Tuesday, September 22, 2020

हिंदवी बनाम दक्खिनी

 

तुर्क हिंदुस्तानियम  मन हिंदवी    गोयम जवाब 

शकर मिस्री न दारम कज़ अरब  गोयम सुख़न 


अमीर खुसरो की मातृभाषा हिंदवी थी और उन्हें इस बात का गर्व था , इसीलिए उन्होंने उपरोक्त शे'र  में फ़ारसी में कुछ यूँ कहा है -  " मैं हिंदुस्तानी  तुर्क हूँ और हिंदवी ज़बान  में जवाब देता हूँ। मेरे पास मिस्री की शकर नहीं है कि मैं अरबी भाषा  में बात करूँ "अमीर खुसरो ने अपने ग्रन्थ " ख़ालिक बारी " में कई बार हिंदवी और हिन्दी  लफ़्ज़ का प्रयोग किया  है।  अमीर खुसरो ने पहली बार इस भाषा को हिंदवी  कहा। 

वास्तव  में हिंदवी दिल्ली  और  उसके आस-पास के इलाकों में बोली जाने वाली ज़बान थी। इसलिए यह कहा जा सकता  है  कि हिन्दी के लिए सबसे प्रचलित नाम हिंदवी ही है। इसे हिन्दुस्तान की भाषा होने के कारण हिंदुस्तानी  नाम भी दिया गया। जिस जिस प्रदेश में यह भाषा गयी वहाँ वहॉँ उसने अपनी अलग पहचान बना ली ,जब यह दक्खिन में पहुँची तो दकनी  या  दक्खिनी के नाम से जानी जाने लगी। जिस समय खड़ी बोली , उत्तर भारत में सिर्फ बोल-चाल की  भाषा थी उस समय दक्षिण में इस भाषा में विपुल साहित्य की  रचना हो रही  थी। डॉ उदय नारायण तिवारी के शब्दों में - दक्खिनी हिन्दी दक्षिण में ले जाई  गयी दिल्ली की बोली है जो  बाद में अपने साहित्यिक रूप में दिल्ली में आकर फिर प्रतिष्ठित हो गयी। "


दक्खिनी वास्तव में हिन्दी का एक रूप है। मुल्ला वजही अपने ग्रंथ 'सबरस' में लिखते हैं -

हिन्दुस्तान में हिन्दी ज़बान सो  इस लताफ़त

इस छन्दा सो नज़्म हौर नस्र लाकर गुला कर यो नै बोल्या 


सनअती ने अपनी मसनवी क़िस्सा बेनज़ीर में दक्खिनी भाषा को संस्कृत और फ़ारसी की तुलना में अधिक सरल बताया है -

जिसे  फ़ारसी का न कुछ ग्यान है 

तो दखिनी ज़बां उसको आसान है 

सो इसमें सहंस्कृत का है   मुराद

किया इसते आसानगी का सुवाद 


यूँ तो दक्खिनी हिन्दी का अधिकाँश साहित्य फ़ारसी में लिखा गया लेकिन फ़ारसी शब्दों का उच्चारण भी हिन्दी की प्रकृति के अनुसार किया जाता रहा है। उर्दू में प्रियतम को पुल्लिंग रूप  में चित्रित करने की परम्परा रही है लेकिन दक्खिनी में प्रियतम को स्त्रीलिंग रूप में प्रयोग किया है। बक़ौल मुहम्मद क़ुली क़ुतुब शाह -


चंचल छबीली छंद भरी रफ़्तार पकड़ी हो रविश 

सारी रविशां छोड़कर ओ नार पकड़ी हो रविश 

सब मज़हबां की    भेस ले बातां हो इससूं  बेटने 

दिल देती नहीं है मुंजकूं  दिलदार पकड़ी हो रविश 


Sunday, September 20, 2020

तीन वरदान - A három kivánság ( हंगेरियन लोक कथा का हिन्दी अनुवाद )


 A három kivánság



  Egyszer volt, hol nem volt, hetedhét országon is túl volt, még az Óperenciás-tengeren is túl, volt egy szegény ember s a felesége. Fiatalok voltak mind a ketten, szerették is egymást, de a nagy szegénység miatt sokszor összeperlekedtek.   Egyszer egy este az asszony tüzet rak. Gondolja magában, mire az ura hazajön, főz valami vacsorát. Még a víz jóformán fel sem forrott, jön haza az ember, s mondja az asszonynak nagy örömmel: - Hej, feleség, ha tudnád, mi történt! Vége a nagy szegénységnek, lesz ezután mindenünk, amit szemünk-szánk kíván.   - Ugyan ne tréfáljon kend - mondta az asszony -, talán bizony kincset talált?   - Meghiszem azt! Hallgass csak ide. Amint jövök ki az erdőből, mit látok az út közepén? Belerekedt a sárba egy kis aranyos kocsi, a kocsi előtt négy szép fekete kutya befogva. A kocsiban olyan szép asszony ült, amilyet világéletemben nem láttam. Biztosan tündér lehetett. Mondja nekem: “Te jó ember, segíts ki a sárból, bizony nem bánod meg.” Gondoltam magamban, hogy bizony jólesnék, ha segítene a szegénységünkön, és segítettem, hogy a kutyák kihúzzák a sárból. Kérdi az asszony, hogy házas vagyok-e. Mondom neki, hogy igen. Kérdi, hogy gazdagok vagyunk-e. Mondom neki, hogy bizony szegények vagyunk, mint a templom egere. Azt mondja: “No, ezen segíthetünk. Mondd meg a feleségednek, hogy kívánjon három dolgot, teljesülni fog a kívánsága.” Azzal elment, mint a szél.   - Ugyan rászedte kendet!   - Majd meglátjuk. Próbálj csak valamit kívánni, édes feleségem!   Erre az asszony hamarjában kimondta:   - Bárcsak volna egy kolbászunk. Ezen a jó parázson hamar megsülne.   Alig mondta ki, már le is szállt a kéményből egy lábas, benne akkora kolbász, hogy akár kertet lehetett volna keríteni vele.   - Látod, hogy igazam volt - mondta a szegény ember -, hanem most már valami okosabbat kívánjunk. Két tinót, két lovat, egy malacot...   Közben a szegény ember elővette a pipáját, volt még egy kicsi dohánya, megtömte. Benyúl a tűzbe, hogy parazsat tegyen a pipájára, de olyan ügyetlenül talált benyúlni, hogy a lábast a kolbásszal feldöntötte.   - Az istenért, a kolbász! Mit csinál kend? Bár az orrára nőtt volna kendnek! - kiáltott ijedten a felesége, s ki akarta kapni a kolbászt a tűzből, de bizony az akkor már az ember orrán lógott le egészen a lába ujjáig.   - Látod, bolond, oda a második kívánság. Vegyük le!   Próbálja az asszony, de bizony a kolbász egészen odanőtt.   - Hát bizony ezt le kell vágni. Egy kicsit az orrából is lecsippentünk, nem olyan nagy baj az!   - De azt nem engedem!   - Bizony ha nem, élete végéig így fog sétálni a kolbásszal.   - Dehogy fogok, a világ minden kincséért sem! Tudod mit, asszony, van még hátra egy kívánság, kívánd, hogy a kolbász menjen vissza a lábosba.   - Hát a tinó meg a ló meg a malac akkor hol marad?   - Már hiába, feleség, én ilyen bajusszal nem járok. Kívánd hamar, hogy a kolbász menjen vissza a lábosba.   Mit volt mit tenni, a szegény asszonynak csak azt kellett kívánni, hogy a kolbász essék le az ura orráról. Megmosták, megsütötték, s jóízűen az utolsó falatig megették. Evés közben szépen megbékültek, s elhatározták, hogy többet nem pörölnek, hanem inkább dolgoznak szorgalmasan. Jobban is ment dolguk, idővel tinót is, lovat is, malacot is szereztek, mert szorgalmasak és takarékosak voltak.     szerk. Kovács ÁgnesIcinke-picinke - Móra Ferenc KönyvkiadóBudapest - 1972





A három kivánság - तीन वरदान -


प्राचीन समय की बात है दूर बहुत दूर , कही सात समुन्दर पार  ,एक गावँ में एक ग़रीब पति-पत्नी रहते थें। दोनों जवान थें और एक दूसरे से बहुत प्यार करते थें लेकिन ग़रीबी के कारण आपस में झगड़ते भी बहुत थें।  

एक शाम पत्नी ने भोजन पकाने के लिए चूल्हा जलाया।  वह सोच रही थी कि पति के घर आने से पहले वह कुछ भोजन पका ले।  आग पर रखा पानी अभी गरम भी नहीं हुआ था कि उसका पति घर आ गया। पति ने ख़ुशी से नाचते हुए अपनी पत्नी से कहा - " काश   तुम्हें पता होता कि क्या हो गया है ! हमारी  गरीबी खत्म हो गई है, हमें वो  सब कुछ मिलेगा जो हमारी आंखें और मुंह चाहेंगे । । "

