5. सवार और दूसरे अफ़साने 

6. कई चाँद थे सरे आसमान 


 शम्सुर रहमान फ़ारूक़ी ने उर्दू  अदब में अपनी एक अलग पहचान बनाई और उनके किताबें साहित्य जगत में बहुत चर्चित रहीं। उम्मीद है कि उनकी बेशक़ीमती किताबों  का हिन्दी भाषा में भी यथाशीघ्र अनुवाद उपलब्ध होगा जिससे कि हिन्दी के पाठक भी उनकी किताबों से लाभान्वित हो सकेंगे। उन्हें हमेशा अपने लिए एक नई दुनिया की तलाश थी और उनकी यह तलाश २५ दिसंबर २०२० को पूरी हो गयी। उन्हीं का यह शे'र देखें - 


बनायेंगें   नई   दुनिया हम अपनी 

तिरी  दुनिया में अब रहना नहीं हैं 




जन्म -    30th September ' 1935

निधन -  25th December ' 2020





Wednesday, December 23, 2020

कीर्तिशेष चंद्रकिरण राठी और उनकी किताबी दुनिया

 


                                                        कीर्तिशेष चंद्रकिरण राठी


मुझे ठीक से याद नहीं कि मेरी पहली मुलाक़ात चंद्रकिरण राठी से दिल्ली में कब और कहाँ   हुई लेकिन जब मैं अपनी हंगेरियन भाषा की अध्यापिका डॉ कौवेश मारगीत  के साथ लगभग तीन वर्ष पूर्व उनके ग्रेटर नॉएडा वाले घर  पर पहुँचा तो उन्होंने मुझसे कहा -" हम पहले भी कही मिल चुके हैं , शायद किसी साहित्यिक कार्यक्रम में " तो मुझे भी किसी धुँधली मुलाक़ात की याद आ गयी। श्री गिरधर राठी से तो हंगेरियन अनुवाद के सिलसिले में पहले भी मुलाक़ाते हो चुकी थी। 

हम लोग हंगेरियन कवि - साहित्यकार , अरान्य यानोश की कविताओं के हिन्दी अनुवाद पर श्री गिरधर राठी से उनकी विशेष राय जानने  के लिए गए थे।  इस सिलसिले में हमे दो दिन उनके घर जाना पड़ा। दोनों दिन हमे चन्द्रकिरण राठी का  स्नेह एवं प्रेम प्राप्त हुआ। उन्होंने बड़ी आत्मीयता से हमारा यथोचित सम्मान किया और उनके घर पर खाई  मक्के की रोटी और सरसो का साग आज भी याद है। 

 चंद्रकिरण राठी एक लेखिका के साथ साथ अच्छी अनुवादक भी थी।इन्होने बांग्ला और अँग्रेज़ी भाषा से उल्लेखनीय अनुवाद कार्य किया है।  केंद्रीय अनुवाद ब्यूरो में वरिष्ठ अनुवादक के रूप में कार्य किया ,बी बी सी से भी जुडी रही और अनेक व्यस्क विदेशियों को हिन्दी सिखाई। किताबों से उन्हें विशेष प्रेम था।  उनका मानना था कि किताबे पढ़ कर ही एक आदमी , इंसान बन सकता है। पुस्तकों के प्रचार-प्रसार में उन्होंने अपनी ज़िंदगी का एक लम्बा अरसा गुज़ारा। ग़रीब बच्चों को  पुस्तकें उपलब्ध कराने में उन्हें विशेष ख़ुशी मिलती थी।  ग्रेटर नॉएडा के M S X  मॉल में " पोथी वितरण केंद्र " से पुस्तकों का प्रचार -प्रसार एवं बिक्री। मुझे याद है कि उन्होंने हमसे उस पुस्तक केंद्र को देखने की बात कहीं  थी लेकिन समय अभाव   के कारण हम लोग उस दिन वहाँ नहीं जा पाए थे। 


हिन्दी साहित्य संसार ,कीर्तिशेष चंद्रकिरण राठी के साहित्यिक सहयोग को कभी भुला नहीं पायेगा । जिस साहित्यकार ने अपनी पूरी ज़िंदगी पुस्तकों के प्रचार में बिता दी हो ,आइये  उनके द्वारा रचित बेशक़ीमती किताबों से भी परिचित हो जाएँ  । 