" फालतू मज़ाक मत करो , तुम्हें हीरे -जवाहारात मिल गए हैं क्या ? " पत्नी ने पूछा। 

" मुझ पर विश्वास करो और मेरी बात ध्यान से सुनो। आज जब मैं जंगल से बाहर आ रहा था , जानती हो मैंने बीच रास्ते में क्या देखा ?  वहाँ मिट्टी वाली दलदल में एक सोने की बग्घी फँसी हुई थी , बग्घी को चार शानदार काले कुत्तें खींच रहे थें।बग्घी में एक बहुत सुन्दर औरत बैठी थी उसके जैसी मैंने आज तक दुनिया में नहीं देखी थी। ज़रूर  कोई परी रही होगी। उस औरत ने मुझ से कहा - ' तुम भले आदमी लगते हो ,इस दलदल से निकलने में हमारी मदद करो,यक़ीन मानो तुम्हे पछतावा नहीं होगा '।"मैंने मन में सोचा कि यह अच्छा होगा यदि वह  हमारी गरीबी में मदद करेगी  और मैंने कुत्तों को उसे कीचड़ से बाहर निकालने में मदद की।

उसने मुझ से पूछा कि क्या मैं शादी - शुदा हूँ।  मैंने उसे बतया कि ' हाँ '। उसने मुझ से फिर पूछा कि क्या हम अमीर हैं। मैंने उसे बताया कि हम चर्च के चूहों की तरह ग़रीब हैं। तब उसने कहा - " हम इसमें तुम्हारी मदद करेंगे। अपनी पत्नी से कहो कि वो तीन चीज़े मांगे और उसकी तीनों इच्छाएं पूर्ण होंगी। "  उसके बाद वह हवा की तरह उड़ गयी। अब तुम जल्दी से  कुछ माँगों। - तुम इस पर अपना कपड़ा डाल दो!   - हम देखेंगे। मेरी प्यारी बीवी , अब तुम कुछ मांगों !   इस पर महिला ने तुरंत कहा:-"  काश हमारे पास सॉसेज होता तो  वह इन गरम कोयलों पर जल्दी भुन जाती  । "  जैसे ही उसने यह कहा, चिमनी से एक पैर इतना बड़ा सॉसेज लेकर नीचे आया  उससे एक बगीचे की बाड़ तक बनाई जा सकती थी  । " देखा तुमने !, मैं सही था," गरीब आदमी ने कहा, लेकिन आओ कुछ बढ़िया चीज़े मांगते हैं । दो स्टीयर, दो घोड़े, एक सुअर... इतने में, बेचारे आदमी ने अपनी चिलम निकाली, और उसे  तम्बाकू के  एक  छोटे  टुकड़े से  भर दिया। वह अपने पाइप को कोयलों से जलाने  लिए आग के नज़दीक  गया , लेकिन इतनी अनाड़ीपन से पहुंचा कि उसका पैर सॉसेज से टकरा गया।

" देखा तुमने !, मैं सही था," गरीब आदमी ने कहा, लेकिन आओ कुछ बढ़िया चीज़े मांगते हैं । दो स्टीयर, दो घोड़े, एक सुअर... इतने में, बेचारे आदमी ने अपनी चिलम निकाली, और उसे  तम्बाकू के  एक  छोटे  टुकड़े से  भर दिया। वह अपने पाइप को कोयलों से जलाने  लिए आग के नज़दीक  गया , लेकिन इतनी अनाड़ीपन से पहुंचा कि उसका पैर सॉसेज से टकरा गया। यह देख कर पत्नी ज़ोर से चीख़ी -" यह क्या किया तुमने ,इससे अच्छा तो सॉसेज तुम्हारी नाक पर उग जाती और सॉसेज को आग से बहार निकालना चाहा लेकिन तब तक 
सॉसेज आदमी की नाक पर चिपक कर उसके पैरो की उँगलियों तक लटक रही थी। 

" देखा  तुमने मूर्ख औरत , तुम्हारा दूसरा वरदान भी बेकार गया , अब हटाओ इसे " - पति ज़ोर से चीख़ा। 

-बीवी ने कोशिश करी , लेकिन सॉसेज यक़ीनन नाक पर उग आयी थी ।   ठीक है, इसे काट देना चाहिए। हमने भी नाक से थोड़ी चुटकी ली, इतनी बड़ी बात नहीं है!   - लेकिन मैं इसकी अनुमति नहीं दूँगा!   - बेशक, अगर मंज़ूर नहीं तो जीवन भर इसी  सॉसेज के साथ घूमो ।   - मैं ऐसा नहीं कर सकता , दुनिया की सारी दौलत मिल जाने पर भी नहीं ! तुम्हें पता है , अभी तुम्हारे पास एक वरदान हैं , वरदान मानगो कि  सॉसेज वापिस उसी पैर मैं चली जाये। 

- तो फ़िर गाय ,घोड़े , कुत्तों का क्या होगा ?

- अब सब बेकार है।  मैं इतनी बड़ी मूँछ लगा कर नहीं घूम सकता , जल्दी से वरदान माँगों कि सॉसेज वापिस पैर मैं चली जाये । 


क्या होना था और क्या हो गया , बेचारी किसान की पत्नी इसके अलावा और क्या माँग सकती थी कि सॉसेज उसके पति की नाक से गिर जाये। 

उन्होंने सॉसेज को धोया ,पकाया और स्वाद लेकर आख़िर तक खाया। कुछ सालों में उनमे समझौता हो गया और फ़िर वे कभी नहीं लड़ें। 

खाना खाते समय, उनमें अच्छी तरह मेल-मिलाप हो गया और उन्होंने फैसला किया कि वे अब झगड़ेंगे  नहीं, बल्कि लगन से काम करेंगे। उन्होंने मेहनत से  काम किया, समय के साथ उन्होंने एक स्टीयर, एक घोड़ा और एक सुअर हासिल कर लिया, क्योंकि वे मेहनती और मितव्ययी थे।


अनुवादक - इन्दुकांत आंगिरस 

Saturday, September 19, 2020

इश्क़ के सात मक़ाम और इंसान

 

आदम को बनाकर ख़ुदा ऐसी ग़लती कर बैठा जिसका सुधार वो आज तक नहीं  कर पाया , ऊपर से इश्क़ की बीमारी।  इंसान पूरी ज़िंदगी अपनी दो भूख मिटाने में लगा देता है - एक पेट की आग और दूसरी इश्क़ की आग उसे कभी चैन से नहीं बैठने देती। फिल्म डेढ़ इश्क़िया में इश्क़ के सात मक़ाम का ज़िक्र कुछ यूँ हुआ है -

दिलकशी 

उन्स 

मोहब्बत 

अक़ीदत 

इबादत 

जुनून

मौत 


उर्दू शाइरी में आपको इश्क़ पर हज़ारों शे'र मिल जाएँगे , हक़ीक़त  में अगर दुनिया में इश्क़ नहीं होता तो कुछ शाइर कभी शाइर नहीं बन पाते।  अगर इश्क़ नहीं होता तो ये दुनिया कभी की  रसातल में चली जाती। हमारी  दुनिया में इश्क़ है और अच्छी मितदार में है तभी तो कोरोना के चलते भी ये दुनिया अभी मिटी नहीं और मिटेगी भी नहीं। इश्क़ में इंसान दीवाना हो जाता है ,उसकी अक़्ल काम करना बंद कर देती है ,तभी तो अकबर इलाहाबादी ने कहा -

इश्क़  नाज़ुक    मिज़ाज है बेहद 

अक़्ल का बोझ उठा नहीं सकता


इश्क़ में सिर्फ़ अक़्ल ही  काम करना बंद नहीं करती बल्कि हाथ - पाँव भी काम करना बंद कर देते हैं और आदमी निकम्मा बन जाता है , बक़ौल मिर्ज़ा ग़ालिब -


इश्क़ ने 'ग़ालिब' निकम्मा कर दिया 

वर्ना   हम भी आदमी   थे  काम के 


लेकिन इश्क़ करना भी सब के बस की बात नहीं , इश्क़ फ़रमाने के लिए एक आशिक़ का जिगर चाहिए। इश्क़ की राह बहुत पुरख़तर होती है। कैसी कैसी मुश्किलों से गुज़रना पड़ता है , बक़ौल जिगर मुरादाबादी -


ये इश्क़ नहीं आसाँ   इतना ही समझ लीजे

इक आग का दरिया है और डूब के जाना है 


और इस आग के दरिया  को पार करने के लिए किस फ़ौलादी सीने की नहीं बल्कि प्रेम में डूबे एक मासूम  दिल की ज़रूरत होती है जो आजकल ढूंडने से भी नहीं मिलता। सच्चा प्रेम ही इंसान को मजबूत बनाता है और उसे इस बेशरम दुनिया से लड़ने की ताकत देता है। 

कमजोर दिल वाले कभी मोहब्बत नहीं कर सकते , बक़ौल मीर तक़ी मीर -


इश्क़ इक 'मीर ' भारी   पत्थर है 

कब ये तुझ ना- तवाँ से उठता है 



अगर आपने अभी तक इश्क़ नहीं किया है तो ज़रूर करें  और अगर आपका दिल कमजोर है तो भी इश्क़ करें क्योंकि इश्क़ करने से ही दिल मजबूत बनेगा और इस बेशरम दुनिया से आप लड़ पाएँगे । 





Friday, September 18, 2020

ई -पत्रिकाओं का संसार - " राष्ट्रीय चेतना " ई -पत्रिका

 

आज से कुछ वर्षों पहले तक किसी ने कल्पना नहीं की थी कि एक दिन एक  क्लिक पर हमें ई -पत्रिकाएं और ई-पुस्तकें पढ़ने के लिए उपलब्ध हो जाएँगी।  टेक्नोलॉजी के विस्तार के साथ ही यह संभव हो पाया है कि आज हम न केवल भारत में प्रकाशित अपितु विश्व के किसी भी कोने  से प्रकाशित  ई -पत्रिकाएं और ई-पुस्तकें घर बैठे पढ़ सकते हैं। आज सम्पूर्ण विश्व में कोरोना के चलते इन पत्रिकाओं  की महत्ता और भी बढ़ गयी है। ई -पत्रिकाएं और ई-पुस्तकों के बढ़ते प्रचलन का  एक कारण  यह भी है कि प्रिंट पत्रिका की तुलना में ई -पत्रिकाएं और ई-पुस्तकों  के प्रकाशन में कम खर्च होता है , दूसरे इलेट्रॉनिक रूप से इनका संग्रह पाठक को कभी भी उपलब्ध हो सकता है। 

पिछले दिनों ( ६ सितम्बर '२०२० ) बैंगलोर में " राष्ट्रीय चेतना "  ई -पत्रिका  का वर्चुअल लोकार्पण प्रतिष्ठित साहित्यकार डॉ इस्पाक अली के कर कमलों द्वारा संपन्न हुआ। इस अवसर पर विशिष्ट  अतिथि , डॉ अरुण कुमार गुप्ता ने अपने वक्तव्य में समाज एवं राष्ट्र के उत्थान के लिए  शिक्षकों के महत्वपूर्ण योगदान की सराहना करी।  डॉ मैथिली पी. राव ने शोध पत्रिकाओं के आंकड़ों का ज़िक्र करते हुए बताया कि भारत में विदेशों की तुलना में बहुत कम शोध पत्रिकाएं प्रकाशित होती हैं। इस अवसर पर,  डॉ देवकीनंदन शर्मा , डॉ टी जी प्रभाशंकर 'प्रेमी',डॉ विमला एवं डॉ मृदुला चौहान को " राष्ट्रीय चेतना शिक्षक सम्मान २०२० " से सम्मानित किया गया। 

साहित्य , कला और संस्कृति को समर्पित राष्ट्रीय चेतना ई -पत्रिका के प्रबंध  सम्पादक डॉ अरविन्द कुमार गुप्ता ने पत्रिका के उद्देश्यों पर प्रकाश डालते हुए यह विश्वास दिलाया कि राष्ट्रीय चेतना ई -पत्रिका में प्रकाशित सामग्री स्तरयी होगी। इस अवसर पर एक काव्य संध्या का भी आयोजन किया गया जिसमे सर्वश्री ज्ञानचंद मर्मज्ञ , निरुपम निरंजन , कृष्ण कुमार शर्मा , इन्दुकांत आंगिरस एवं डॉ मंजू गुप्ता के नाम उल्लेखनयी हैं। 


हिन्दीतर  प्रदेश बैंगलोर से प्रकाशित  " राष्ट्रीय चेतना "  ई -पत्रिका का प्रयास यक़ीनन प्रशंसनीय है पर सवाल यह उठता है कि जब पहले से ही बहुत सारी ई -पत्रिकाओं का प्रकाशन हो रहा है तो फिर एक और क्यों ? वास्तव में शोध पत्रिकाएं इसीलिए होती है कि हम सहित्य का गहन अध्ययन कर सके और उसके ज़रीये ख़ुद को और इस दुनिया को और ख़ूबसूरत बना सके।  वैसे भी इल्म बाँटने से बढ़ता है और बढ़ते बढ़ते इतना विशाल हो जाता है कि एक शून्य में सिमट कर रह जाता है। बक़ौल फ़िरदौस गयावी -


इल्म की इब्तिदा है हंगामा 

इल्म की इंतिहा है ख़ामोशी


मुझे यक़ीन है कि  राष्ट्रीय चेतना के हंगामें , ख़ामोशी में नहीं सिमटेंगे और इसके  अदब का दीपक इस दुनिया के अँधेरों को मिटाने में ज़रूर कामयाब होगा। अदब के इस सफ़र पर आगे बढ़ते हुए जब कभी भी  क़दम डगमगाए तो जगन्नाथ आज़ाद का यह शे'र  ज़रूर पढ़ें -


इब्तिदा ये थी कि मैं था और दा'वा इल्म का 

इंतिहा ये है कि इस दा'वे पे  शरमाए  बहुत    




NOTE :  राष्ट्रीय चेतना "  ई -पत्रिका  का  लिंक - http://www.rashtriyachetna.com/




Thursday, September 17, 2020

कीर्तिशेष प्रेमचंद कोठारी " आनंद " और उनका रचना संसार



 

कीर्तिशेष प्रेमचंद कोठारी " आनंद "  , बैंगलोर के साहित्य साधक मंच की महाना काव्य गोष्ठियों में निरंतर शिरकत फ़रमाते थे। उनसे मेरी पहली मुलाक़ात इसी पटल पर हुई थी।  लगभग पाँच फुट दो इंच का क़द , गौर वर्ण , पके हुए बाल ,गले में कमानीवाला चश्मा और कुर्ते की जेब  में  चमचमाता एक क़लम । प्रेमचंद कोठारी  बहुत ही विनम्र , सौम्य , शांत  , ख़ुशदिल और ज़िंदादिल   इंसान थे।  काव्य गोष्ठियों में अक्सर अपने सुरीले स्वर में फ़िल्मी धुनों की तर्ज पर आधारित आध्यात्मिक गीतों की प्रस्तुति करते थे। 

लेकिन बाद में इनका रुझान क्षणिकाओं और हाइकू विधा की तरफ़ हो गया। उनके अपने शब्दों में - " काव्य की चर्चा लम्बी नहीं होती। एक  ही वाक्य में उसकी समाप्ति हो जाती  है।  अतः सदा से मेरा ध्यान संक्षेप  की ओर रहा है।  बात  संक्षेप में हो ओर मीठी भी हो।  कहते है ( Short and Sweet  ) , रचना में कटुता न हो लेकिन प्रचलित सामाजिक  ,आध्यात्मिक , राजनैतिक एवं पारिवारिक कुरीतियों एवं बुराइयों पर प्रहार करते समय मैं उग्र भी बन जाता हूँ , यही मेरी कमजोरी है किन्तु कड़वी दवा से ही निदान संभव है। "


वास्तव में प्रेमचंद कोठारी  जिस कमजोरी की बात कर रहे हैं वो उनकी कमजोरी नहीं बल्कि ताकत है।  अपनी रचनाओं  द्वारा उन्होंने सामजिक कुरीतियों को मिटाने का भरसक प्रयास किया है। पेशे से तो आप साड़ियों  के व्यापारी थे लेकिन तन-मन-धन से समाज सेवा में लगे रहते थे।  मैं दो -तीन बार उनकी दुकान पर भी गया। एक बार उन्होंने मुझे भारतीय नारी पर एक अद्भुत गीत सुनाया जिसमे एक कन्या का जीवन ओर विवाह के बाद ससुराल में उसके जीवन  चरित्र का अत्यंत मार्मिक वर्णन था , अफ़सोस कि उनकी किसी भी प्रकाशित पुस्तक  में मुझे वो गीत नहीं मिला।  मेरे विचार से वह गीत उनकी सर्वोत्तम कृति है। एक और दिलचस्प बात उनकी पुस्तकों  के बारे में यह है कि उनकी किसी भी पुस्तक पर मूल्य के स्थान पर  सहयोग राशि लिखा रहता है और सहयोग राशि के आगे लिखा होता है -जो भी दिल कहे।आप अक्सर साहित्यिक मित्रों को अपनी पुस्तकें  मुफ़्त बाँटते थे।    

प्रेमचंद कोठारी , जीवन भर प्रेम के अबूझे रहस्यों को सुलझाने में लगे रहे।  प्रेम विषय पर उन्होंने सूत्र शैली में अनेक रचनाएँ कहीं।  बानगी के तौर पर चंद सूत्र शैली में लिखी रचनाएँ  देखें -


तू अगर तू होना चाहता है प्रेम 

तो तू बीच से हट जा 


तू किसे खोजने जा रहा है प्रेम 

तूने मुझे खोया कहाँ है ?