प्रकाशित पुस्तकें -

1. बांग्ला एवं अंग्रेजी से अनु: उड़न छू गाँव (हंगारी कहानियाँ, राजकमल ,  फिर वाग्देवी से प्र.), 
2. रवीन्द्र नाथ निबंध तीसरा खंड, 
3. और ताराशंकर बन्दोपाध्याय मोनोग्राफ(साहित्य अकादेमी),
4 & 5. नवनीता देवसेन की दो किताबें( वाग्देवी ,बीकानेर), 
6. डा कर्ण सिंह की हिंदू धर्म पर, बिना अनु. नाम, (भारतीय ज्ञानपीठ )
7. सत्यजित राय की कहानियाँ . जहाँगीर की स्वर्ण मुद्रा(राजकमल ),। 
8. ऋत्विक घटक की कहानियाँ . ,संभावना हापुड़ से प्रकाशनाधीन।  
9. पुस्तिकाएँ राज. प्रौढ़ शिक्षा सं. से शतरंज पर,
10. सुकुमार  राय की बाल कथा - जतीन का जूता(ईशान/राजकमल ).



जन्म -   29th February ,   1944
निधन - 17th December ,  2020



NOTE - उनके सुपुत्र श्री विशाख राठी को उनके सहयोग के लिए शुक्रिया। 

Sunday, December 20, 2020

हंगेरियन कविता- A két Természet और Prozai S Poétai szólas का हिन्दी अनुवाद


 A két Természet :  प्रकृति  - दो पहलू


कविता मिलती  है बुज़ुर्गों से और  असभ्यता से  

अक्षुणत:  परिदृश्य  और आत्मा को  जकड़ती  है 

और तुम्हारा कहना है  कि यह  सब एक है ,और 

पवित्र प्रकृति के लिए तुम्हे ग्रीष्म वापिस चाहिए 

जो दिखता है तुम्हे ग्रीष्म प्रकृति  में ,यह वही है- 

प्रकृति की  यह सुन्दर  कला उसके लिए नहीं है । 



 Prozai  S Poétai szólas :  गद्य ओर कविता का वार्तालाप 


यक़ीनन , तुम्हीं हो उस्ताद और  उरूज़ 

तुम्हीं हो सत्य 

तुम्हारी इस्लाह के बाद ही दौड़ती  हैं  

मेरी कविताएँ

और जब पसरती हैं गद्य पर 

तब कविता ओर गद्य में कोई फर्क नहीं रह जाता। 



कवि -  Kazinczy Ferenc (1759-1831)


अनुवादक -इन्दुकांत आंगिरस










Wednesday, December 16, 2020

हंगेरियन लोक कथा - A róka meg a sajt का हिन्दी अनुवाद



A  róka meg a sajt - लोमड़ी  और पनीर 


प्राचीन समय की बात है , सात समुन्दर पार एक लोमड़ी रहती थी। एक बार चाँदनी रात में लोमड़ी एक अमीर आदमी के आँगन में कुछ खाने के लिए घुस गयी। वहाँ मुर्गियाँ और सूअर इधर-उधर घूम  रहें थे लेकिन लोमड़ी को खाने के लिए कुछ भी न मिला। 

वह निराश हो कर आँगन से जाने ही वाली थी कि तभी उसकी निगाह आँगन के बीचो-बीच  एक कुँए पर पड़ी। वह  कुँए की  तरफ़ गयी ,  कुँए की मुंडेर पर दोनों टाँगों से खड़े होकर कुँए के पानी में झाँकने लगी। तभी उसने पानी में चाँद की परछाई देखी और उसने सोचा कि वह पनीर का एक बड़ा टुकड़ा है। 

लोमड़ी सोचने लगी कि किस तरह  कुँए  के भीतर पहुँचे जिससे कि उसे पनीर खाने को मिल जाये। शीघ्र ही उसने तरकीब खोज निकाली। वह कुँए  के ऊपर चढ़ गयी और वहाँ लटकी दो बाल्टियों में से एक में बैठ गयी। यह बाल्टी दूसरी बाल्टी की तुलना में भारी हो गयी और वह तत्काल पानी में उतर गयी। 

जब लोमड़ी  कुँए के भीतर पहुँची  तो उसे एहसास हुआ कि जिसे वह पनीर समझ रही थी वह तो चाँद की परछाई थी। वह अफ़सोस करने लगी कि कुँए  के भीतर क्यों उतरी, लेकिन अब बाहर आना मुश्किल था। दुखी होकर सोचने लगी कि अब क्या होगा। तभी एक भेड़िया भी खाने की तलाश में उसी आँगन में आ गया। उसे भी  इधर-उधर घूमती मुर्गियाँ और सूअर ही मिले लेकिन खाने के लिए कुछ न मिला। 