प्रेम का दीवाना बन प्रेम 

वो तेरा दीवाना बन जायेगा 


यहाँ कोई मालिक नहीं है प्रेम 

सारा संसार मन  का ग़ुलाम है  


जगत से प्रेम सम्बन्ध रख प्रेम 

पर याद रख , प्रेम बंधन न बने 


यहाँ आने जाने वाले सब पराये हैं प्रेम 

इन्हें अपना मानने की भूल मत करना 


उनकी रचनाओं में प्रेम के साथ साथ रहस्यवाद ओर दर्शन भी देखने को मिलता है।  उनकी क्षणिकाएँ पाठक के मन पर गहरा असर छोड़ती है। जन्म ओर मृत्य के घेरों को तोड़ती उनकी रचनाएँ पाठक को  एक दूसरे लोक में ले जाती हैं जहाँ सबका सब कुछ है ओर किसी का कुछ भी नहीं। 

जीवन ओर मृत्यु पर उनकी यह क्षणिका देखें -


यह साँसों का सफ़र

रुक जायेगा 

चलते चलते 

जैसे बुझ जाता है 

दीपक 

जलते जलते 


ऐसे ही एक दिन अदब का यह दीपक भी बुझ गया लेकिन मुझे विश्वास है उनके साहित्य के प्रकाश से इस दुनिया के अँधेरे में कुछ तो कमी आयी होगी। 


प्रकाशित पुस्तकें -

कुछ कुछ में सब कुछ - ११ लघु कृतियाँ 

प्रेम से प्रेम की बातें - सूत्र शैली में रचित कविताएँ

हाइकू ख़ज़ाना - हाइकू विधा में रचित कविताएँ 




जन्म - १२ फ़रवरी ' १९४१ , जालसू कलां -नागौर 

निधन - १६ जनवरी ' २०२० , बैंगलोर 



NOTE : सहयोग के लिए उनके पुत्र श्री विनोद का शुक्रिया । 

Wednesday, September 16, 2020

आम के आम ,गुठलियों के दाम


असर ये तेरे अन्फास -ए मसीहाई  का हैं "अकबर "

इलाहाबाद से    लंगड़ा चला     लाहौर  तक पहुँचा 


अकबर इलाहाबादी के उपरोक्त शे'र में एक लंगड़े आम के सफ़र का ज़िक्र है।   यूँ तो बहुत से फल हम रोज़ खाते हैं लेकिन आम को फलों का राजा कहा जाए तो अतिश्योक्ति न होगी।  भारत में आमों की बहुत-सी किस्मे पाई जाती हैं जिनमे पहाड़ी ,रूमानी ,बादामी ,चौसा अल्फोंजा,लंगड़ा और दशहरी आमों की किस्मे विशेषरूप से उल्लेखनीय हैं। 


मिर्ज़ा ग़ालिब को भी आम बहुत प्रिय थे। एक बार मिर्ज़ा ग़ालिब अपने चंद दोस्तों के साथ बैठ कर आमों का लुत्फ़ उठा रहे थे, तभी उस गली में एक गधा आ गया।  उस गधे ने एक आम के छिलके को सूँघा और आगे बढ़ गया।  यह देख कर मिर्ज़ा ग़ालिब के एक दोस्त ने उनसे फ़रमाया -

 "देखिये  मिर्ज़ा , आम तो गधें भी नहीं खाते "। 

मिर्ज़ा ग़ालिब का हाज़िर जवाबी में जवाब नहीं था , उन्होंने फ़ौरन जुमला कसा -

जी हाँ , गधें ही आम नहीं खाते"।  उनके इस जवाब पर दोस्तों ने ज़ोरदार ठहाके लगाए। 


आमों को लेकर चंद मशहूर मुहावरे भी देखें -


आम के आम ,गुठलियों के दाम 


आम खायें , गुठलियों को न देखें  


आम का आचार और आम पापड़ किसने नहीं खाया होगा।  आम के ज़रीये औरत की जिन्सी खूबसूरती को ब्यान करा जाता रहा है। बक़ौल सागर ख़य्यामी -


आम तेरी ये   ख़ुशनसीबी है 

वार्ना लंगड़ों पे कौन मरता है 


Sunday, September 13, 2020

हिन्दी और हिन्दी दिवस


हिन्दी दिवस फ़िर आ गया और फ़िर हर तरफ़ हिन्दी भाषा से सम्बंधित कार्यक्रम आयोजित होने लगें हैं।  यह तो सर्वविदित है कि १४ सितम्बर भारत में हिन्दी दिवस के रूप में मनाया जाता है , लेकिन प्रश्न  यह उठता है कि हमे हिन्दी दिवस मनाने की आवश्यकता ही क्यों पड़ती है ? भारत पर २०० वर्ष तक राज करने के बाद अँगरेज़ तो वापिस चले गए लेकिन अँगरेज़ी यही छोड़ गए।  जब हिन्दी भाषा को राज भाषा का दरजा दिया गया तो भारत  की दूसरी भाषाओं के प्रतिनिधियों ने इसका विरोध किया और फलस्वरूप अँगरेज़ी को भी राज  भाषा का दरजा देना पड़ा।  इसी लिए किस भी सरकारी दफ़्तर में सभी काग़ज़ात  हिन्दी और  अँगरेज़ी भाषा में लिखे जाते हैं , मतलब जिसको हिन्दी समझ में न आये वो अँगरेज़ी में पढ़ ले और जिसको अँगरेज़ी समझ में न आये वो हिन्दी में पढ़ ले।शायद इसीलिए आजकल अँगरेज़ी भाषा पहली कक्षा से ही पढाई जाती है और अनेक  स्कूलों में तो स्थिति  यह है कि हिन्दी भाषा  अँगरेज़ी के माध्यम से सिखाई जाती है। 

आज विश्व में हिन्दी तीसरे स्थान पर सबसे अधिक बोले जाने वाली भाषा है लेकिन इसको अभी तक UNO  से मान्यता नहीं मिली है। वास्तव  में कोई भी भाषा  या संस्कृति जब तक दूसरी भाषाओँ और संस्कृतियों के साथ आदान- प्रदान नहीं करती तब तक उसका विकास संभव नहीं।  भाषा एक बहती हुई नदी की तरह होती है , अगर वह अपनी ऐंठ में राह में मिलते कंकरों को अपने साथ नहीं लेगी तो एक दिन सूख जायेगी। 

हिन्दी भाषा में आज भी दूसरी भाषाओं के बहुत से शब्द हैं , जिन्हें  हिन्दी से अब कोई चाह कर भी अलग नहीं कर सकता। हिन्दी के लिए यह एक शुभ संकेत है और इसीलिए हिन्दी भाषा का प्रचार-प्रसार दिनोदिन बढ़ता जा रहा है।  

हर भाषा में अपना एक अलग मिठास और रचाव होता है, उसकी तुलना दूसरी भाषा से नहीं करनी चाहिए।  वास्तव  में किसी भी भाषा को सीखने के लिए पहले उससे प्रेम करना पड़ता हैं।   

भाषा  के सम्बन्ध में मलिक मोहम्मद जायसी का यह दोहा देखें -

तुर्की , अरबी , हिंदवी भाषा जेती आहि

जा में मारग प्रेम का, सबै सराहैं   ताहि 


इसलिए भाषा से पहले प्रेम आ जाता है।  हिन्दी सीखने का यह मतलब बिल्कुल नहीं है कि हम दूसरी भाषाओं से बैर रखे।  भाषा का सम्प्रेषण होना ज़रूरी है , अगर सुनने वाले को अँगरेज़ी नहीं आती तो उसके सामने अँगरेज़ी बोलने से क्या लाभ।  हमारा मुख्य उद्देश्य सम्प्रेषण होना चाहिए , इस सिलसिले में बूअली कलंदर का ये शे'र देखें -


मैं इसको दर हिन्दी ज़ुबाँ इस वास्ते कहने लगा 

जो फ़ारसी समजे नहीं , समजे इसे ख़ुश होकर 

Friday, September 11, 2020

फिर छिड़ी रात बात फूलों की


 

फिर छिड़ी रात बात फूलों की

रात है या    बरात फूलों की

फूल के हार   फूल के गजरे

शाम फूलों की रात फूलों की


मख़दूम मोहिउद्दीन के उपरोक्त अशआर में फूलों में ढ़लते मिसरों से यह क़ायनात भी खिल उठेगी। फूलों का ज़िक्र छिड़ जाये तो हर दर्द मुस्कराने लगता है। उर्दू शाइरी में फूलों पर हज़ारों शे'र मिल जायेंगे। हर फूल की रंगत अलग होती है और उसकी ख़ुश्बू भी और  हर फूल आशिक़ों के दिल की तरह हज़ार रस्ते रखता है। कोई अपने महबूब को फूलों का नज़राना पेश करता है तो किसी का  महबूब ही फूल की मानिंद होता है। अक्सर किसी पुरानी किताब के पन्नों में कोई सूखा हुआ फूल या फूल की पंखुड़ी मिल जाए तो दिल में एक हूक-सी उठती है , किसी की मुहब्बत की दास्ताँ ताज़ा हो जाती है। सूखे हुए फूलों में नमी छाने लगती है और अहमद फ़राज़ का यह शे'र ज़हन में उभर जाता है -

अब के हम बिछड़े तो शायद कभी ख़्वाबों में मिले

जिस     तरह    सूखे हुए    फूल     किताबों में मिले



हमारे देश में प्रेमी द्वारा प्रेमिका को फूलों का तोहफ़ा देने का प्रचलन इतना अधिक नहीं लेकिन विदेशों में इसका प्रचलन बहुत है। अपने बुदापैश्त के प्रवास के दौरान इसका अनुभव किया , वहाँ प्रेमी द्वारा प्रेमिका को दिया जाने वाला फूलों का  तोहफ़ा ही सबसे अधिक क़ीमती होता है। इसी सिलसिले में शकेब जलाली का यह शे'र देखें -


आज भी शायद कोई फूलों का तोहफ़ा भेज दे

तितलियाँ मंडरा रही हैं काँच के गुल -दान पर



अनेक शाइरों ने औरत की ख़बसूरती को बयाँ करने के लिए फूलों का ही सहारा लिया। मीर तक़ी मीर का यह ख़ूबसूरत शे'र देखे -



नाज़ुकी उसके लब की क्या कहिये

पंखुरी       इक  गुलाब   की   सी है



भारतीय संस्कृति में भी फूलों की बहुत महत्ता है और अनेक अवसरों पर फूलों का प्रयोग किया जाता है। जीवन और मरण , ख़ुशी और ग़म ,मंदिर हो या मस्जिद लगभग हर अवसर एवं जगह पर फूलों की ज़रूरत पड़ती है। किस भी व्यक्ति का सम्मान भी फूलों से ही किया जाता है , विशेषरूप से राज नेताओं का सम्मान। इसलिए हम कह सकते हैं कि राजनीति भी फूलों से अछूती नहीं लेकिन फूलों के इन सम्मानों के पीछे भी एक राजनीति छुपी होती हैं। फूलों की सियासत के बारे में शकील बदायुनी का यह शे'र देखें -

काँटों से गुज़र जाता हूँ दामन बचा कर

फूलों की सियासत से मैं बेगाना नहीं हूँ


रोज़ करोड़ों फूल अपनी अपनी डालियों से टूटकर इधर-उधर बिखर जाते  हैं। कोई फूल देवता पर चढ़ाया जाता हैं तो कोई किसी की मज़ार पर लेकिन फूलों से उनकी अभिलाषा के बारे में कोई नहीं पूछता। लेकिन जब प्रसिद्द साहित्यकार माखन लाल चतुर्वेदी ने फूलों से उनकी अभिलाषा पूछी तो जवाब कुछ यूँ आया -



चाह नहीं मैं सुरबाला के गहनों में गूँथा जाऊं

चाह नहीं प्रेमी माला में बिंध, प्यारी को ललचाऊँ

चाह नहीं सम्राटों के शव पर हे हरी डाला जाऊँ

चाह नहीं देवों के सर पर चढ़ भाग्य  पर इतराऊं

मुझे तोड़ लेना बनमाली उस पथ पर देना तुम फेंक

मातृभूमि पर शीश चढाने जिस पथ जाये वीर अनेक



जब तक ये दुनिया रहेगी फूलों के सिलसिले कभी खत्म न होंगे।फूल अपने रंगों और ख़ुश्बू से इस दुनिया को हमेशा सजाते संवारते रहेंगे।जब तक यह दुनिया रहेगी फूलों का खिलना भी बंद न होगा ,बक़ौल मख़दूम मोहिउद्दीन -



फूल खिलते रहेंगे दुनिया में

रोज़ निकलेगी बात फूलों की







Thursday, September 10, 2020

Eperfa - स्ट्रॉबेरी का पेड़ ( हंगेरियन कविता का हिन्दी अनुवाद )




Eperfa 

स्ट्रॉबेरी  का पेड़ 




स्ट्रॉबेरी  का पेड़ है हमारे घर के सामने 

खड़े हैं हम तीनो उसी पेड़ की  छावँ में 

हम तीनो    मिलजुल    कर  नाचेंगे अब 

आओ यार जल्दी  जल्दी   नाचे हम सब 




कवि - Hervay Gizella 

जन्म - 10 अक्टूबर ' 1934- Makó

निधन -  02 जुलाई ' 1982 - Budapest 


अनुवादक - इन्दुकांत आंगिरस 


Tuesday, September 8, 2020

कीर्तिशेष उर्मिल सत्यभूषण - मैं धरा पर प्यार के कुछ बीज बोना चाहती हूँ



बैसाखियों को छोड़ कर चलने की ठान ली 

इस फ़ैसले में   हौसला मेरी   अना  का था 

पत्थर के शहर में भी   मैं पत्थर  न हो सकी 

शायद कमाल यह मेरी कविता कला का था 


जी हाँ , शायद  यह उर्मिल सत्यभूषण की कविता की ऊष्मा ही थी जिसके रहते वो एक बर्फ़ की नदी को मुस्कुराते हुए पार कर गयी। जब मेरी उनसे पहली मुलाक़ात हुई तो उनकी बैठक में दीवार पर टँगी उनके पति स्वर्गीय सत्यभूषण की तस्वीर ने मुझे समझा दिया कि उर्मिल जी एक विधवा है।  उनकी तीनो संताने , कनुप्रिया , नवनीत और वेणु उस समय बहुत छोटे थे। पहली ही मुलाक़ात में हम अच्छे साहित्यिक मित्र बन गए थे। उसके बाद तो उनके साथ मुलाक़ातों का एक अनवरत सिलसिला चलता रहा।  जब मैंने और शिवन लाल  जलाली ने मिलकर परिचय साहित्य परिषद् ( दिल्ली की एक स्थापित साहित्यिक संस्था ) स्थापना करी तो उर्मिल सत्यभूषण उसकी अध्यक्ष बनी और इस पद का निर्वाह उन्होंने अपने जीवन के अंतिम चरण तक किया।  उर्मिल जी सरकारी स्कूल में अध्यापिका थी और एक जुझारू महिला थी। लेखन तो उनके रगों  में बहता था , मैं जब  कभी उनके घर जाता तो अक्सर उनको कुछ न कुछ लिखते हुए पाता। उनसे कई बार अंतरंग बाते भी होती थी लेकिन अपनी  पीड़ा को हमेशा अपने सीने में छुपाये रखती थी। जिन्होंने उनकी आत्मकथा " हमारे पत्र पढ़ना " पढ़ी हो , वो लोग समझ सकते हैं कि उन्होंने अपने जीवन में कितने दुःख झेले होंगे , लेकिन दुखों के पहाड़ टूटने के बावजूद उर्मिल सत्यभूषण नहीं टूटी , उन्होंने अपनी क़लम को ही अपना जीवन साथी बना लिया।  

जनाब बाल स्वरूप राही का एक शे'र याद आ रहा है -

हम पर दुःख के पर्वत टूटे तो हमने दो चार कहे 

उस पर क्या गुज़री होगी जिसने शे'र हज़ार कहे 


उर्मिल सत्यभूषण ने लगभग साहित्य की हर विधा में रचनाएँ लिखी - कविता , कहानी , नाटक , बाल साहित्य , ग़ज़ल ,लघु कथा , गीत आदि वक़्त के साथ साथ उनका लेखन भी बढ़ता रहा , लेखन के साथ साथ आपका चित्रकारी में भी दखल था।  उनकी कई पुस्तकों में उनके बनाये स्केचेस देखे जा सकते हैं।  एक महिला होने के कारण महिलाओं की समस्याओं को उन्होंने बहुत गहराई से महसूस किया और उनकी पीड़ा को अपनी कृतियों में उतारा। स्त्री विमर्श पर उन्होंने ख़ूब लिखा।  उनकी रचनाएँ देश की साहित्यिक एवं प्रतिष्ठित पत्र पत्रिकाओं में निरन्तर प्रकाशित होती रहती थी।  आकाशवाणी और दूरदर्शन से भी उन्होंने कई बार अपनी रचनाएँ प्रस्तुत करी। दिल्ली की कई प्रतिष्ठित साहित्यिक संस्थाओं से उनका जुड़ाव रहा जिनमे परिचय साहित्य परिषद् , अखिल भारतीय लेखिका संघ , ऋचा ,  हल्क़ा-ए-तश्‍नगाने अदब और महिला संगम   के नाम उल्लेखनीय हैं।  