वह भी जब आँगन छोड़ के जाने ही वाला था , उसकी निगाह भी  कुँए पर पड़ी और वह कुँए की ओर चल पड़ा। कुँए की मुंडेर पर दोनों टाँगों से खड़े होकर कुँए  में झाँकने लगा। उसने देखा वहाँ बाल्टी में एक लोमड़ी थी ओर उसके पास ही एक बड़ा पनीर का टुकड़ा।  


- तुमने वहाँ पहुँच कर कमाल कर दिया , उस पनीर में से थोड़ा पनीर मुझे नहीं दोगी खाने को ? भेड़िये ने लोमड़ी से पूछा। 


- क्यों नहीं भेड़िये भैया ,ज़रूर दूँगी - लोमड़ी ने जल्दी से जवाब दिया। 


- लेकिन मैं वहाँ तक पहुँचू   कैसे ?


- कुँए  पर चढ़ कर उस खाली बाल्टी में बैठ जाओ , आराम से नीचे पहुँच जाओगे।  - लोमड़ी जानती  थी  कि भेड़िये का वज़न उससे ज़्यादा है और  जब भेड़िया  कुँए  में उतरेगा तो वह अपने आप कुँए से बाहर आ जाएगी। 

भेड़िया बाल्टी में बैठ नीचे उतरने लगा और लोमड़ी की बाल्टी ऊपर आने लगी।  जब भेड़िया लोमड़ी के करीब पहुँचा तो लोमड़ी ने भेड़िये  को बेहतरीन भोजन की शुभकामनाएँ दी और जैसे ही उसकी बाल्टी ऊपर पहुँची वह बाल्टी में से कूद कर भाग गयी। 


नीचे पहुँच कर भेड़िये को पता चला कि उसे बेवकूफ़ बनाया गया था।  कुँए में पनीर नहीं बल्कि चाँद की परछाई थी लेकिन अब वह कर भी क्या सकता था। उसे सुबह होने तक वही बैठना पड़ा। सुबह  होने पर  जब ज़मीदार  जानवरों  के लिए पानी लेने आया तो उसने देखा वहाँ बाल्टी में एक भेड़िया बैठा था। उसने चिल्ला कर पड़ोसियों को बुलाया।  सबने मिलकर भेड़िये को कुँए से बाहर खींचा और उसे मार दिया।  उसकी खाल के भी अच्छे दाम मिले। 


इस प्रकार इस क़िस्से  का समापन हुआ। 



अनुवादक - इन्दुकांत  आंगिरस 

Sunday, December 13, 2020

हंगेरियन कविता - Altató का हिन्दी अनुवाद


                                                            
József Attila


अत्तिला  योझफ हंगरी के प्रसिद्ध  कवि है। हंगरी   में ११ अप्रेल ,  राष्ट्रिय कविता दिवस के रूप में मनाया जाता है जोकि अत्तिला  योझफ का जन्म  दिवस है।  बुदापैश्त में डेन्यूब नदी के किनारे उनकी सुन्दर मूर्ति भी देखी जा सकती है। आइए , आज पढ़ते हैं उनकी एक कविता का हिन्दी अनुवाद। 



Altató - लोरी


आकाश ने मूँदी नीली आँखें 

घर में मूँदी सबने आँखें 

रजाई में सोयें हरे मैदान 

चैन से सोओ तुम बलाज़


पैरों पर रख  सर को अपने 

कीड़ा ,मक्खी सोयें भैया 

उनके साथ सोयें ततैया 

चैन से सोओ तुम बलाज़


ट्राम भी थक कर सो गयी 

ऊँघ रही है खखड़ाहट 

सपने में बजती थोड़ी -सी 

चैन से सोओ तुम बलाज़


कुर्सी पे रखा कोट भी सोया 

उधड़न   भी अब ऊँघ रही 

बस और नहीं उधड़ेगी अब 

चैन से सोओ तुम बलाज़


ऊँघती गेंद ,एक जाम और 

जंगल की कर लो सैर और 

मीठी चीनी भी सो गयी 

चैन से सोओ तुम बलाज़


दूरिया सब कंचों की मानिंद 

बड़े हो कर सब पाओगे 

मूँद लो नन्हीं आँखें अपनी 

चैन से सोओ तुम बलाज़


सैनिक , फ़ायरमैन बनोगे 

या तुम बनोगे चरवाहे ?