२००६ में ,  जब मैं नौकरी के सिलसिले में बैंगलोर आ गया तो उर्मिल जी से मुलाक़ाते कम हो गयी। लेकिन कुछ  ऐसा संयोग बना कि उनसे बैंगलोर में भी कई मुलाक़ाते हुई।  उनके सुपुत्र श्री नवनीत , बैंगलोर  में ही रहते है और उर्मिल जी अपने दिल के इलाज के सिलसिले में अक्सर बैंगलोर आने जाने लगी। बैंगलोर के जयदेव इंस्टिट्यूट ऑफ़ हार्ट  में उनके दिल का इलाज हुआ और इस सिलसिले में उन्हें अस्पताल में  काफी वक़्त गुज़ारना पड़ा।  अपने अस्पताल के अनुभवों और दिल कि बीमारी के सम्बन्ध में उन्होंने अँगरेज़ी भाषा में  "In The Temple of My Heart  " पुस्तक की  रचना करी जिसका विमोचन जयदेव इंस्टिट्यूट ऑफ़ हार्ट  के निदेशक डॉ मंजुनाथ के कर कमलों द्वारा जयदेव इंस्टिट्यूट ऑफ़ हार्ट  के ऑडोटोरियम में ही संपन्न हुआ।  यह विमोचन अपने आप में अनूठा था जिसमे साहित्यकारों से ज़्यादा मेडिकल डॉक्टर्स उपस्थित थे। कुछ वर्ष पहले उन्होंने अपने बैंगलोर के निवास पर एक काव्य संध्या का आयोजन किया जिसमे शामिल कविगण ज्ञानचंद मर्मज्ञ , डॉ रणजीत ,  मंजू वेंकट , सुधा दीक्षित , केशव कर्ण,  इन्दुकान्त आंगिरस   के नाम उल्लेखनीय है।  उनके साथ पढ़ने का यही मेरा आखिरी अवसर था। ज़िंदगी से निरंतर लड़ने वाली इस लेखिका ने जीवन से कभी हार नहीं मानी। दिल कि बीमारी भी उनके कवि हृदय को मुरझा नहीं पाई , उन्ही का एक शे'र देखे -


तम से घबराओं न 'उर्मिल' अब सहर आने को है 

भोर   का सूरज अँधेरों  को   निगलता    जाएगा 


उर्मिल सत्यभूषण एक बहुत ही सहज ,सरल , सहृदय , ख़ुशदिल और ज़िंदादिल इंसान थी। किसे मालूम था  समाज की पीड़ा को अपनी रचनाओं में उकेरने वाली लेखिका एक दिन सबको छोड़ कर चली जायेगी। दिसंबर २०१९ में , मैं किसी सिलसिले में दिल्ली में ही था , उनसे मिलने का मन भी था लेकिन किसी कारणवश संभव नहीं हो पाया। जनवरी के पहले हफ़्ते में बैंगलोर लौट आया और कुछ दिनों के बाद ही उनके निधन की सूचना मिली। आख़िरकार धरती पर प्यार के बीज बोने वाली साहित्य की इस मालिन को गहरी नींद आ ही  गयी, 

उनके ये शे'र देखें -

मैं धरा पर प्यार के कुछ बीज बोना चाहती हूँ 

शूल जैसी   ज़िंदगी    में फूल होना चाहती हूँ 

मैं तुम्हारे साथ मिल कर इस धरा को लूँ सजा 

बाद इसके  ही मैं गहरी नींद सोना चाहती हूँ 


उर्मिल सत्यभूषण की प्रकाशित पुस्तकें -

काव्यसंग्रह - कस्तूरी गंध , जागो मानसी , दर्द के दरीचे , तुम्हारे नाम , लम्हों की ख़ुश्बू

कथा संग्रह - अब और नहीं , मिट्टी की टीस, मैं छू   लूँगी  आकाश 

बाल कविता - रौशनी की नीवं - भाग -१,२,३,४ 

एकांकी - इतिहास नया लिख जाऊँगी

बाल नाटक - आओ , सुनें तारों की बातें 

अंग्रेजी की पुस्तकें - Gull & Doll , In the Temple of My Heart , Massiha of Humanit


जन्म - बीसवीं शताब्दी के चौथे दशक में गुरदासपुर ( पंजाब )

निधन - १२ जनवरी '  २०२०, दिल्ली 



NOTE: उनकी सुपुत्री कनुप्रिया और जनाब सीमाब सुल्तानपुरी का उनके सहयोग के लिए शुक्रिया। 

कीर्तिशेष उर्मिल सत्यभूषण को श्रद्धांजलि देते  हुए दूरदर्शन,दिल्ली द्वारा एक रिकॉर्डिंग प्रस्तुत की गयी जो अब यूट्यूब पर भी उपलब्ध है - 

https://youtu.be/oGVBn3lLJbQ



Sunday, September 6, 2020

Sveika moteris ir velnias - राक्षस की स्वस्थ पत्नी ( लिथुआनिअन लोक कथा का हिन्दी अनुवाद )

Sveika moteris ir velnias

राक्षस  की स्वस्थ पत्नी


प्राचीन समय की बात है , किसी को भी स्वस्थ करने की कला में निपुण एक औरत कही रहती थी।  एक दिन एक आदमी उसके पास आया। वह उस औरत से प्रार्थना करने लगा कि वह उसके साथ उसके घर चले क्योंकि वहाँ पर काफ़ी कुछ ग़लत घटित हो रहा था। वह औरत मान गयी और वे एक बड़े महल में पहुँचे।  वह आदमी  उस औरत को उस कमरे में ले गया जहाँ उसकी बीमार पत्नी लेटी हुई थी।  उस औरत ने उसकी पत्नी को कुछ दवा खिलाई और मरीज़ जल्दी ठीक हो गया।  उस  आदमी ने उस औरत से पूछा - 

" मैं आपको इस  सेवा के लिए कितने पैसे दूँ ? "

औरत ने कहा कि उसे कुछ नहीं चाहिए।  उस आदमी ने एक टोकरी उठाई और दूसरे कमरे में चला गया।  जब वह वापिस आया तो उस टोकरी में कुछ कोयले के टुकड़े पड़े थे। उसने वे  टुकड़े उस औरत को दिए और उसे दरवाज़े तक छोड़ने आया।  औरत का सारे कोयले उठाकर घर ले जाना एक बोझ-सा  लगा और उसने बहुत से कोयले वहीं ज़मीन पर गिरा दिए। वह बहुत थोड़े-से कोयले लेकर अपने घर पहुँची । घर पहुँच कर उसने देखा कि कोयले के टुकड़े सोने में बदल चुके थें। वह ख़ुशी से झूम उठी और उसके बाद आनंद से अपना जीवन व्यतीत करने लगी। 



अनुवादक - इन्दुकांत आंगिरस 


Saturday, September 5, 2020

Róka fogta csuka ,csuka fogta róka - लोमड़ी ने मछली को पकड़ा , मछली ने लोमड़ी को पकड़ा ( हंगेरियन लोक कथा का हिन्दी अनुवाद )

 Róka fogta csuka ,csuka fogta róka 

लोमड़ी ने मछली को पकड़ा  , मछली  ने लोमड़ी को पकड़ा  


             प्राचीन समय की बात है , एक मोची ने एक लोमड़ी को झील किनारे देखा जोकि मछलियों को पकड़ने की कोशिश कर रही थी।  एक मछली को वहाँ तैरता देख लोमड़ी ने उसे झपट्टा मार कर पकड़ लिया , लेकिन मछली ने भी अपना बड़ा मुहँ खोला और लोमड़ी की पूँछ अपने दाँतों में दबा ली।  कोई भी एक दूसरे  को छोड़ने के लिए तैयार नहीं था। मोची को यह बड़ा हास्यप्रद लगा और उसने सोचा कि शायद राजा मात्याश भी इनको इस रूप में देख कर आनंदित होंगे। 

मोची उन दोनों को पकड़ राजा मात्याश को दिखाने चला।  वह उनको राजा के पास ज़रूर ले जा पाता अगर राजमहल के आगे खड़े पहरेदार ने उसे रोका नहीं होता। " मैं तुम्हें राजा के पास तभी जाने दूँगा जब तुम मुझे राजा से मिले इनाम में से आधा  मुझे देने का वा'दा करोगे  " - पहरेदार  ने मोची से कहा।  

मोची किसी भी क़ीमत पर इनाम पाना चाहता था इसलिए उसने पहरेदार की शर्त मान ली। लेकिन राजा के कमरे के आगे खड़े पहरेदार ने भी पहले वाले पहरेदार की तरह उससे आधे इनाम की माँग करी।  जब मोची ने इस पहरेदार से भी आधा इनाम  देने का वा'दा कर लिया तब कही जा कर वह राजा के सामने पहुँच  पाया। 

" तुम क्या लाये  हो मेरे लिए "   - राजा ने मोची से पूछा। 

लोमड़ी ने मछली को पकड़ा , मछली  ने लोमड़ी को पकड़ा और मोची ने इन दोनों को  पकड़ा " - मोची ने कहा,जोकि एक जर्मन कारीगर था और उसे अच्छी हंगेरियन बोलनी नहीं आती थी। 