देखो, सो गयी माँ तुम्हारी 

चैन से सोओ तुम बलाज़



कवि - József Attila

जन्म -  11th April ' 1905 - Budapest

निधन - 03rd December ' 1937  - Balatonszárszó


अनुवादक -इन्दुकांत आंगिरस 


Thursday, December 10, 2020

हंगेरियन कविता - Meg kell halnom itt का हिन्दी अनुवाद


                                                             
Balázs Béla 


Meg kell halnom itt- मुझे यहीं त्यागने हैं अपने प्राण



नहीं जानता तुम्हें,अपरिचित हो तुम सभी मेरे लिए 

न  कभी तुम्हारी तलाश थी , न मुझे तुम से प्रेम है 

तुम्हारे बंद दरवाज़ों पर जमा मेरी  मुट्ठियों का ख़ून

लाल हो गयी  मेरे होठों के लहू से तुम्हारी दहलीज़

आने दो भीतर मुझे,मुझे यहीं त्यागने हैं अपने प्राण 


नहीं जानता किसने भेजा ,मालूम नहीं  उसका नाम 

ज़िंदगी की तवील  सड़क , भूल चूका हूँ उसका नाम 

 कोड़ों की मार ने धकेला , सुनो कोड़ों की आवाज़ 

अपने भीतर की आवाज़ में फ़िर सुनी वही आवाज़  

जो कहती  हैं तुमसे - मुझे यहीं त्यागने हैं अपने प्राण 


अब तक सुना चुके होंगे तुम्हें शीर्षस्थ संदेशवाहक 

जातीय वंशजों का वही  पुराना गीत और कहानी 

एक   सेना के सामने, तन कर खड़े होंगे तुम सभी  

लेकिन मैं अकेला , गुमनाम , क़दम भी न बढ़ा सका

आता -जाता आवारा, मुझे यहीं त्यागने हैं अपने प्राण 


मैं अकेला ,अंतरिक्ष में भेदे  तीर की मानिंद

अनेक  वंशजों के हुजूम को पार कर गया  

एक युवा भीड़ को , युवा जातीय वंशजों को

सुनो , मुझे भेजा है मेरे पूर्वजों के पूर्वजों ने 

इक भूले पूर्वज के लिए , मुझे यहीं त्यागने हैं अपने प्राण    


तुम्हारे बंद दरवाज़ों पर जमा मेरी  मुट्ठियों का ख़ून

लाल हो गयी  मेरे होठों के लहू से तुम्हारी दहलीज़

अपरिचित हो तुम ,  लेकिन खोल दो  बंद दरवाज़ें  

क्योंकि अजनबियों के लिए ,  ऐसा ही था आदेश

तुम समझ सकते हो, मुझे यहीं त्यागने हैं अपने प्राण




कवि - Balázs Béla  

जन्म -  4 अगस्त ' 1884 - Szeged 

निधन - 17 मई ' 1949  - Budapest


अनुवादक -इन्दुकांत आंगिरस 



Wednesday, December 9, 2020

Tetőn - शिखर पर


 साहित्य संसार में यह अक्सर देखने को मिलता है कि कोई कवि या लेखक दूसरे कवि या लेखक से इतना मुतासिर होता है कि उसकी याद में कोई कविता या संस्मरण लिख डालता है। Károly Kós हंगरी के प्रसिद्ध लेखक , वास्तुकार ,कलाविद एवं राजनीतिज्ञ थे। Hervay Gizella ने प्रस्तुत कविता उन्हीं  को समर्पित की है  । 