राजा ज़ोर से हँसा , एक तो इस अजीबो-गरीब उपहार के लिए , दूसरे इस हास्यप्रद वाक्य पर। राजा ने मोची को इनाम में  एक सौ सोने की मोहरें देनी चाहीं , लेकिन मोची ने अत्यंत नम्रता से राजा से गुज़ारिश करी कि वह उसको एक सौ सोने की मोहरों के जगह एक सौ कोड़ों की सज़ा सुना दें।  

राजा को लगा कि उन्होंने  कुछ ग़लत सुन लिया लेकिन मोची ने अपनी प्रार्थना  दोहराई । 

" अगर तुम्हें कोड़ें खाने  इतने ही पसंद हैं तो मैं तुम्हें एक सौ कोड़ों की सज़ा सुनाता हूँ " - राजा ने मोची से कहा। 

" महाराज ,कोड़े मुझे इतने पसंद  नहीं , वास्तव में आपके दो पहरेदार इसके लिए बेताब हैं।  आपके पास भेजने से पहले उन्होंने मुझसे यह शर्त रखी कि आपसे मिलने वाले इनाम में से मुझे आधा इनाम उनको देना पड़ेगा" - मोची ने मुस्कुराकर राजा से कहा। 

 मोची के जवाब से मात्याश राजा  ख़ुश हो गये और उन्होंने  मोची को बहुत-सा धन दिया जबकि  मोची को दिए गए इनाम में से आधे आधे इनाम के लिए दोनों पहरेदारों को मिले ५० - ५० कोड़ें। 



अनुवादक - इन्दुकान्त आंगिरस 

Thursday, September 3, 2020

Dr.Imre Bangha - Man of Letters ( हंगेरियन- हिन्दी विद्वान )


 

विदेशी हिन्दी विद्वानों की श्रृंखला  में हंगरी के हंगेरियन - हिन्दी विद्वान डॉ इमरे बंगा का नाम किसी परिचय का मोहताज  नहीं। १९९० में केंद्रीय हिन्दी निदेशालय , आगरा से हिन्दी भाषा में डिप्लोमा की उपाधि पाने के बाद आप की रूचि हिन्दी भाषा के प्रति अधिक गहरी हो गयी। हिन्दी के साथ साथ आपको बृज भाषा में भी दिलचस्पी थी और वृन्दावन में लगभग एक वर्ष तक रहकर आपने बृज भाषा का गहन  अध्ययन किया। 

तदुपरांत  १९९८ में आप ने विश्व भारती शान्ति निकेतन विश्वविद्यालय ,कोलकाता  से " आनंदघन के कवित्तों में उपमामूलक अलंकारों की योजना " विषय पर पी एचडी की उपाधि हासिल करी।  आप की मातृभाषा तो हंगेरियन है लेकिन आप हंगेरियन भाषा के अलावा अँगरेज़ी , संस्कृत , बंगाली ,उर्दू ,गुजराती , बृज भाषा , इतालवी ,फ्रेंच और स्पेनिश  भाषा के भी  ज्ञाता हैं।  इन भाषओं के अलावा आप जर्मन ,लेटिन , मराठी , उड़िया , फ़ारसी ,पुर्तगाली ,पंजाबी ,रोमानियन ,रूसी और तेलगु भाषओं में भी दख़ल रखते  हैं।

वैसे तो मेरी डॉ इमरे बंगा से दिल्ली में कई बार मुलाक़ात हुई हैं लेकिन एक दिलचस्प मुलाक़ात मुझे आज भी याद है।  मैं अपनी पत्नी के साथ रेलगाड़ी से दिल्ली से मथुरा जा रहा था। अभी मैं अपनी आरक्षित  सीट पर जा कर बैठा ही था कि कुछ पलों  के बाद ही मैंने  एक विदेशी को देखा जोकि बैठने के लिए स्थान ढूंड रहा था , ढ़ीला- ढ़ाला कुरता पयजामा , पैरों में चमड़े के सैंडल और काँधे पर लटका एक कपडे का बैग। मैंने दूसरी नज़र  में ही उन्हें पहचान लिया और उन्हें हंगेरियन भाषा में सम्बोधित कर अपने पास बुलाया। इस आकस्मिक मुलाक़ात से हम दोनों ही ख़ुश थे। उस दिन उन्हें जुकाम हो रहा था और उन्होंने मुझसे कहा - "अजीब बात है कि गर्मियों में भी जुकाम हो जाता है "।  कुछ देर इधर - उधर की बात करने के बाद उन्होंने अपने बैग से हंस पत्रिका निकाली और उसमे  प्रकाशित हंगेरियन कथाकार  Nagy Lajos   की    हंगेरियन  कहानी A  három éhenkórász   का हिन्दी अनुवाद " तीन भुक्कड़  "  पढ़ने लगे और मुझसे बोले " देखो कैसा इत्तफ़ाक़ है कि मैं अनुवादक के सामने बैठ कर ही उसका अनुवाद पढ़ रहा हूँ "।   उन्होंने मेरे सुन्दर अनुवाद के लिए मुझे बधाई भी दी। 

डॉ इमरे बंगा  भारत के कई विश्वविद्यालयों में गेस्ट लेक्चरर के रूप में शिरकत फ़रमा चुके हैं , भारत के अलावा इन्होने विश्व के कई प्रतिष्ठित विश्वविद्यालयों में भी अपने पेपर प्रस्तुत किये हैं। हिन्दी साहित्य एवं भारत हंगेरियन सांस्कृतिक संबंधों पर आपकी  साहित्यिक उपलब्धियों को विशेष रूप से सराहया गया है।  फ़िलहाल आप  Faculty of Oriental Studies  , University of Oxford  में असोसिएट प्रोफेसर के पद पर कार्य कर रहे है। डॉ इमरे बंगा को अगर Man of Letters कहा जाये तो अतिश्योक्ति नहीं होगी। आपने हिन्दी , बंगाली ,उर्दू और गुजराती भाषा  के साहित्य का हंगेरियन अनुवाद  का अतुलनीय कार्य किया है। 

इनके  द्वारा  बृज भाषा से हंगेरियन भाषा में अनूदित " आनंदघन " पुस्तक काफ़ी चर्चित रही है , मुझे ख़ुशी है कि हंगेरियन  सांस्कृतिक केंद्र ,दिल्ली में आयोजित इस पुस्तक के विमोचन के कार्यक्रम में , मैं सम्मिलित था। 



अधिक जानकारी के लिए देखें - http://www.orinst.ox.ac.uk/staff/isa/ibangha.html


Wednesday, September 2, 2020

श्री बी एम डी अग्रवाल और उनकी NIPA

     

    एक बाजू उखड़ गया जब से 

    और ज़्यादा वज़न   उठता हूँ 


जी हाँ , श्री  बी एम डी अग्रवाल को देख कर , दुष्यंत  कुमार का उपरोक्त शे'र ज़ेहन  में ताज़ा हो गया था।  कुछ देर को हतप्रभ-सा खड़ा रहा लेकिन फिर यक़ीन करना ही पड़ा कि जो शख़्स मुझसे इतनी गर्मजोशी से अपना दाहिना  हाथ मिला रहा है उसका बायाँ  हाथ आधा कटा हुआ है।  बी एम डी अग्रवाल पेशे से वकील थे लेकिन एक सहृदय कवि व नाटकों में विशेष दिलचस्पी रखते थे। मेरी उनसे पहली मुलाक़ात गुलमोहर पार्क,दिल्ली में स्थित उनके दफ़्तर में ही हुई थी।  नीचे गैराज में उन्होंने अपनी वकालत का दफ़्तर खोल रखा था और उसी ब्लॉक में ऊपर उनका घर था। पहली ही मुलाक़ात में उन्होंने अपनी चंद कवितायें मुझे सुनाई।  

आप ने NIPA ( National Institute of Performing Arts ) नाम से एक संस्था खोल रखी थी जिसके तहत  हर वर्ष १४ नवंबर से १९ नवंबर तक इंटरनेशनल चिल्ड्रन थिएटर फ़ेस्टिवल का आयोजन करते थे , जिसमे भारत के दूसरे प्रांतो के थिएटर ग्रुप के साथ  साथ विदेशों से पधारे थिएटर ग्रुप भी अपनी कला का प्रदर्शन करते थे।इस उत्सव की तारीख़ १४ नवंबर से १९ नवंबरऔर स्थान कमानी ऑडोटोरियम में कभी बदलाव नहीं आता था।    जब मैंने उनसे पूछा कि यह उत्सव नवंबर महीने की इन्ही तारीखों में क्यों आयोजित किया जाता है तो उन्होंने मुझसे कहा कि १४ नवंबर पंडित जवाहरलाल नेहरू का जन्म दिन है और १९ नवंबर श्रीमती इंदिरा गाँधी का जन्म दिन है , सो बाप से बेटी तक का सफ़र।  