Tetőn - शिखर पर


Kós Károlynak - कारोयी कोश के नाम 


पतझड़ ने इतने पत्तों को  कभी नहीं गिराया 

और  इतना  डरावना शब्द -सब   रीत गया 


कई दिनों  भटका,रातों को भी सो न सका 

और इतवार की सुबह मैं  पहाड़  पर गया 


वहाँ नीचे घाटी में पसरा था  तन्हा अँधेरा 

यहाँ ऊपर पुराना पहाड़ था अचल खड़ा 


नंगे शिखर देखते असीमता को सदियों से 

मंज़र बनाया था साफ़ दमकती रौशनी ने 


वहाँ नीचे कसमसाती थी   घाटी ताप से 

यहाँ ऊपर सफ़ेद पनीर परोसते चरवाहे 


शान्ति का शब्द उभरता  उसके होंठों पे 

करता  है  प्रतीक्षा वो  शान्ति से बाड़े में 


दूर  जहाँ बर्फ़ का  राजा करता था राज 

आकाश ने फैलाया असीम परचम आज 


पंख मेरी उड़ान के तब टूट गए थे सब 

समेटे थे  बाँहों में लहरों के क्षितिज सब 


देखकर शिखरों को यूँ ही सदियों से 

यही रहस्य्मय शब्द निकला होठों  से -

ट्रान्सिलवानिया  



कवि - Hervay Gizella 

जन्म - 10 अक्टूबर ' 1934- Makó

निधन -  02 जुलाई ' 1982 - Budapest


अनुवादक - इन्दुकांत आंगिरस


Monday, December 7, 2020

हंगेरियन कविता - Én nem mozdultam का हिन्दी अनुवाद


Én nem mozdultam  - मैं हिला भी नहीं था


 पुरानी  डगर  पर फ़िर से आख़िर  तक गया था 

इक पतझड़ी जंगल की मानिंद दबे पावँ गया था 

जैसे जाती हुई गरमी में क़ालीन पे पड़े मिरे पावँ 

जैसे मेरी आत्मा के सन्नाटें  में पसरती  पत्तियाँ

शायद मैं गया  नहीं था ? शायद कभी नहीं गया  

जैसे पतझड़ी जंगल में लगातार गिरती पत्तियाँ 

धुँधलाता सूरज स्मृति में अतीत-सा  बन गया 

मैं पत्थर -सा ,झड़ती पत्तियों के नीचे खड़ा था

एक बार फ़िर से तीसा* के किनारे खड़ा था 

वहीं , जहाँ मेरी तमन्ना  झरने की बूँदों में भीगी 

जिसके साथ मैं दूर तक भटकता रहा था 

लेकिन मेरी तमन्ना वहाँ मौन प्रतीक्षारत थी 

वहीं, उसी राह पर जहाँ अनेक दिन गुज़ारे थे: 

क्यूँकि  ठहरी है तीसा*  और ज़मीन बह रही है  । 



कवि - Balázs Béla  

जन्म -  4 अगस्त ' 1884 - Szeged 

निधन - 17 मई ' 1949  - Budapest


अनुवादक -इन्दुकांत आंगिरस 


NOTE -  तीसा* यूरोप की इक मुख्य नदी है जो हंगरी  में उत्तर दिशा से दक्षिण की ओर बहती है। 

Sunday, December 6, 2020

Elefánt -हाथी


 

पक्षियों और जानवरों पर कवि और लेखक सदा से  ही लिखते  आयें हैं। प्रकृति के तिल्सिम से बेपरवाह रहना मुमकिन भी कब था। हाथी सम्पूर्ण विश्व में एक लोकप्रिय जानवर रहा  है जोकि सभी को आकर्षित करता है और विशेष रूप से बच्चों को। विश्व साहित्य में हाथी  के ऊपर अनेक रचनाएँ मिल जाएँगी।  आइए आज पढ़ते हैं हाथी पर लिखी एक हंगेरियन कविता  का हिन्दी अनुवाद-  