जब उन्हें पता चला कि मैंअँगरेज़ी अखबार स्टेट्समैन में  काम करता हूँ और दूसरे अख़बारों में भी मेरी जान पहचान है तो उन्होंने मुझसे इसरार किया कि मैं NIPA  द्वारा आयोजित इंटरनेशनल चिल्ड्रन थिएटर फ़ेस्टिवल  की कवरेज कर दूँ जिसके लिए मैंने सहर्ष हामी भर दी क्योंकि उन दिनों दिल्ली के लगभग सब अख़बारों से , मैं किसी न किसी रूप में जुड़ा हुआ था और मेरे लिए यह कोई कठिन कार्य नहीं था। 

दिल्ली में रहने तक मैंने कुछ सालों तक उनके इस कार्य को किया लेकिन बैंगलोर आने के  बाद यह सिलसिला टूट गया।  उनके द्वारा आयोजित कार्यक्रमों की जानकारी मुझे ई-मेल   द्वारा मिलती रही।  एक दिन उन्होंने ई-मेल द्वारा ही मुझे सूचित किया कि उनकी पत्नी का देहावसान हो गया है और अब आप दिल्ली छोड़ कर बनारस में रहने लगे है।  उन्होंने NIPA के बैनर पर बनारस में भी कुछ कार्यक्रम आयोजित किये। ६ नवंबर  २०१५ को मेरे पास उनकी आखिरी ई-मेल  आयी थी जिसमे बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के वार्षिक समारोह के अवसर पर NIPA द्वारा आयोजित इंटरनेशनल चिल्ड्रन थिएटर फ़ेस्टिवल का निमंत्रण पत्र संलग्न था। 

पिछले पाँच वर्षों में उनकी कोई ई-मेल नहीं आयी तो मुझे चिंता हुई और मैंने उन्हें फ़ोन लगा दिया , फ़ोन की घंटी बजी और  एक टूटी-फूटी आवाज़ मेरे कानों में पड़ी,  जो थी तो  बी एम डी अग्रवाल साहब की ही  लेकिन वक़्त के थपेड़ों ने उसे बिलकुल जर्जर बना दिया था। जब मैंने उनसे कुशल-क्षेम पूछी तो जवाब आया - " बस वक़्त कट रहा हैं "  बातचीत से मालूम हुआ कि बनारस वाला उत्सव आखिरी उत्सव था।सुनकर दुःख हुआ कि जो शख़्स एक बाजू होते हुए भी ज़्यादा वज़न उठाता था,आज वक़्त के हाथों कट रहा है। आज NIPA को लोग भूल गए हैं और भूल गए हैं बी एम डी अग्रवाल को और  दुनिया अपनी रफ़्तार से आगे बढ़ रही है। 

मुझे राजगोपाल सिंह का यह शे'र फ़िर याद आ गया-

चढ़ते सूरज को लोग जल देंगे

जब ढलेगा तो मुड़ के चल देंगे  




प्रकाशित पुस्तकें -

लम्हें  -  कविता संग्रह 

Down Memory Lane - Memoirs 






Tuesday, September 1, 2020

Dr. Köves Margit - हंगेरियन - हिन्दी विदुषी



 जैसा कि मैंने पहले भी ज़िक्र किया था कि हिन्दी भाषा और साहित्य को समृद्ध करने में कई विदेशी विद्वानों का भी महत्वपूर्ण योगदान रहा है। इसी कड़ी में आज आपका परिचय हंगेरियन एवं हिन्दी भाषा की विदुषी   डॉ कौवेश मारगित से करवा रहा हूँ। आपकी मातृभाषा तो हंगेरियन है लेकिन हंगेरियन के अलावा आप अँगरेज़ी , तुर्की , जर्मन , रूसी और हिंदी भाषा की भी मर्मज्ञ  हैं।

डॉ कौवेश मारगित कई वर्षों से भारत में रह रही हैं और जवाहरलाल नेहरू विश्विद्यालय एवं दिल्ली विश्विद्यालय में बरसों से हंगेरियन भाषा के प्रोफ़ेसर के रूप में कार्यरत हैं। हिन्दी भाषा से आपका विशेष लगाव हैं या यूँ समझिये कि हिन्दी भाषा से उन्हें  अगाध  प्रेम हैं। हिन्दी भाषा के प्रति अपने प्रेम को आप कभी कभी यूँ भी उजागर करती हैं , उन्ही के शब्दों में - " मैं तो हिन्दी से बहुत प्रेम करती हूँ लेकिन हिन्दी मुझसे उतना प्रेम नहीं करती "।   हिन्दी भाषा उन्हें उतनी ही प्रिय हैं जितनी हंगेरियन , अगर हंगेरियन उनकी मातृभाषा हैं तो हिन्दी उनके हृदय की भाषा है। 

मेरी उनसे पहली मुलाक़ात एक शाम  हंगेरियन सांस्कृतिक केंद्र ,दिल्ली में ही हुई थी। उन दिनों मैं   हंगेरियन सांस्कृतिक केंद्र में  हंगेरियन भाषा सीख रहा था और हंगेरियन भाषा में सर्टिफिकेट कोर्स पूरा कर चुका था।  जब मैंने उन्हें अपने बारे में बताया तो उन्होंने मुझे अगले दिन अपने घर पर आने के लिए आमंत्रित किया।  उन दिनों आप JNU के कैंपस में रहती थी।  मैं निर्धारित समय पर उनके घर पहुँच गया।  उन्होंने मेरी हंगेरियन भाषा की परीक्षा ली और उसकी बिना पर ही मुझे दिल्ली विश्विद्यालय में हंगेरियन डिप्लोमा कोर्स में दाखिला मिल गया ।  उन दिनों Department of Slavonic and  Finno - Ugrian Studies  दिल्ली के साउथ कैंपस में हुआ करता था। हंगेरियन भाषा में डिप्लोमा कोर्स समाप्त होने पर मुझे हंगेरियन भाषा के गहन अध्ययन के लिए इंडो हंगेरियन कल्चरल एक्सचेंज प्रोग्राम के तहत हंगरी में हंगेरियन भाषा पढ़ने की सरकारी छात्रवृति मिल  गयी। बस तभी से हंगेरियन साहित्य   का हिन्दी अनुवाद शरू कर दिया।  अनुवाद का सभी कार्य कौवेश मैडम की देख रेख में ही होता रहा।  उनकी मदद के बिना हंगेरियन भाषा से हिन्दी अनुवाद संभव ही नहीं था।


डॉ कौवेश मारगित  अत्यंत सहज ,सरल,विनम्र , ख़ुशदिल और ज़िंदादिल इंसान हैं। उनका व्यक्तित्व और कृतित्व दोनों ही सराहनीय हैं । यक़ीनन उनके हृदय  में माँ सरस्वती का वास है और माँ सरस्वती के आशीर्वाद  से ही उन्होंने हंगेरियन और हिन्दी भाषा एवं  साहित्य की अतुलनीय सेवा की है। उन्होंने स्वयं तो हंगेरियन साहित्य का हिन्दी अनुवाद किया ही है , साथ साथ अपने विद्यार्थियों को भी अनुवाद  कार्य की लिए प्रेरित किया है।  उनसे हंगेरियन भाषा सीखने वाले विद्यार्थियों की फ़ेहरिस्त बहुत लम्बी है लेकिन  इन्दु मजलदान , जतिन कौशिक , इन्दुकांत आंगिरस , वंदना शर्मा और हिमानी पाराशर के  नाम उल्लेखनीय हैं।  डॉ कौवेश मारगित ने कुछ प्रतिष्ठित साहित्यकारों , जिनमे  असग़र वजाहतप्रमोद नांगया और गिरधर राठी   के नाम उल्लेखनीय हैं ,  के साथ मिलकर भी हंगेरियन साहित्य का हिन्दी अनुवाद कर हिन्दी साहित्य को अधिक समृद्ध   किया है। हंगेरियन भाषा से  हिन्दी में अनूदित चंद पुस्तकों के नाम देखें -

वित्त मंत्री का नाश्ता ,आनंदघन,रंग और वर्ष ,अभिनेता की  मृत्यु,हंगेरियन लोक कथाएँ,दस आधुनिक हंगरी कवि ,गेज़ा बाबू ,परियों की कहानियाँ,सात पैसे और अन्य हंगरी  कहानियां,चकोरी ,रानी का लहँगा .दरवाज़ा ,स्नेह को मार्ग ,रिश्तेदार ,बदसूरत लड़की ,राहगीर और चाँदनी रात का सफ़र ,अरान्य यानोश - कथागीत एवं कविताएँ, प्यारी अन्ना , आदि  

केंद्रीय हिन्दी निदेशालय के सौजन्य से डॉ कौवेश मारगित द्वारा रचित " हंगेरियन -हिन्दी वार्तालाप पुस्तिका " हंगेरियन और हिन्दी सीखने वाले विद्यार्थियों के लिए अत्यंत उपयोगी है।डॉ कौवेश मारगित का हिन्दी और हंगेरियन साहित्य के प्रति समर्पण को देखकर जनाब सीमाब सुल्तानपुरी का यह शे'र याद आ गया :

            मैं इक  चिराग़ लाख चिराग़ों में बँट गया 
            रक्खा जो आईनों ने कभी  दरम्यां   मुझे