Elefánt -हाथी 


अंधड़ ले उड़ा खजूर का पेड़ 

और साथ साथ जंगली झाड़ 


विशालकाय शरीर पर 

भारी - भरकम चमड़ी पर 

गिरते रहे बड़े ठूँठ धड़धड़ाते 

उद्दाम नदियाँ उफ़नती उसके आगे 

आकाश की ओर सूँड उठा  बिगुल बजाता 

इसीलिए था हाथी जीता  


उसके बाद आयें ज़हरीले मच्छर 

और डंक मारने वाले कीड़ें 

उतरते रहें पेट पर उसके रोज़ 


खुजली से पतवारी कान फड़फड़ा कर रह गये

थक हार कर दलदल में टेक दिए उसने घुटने 

गहराई में धँसे अपने दाँत और मछलियों को 

देखता था मुहँ फाड़ 


अंततः ज़हरीले मच्छर और डंक मारने वाले कीड़ें 

मेरे मृत शरीर को छोड़ जाते रहे हर रोज़ 

और एक बवंडर लिए निकल पड़े नए हाथी की तलाश में। 



कवि - Monoszlóy Dezső 

जन्म - 28 दिसंबर ' 1923 -Budapest

निधन - 1 मई ' 2012 -  Bécs


अनुवादक - इन्दुकांत आंगिरस 

Saturday, December 5, 2020

हंगेरियन कविता - A mi nyelvünk का हिन्दी अनुवाद

Kazinczy Ferenc ने   १९वी शताब्दी के आरम्भ में हंगेरियन भाषा और हंगेरियन साहित्य के निर्माण में महत्वपूर्ण योगदान दिया। उनके अथक प्रयासों से ही १८४४ में हंगेरियन भाषा हंगरी राष्ट्र की राष्ट्र भाषा बनी। Kazinczy  Ferenc कवि के साथ साथ लेखक और अनुवादक भी थे। हंगेरियन भाषा से सम्बंधित उनकी  कविता  A mi nyelvünk का  हिन्दी अनुवाद पढ़ें -


A mi nyelvünk - हमारी भाषा  


 सुन्दर  ग्रीक   के लिए ईश्वरयी विपदा ,  रोमन विराटता 

फ़्रांसिसी लालित्य ,जर्मन जोश औ हेस्पारियन गरमाहट 

तुम सबको मेरी सुन्दर भाषा से ईर्ष्या है 

और तुम्हें  उससे कोई ईर्ष्या नहीं होती ? 

होमर और विर्जिल की भाषा 

ग़र यूरोप के दूसरे इलाकों में मिले तो ,

बेहतरीन  ईश्वरयी बाँसुरी पाषाण हो गयी क्या ? 

वह चरमराहट नहीं गर्जन है , ज़रूरत पड़ने पर दौड़ती है 

जैसे कि आदमी अपने लक्ष्य की ओर

राह में टूटती नहीं , अपितु दौड़ते-कूदते , फ़िसलते हुए 

पसरती है गर्माते स्तनों पर 

आह भरने को अधरों पर ठहरा गहरा  दुःख 

और सुनो ! पोलिश और इतालवियों 

तुमसे बेहतर कराहता है हमारा प्रेम 

ज़ंजीरें खनखनाती हैं , सिरहाने खड़ा है वक़्त 

ओर हम खड़ें हैं तुम सबके बीच। 



कवि -  Kazinczy Ferenc (1759-1831)


अनुवादक -इन्दुकांत आंगिरस


हंगेरियन क्षणिकाओं का हिन्दी अनुवाद


Kazinczy Ferenc ने   १९वी शताब्दी के आरम्भ में हंगेरियन भाषा और हंगेरियन साहित्य के निर्माण में महत्वपूर्ण योगदान दिया। उनके अथक प्रयासों से ही १८४४ में हंगेरियन भाषा हंगरी राष्ट्र की राष्ट्र भाषा बनी। Kazinczy  Ferenc कवि के साथ साथ लेखक और अनुवादक भी थे। हंगेरियन भाषा से सम्बंधित उनकी कुछ क्षणिकाओं  का  हिन्दी अनुवाद पढ़ें -



A nagy titok - बड़ा रहस्य 


अगर ठीक और बढ़िया होने के   बीच छुपे रहस्य को नहीं समझते

तो बस खेती-बाड़ी करो और बलिदान को दूसरों के लिए छोड़ दो 


A Kész irók - पूर्ण लेखक


लूले -लंगड़े हो कर भी नाचते हो ,लिखते हो पर  भाषा से अज्ञान  

पंख   तो   तुम्हारे हैं    ही नहीं , बस चुप   रहो और  भरो  उड़ान 


Misoxenia - परदेसियों  से नफ़रत

सुख नहीं चाहिए गर  उसमे मानवता औ वतनपरस्ती न हो 

मेरे लिए मानवता बस , बुदा और पैश्त  मेरे असली घर हों  


Irói érdem - लेखकीय मान्यताएँ 


कहो कौन हो तुम ? अब नहीं कहूँगा , तुम से परिचित हूँ 

मेरे लिए खाली बकवास किसी बकवास से कम नहीं है 

बढ़िया वाइन में रंग ,   ज़ायका और तपिश होनी चाहिए 

उस्ताद के कलाम में रस ,ज़ायका और आग होनी चाहिए 



कवि -  Kazinczy Ferenc (1759-1831)


अनुवादक -इन्दुकांत आंगिरस