Friday, August 15, 2025

Interview_16th August'2025

  कविता और दर्शन 


हम लोग कविता से दर्शन पर आ गए 

और दर्शन होता है बोझिल 

उस में नहीं होता कविता का दिल 

उस में नहीं होती कविता की चुटकी 

उस में नहीं होती वसंत की ख़ुश्बू

माना दर्शन से मिलता है तत्व ज्ञान 

लेकिन मुझे तत्व ज्ञान नहीं ,अपितु 

वसंत की है दरकार 

इसीलिए नहीं छोड़ता मैं कविता का दामन 

क्योंकि कविता मेरी आत्मा का 

कभी न मुरझाने वाला वसंत है। 


कवि - इन्दुकांत आंगिरस 

---------------------------------------------------------------------------------------------------------------------



डूबती इक सुबह का   मंज़र हूँ मैं

वक़्त का चलता हुआ चक्कर हूँ मैं 


कोई दरवाज़ा न कोई रौशनी 

तीरगी का एक सूना घर हूँ मैं 


दाग़ सीने में लिए फिरता रहा 

देखिये फूलों की एक चादर हूँ मैं 


दिल में रखी है किसी की मूर्ति

एक छोटा प्यार का मंदर हूँ मैं


आप भी चाहे तो ठोकर मार लें 

बारहा   तोडा गया   पत्थर हूँ मैं


लूटने का कब मुझे आया हुनर 

एक खस्ताहाल सौदागर  हूँ मैं 


हर कोई हैं मेरे साये में ' रसिक  '

हर तरफ फैला हुआ अम्बर हूँ मैं


----------------------------------------------------------------


बनारस

 

मेरा नाम बनारस है

यह दुनिया मुझे

वाराणसी और काशी के नाम से भी जानती है

काशी विश्वनाथ महादेव का  नगर हूँ  मैं 

जीवन में मृत्यु  का समर  हूँ मैं ,

गंगा किनारे बसे नगरो में

मैं ही सबसे अधिक

पवित्र और पुराना हूँ

हिन्दू धर्म का सनातनी तराना हूँ ,

गंगा की लहरें

मेरे पवित्र क़दमों को स्पर्श  कर

और अधिक पवित्र हो जाती हैं  ,

मेरे क़दमो पर बने

अट्ठासी घाटों की माया में घिर कर

कुछ पल को अपनी राह भी बिसर जाती है,

मेरी आत्मा की तंग गलियो में

मृत्यु की प्रतीक्षा करती ज़िंदगी

निरंतर करवटे बदलती रहती है

हर चिता की कहानी

लहरों से सुनती है कहती हैं  ,

एक मौन प्रतीक्षा मृत्यु की

 कोई भय  संताप

 कोई शिकवा  गिला

 

मैंने देखा है यहाँ 

मृत्यु की परतों का

परत दर परत खुलना ,

मृत्यु के इन अबूझे रहस्यों को

मुझसे बेह्तर कौन समझेगा ,

मेरे घाटों पर

कभी   बुझने वाली चिताग्नि

दुनिया भर के पर्यटको के लिए

किसी कौतुहल से कम नहीं

इस चिताग्नि  को

अपने बेहतरीन कैमरों में

 क़ैद करने वाले पर्यटक

इतना भी नहीं समझते

की मृत्यु आज तक

किसी भी कैमरे में क़ैद नहीं हो पायी

वो तस्वीरों में उभरती अग्निलपटे

सिर्फ एक पीली उदास रौशनी है

जिसके प्रकाश में

मेरी आत्मा हमेशा जगमगाती रहती है

वास्तव में आत्मा का पंछी

किसी कैमरे में क़ैद हो ही नहीं सकता

वह तो घने आकाश उड़ने की प्रतीक्षा में

किसी टूटी मुंडेर पर बैठा मिलेगा

और चिता की जलती लकड़ियों के संगीत के साथ

गंगा की लहरों पर सवार होकर

गायेगा मृत्यु का अमर गीत

और जब यह सारी दुनिया

गहरी नींद में सो रही होगी

तब मैं ख़ामोशी से तन्हा  सुनूँगा 

मृत्यु का वही चिरपरिचत

अमर गीत .।

----------------------------------------------------------------------------------------------------------------

आख़िर क्या होती है लघुकथा

 

जो वक़्त की क़ीमत को बेहतर समझती है

जो अंधेरों में बिजली - सी चमकती है

पढ़ ले जिसे आप कुछ पलों  में

जादू  जिसका रहे सालों तक 

जो उतर जाये रूह में आपकी

बस रहे न चंद ख़यालों तक,

जो काली घटा - सी  आये बरसने को

और छोड़ जाये सबको तरसने को

तार तार तो होता है  दामन इसका

लिखती अपने लहू से जब कोई क़िस्सा

कभी आग कभी पानी , कभी लहरों की रवानी 

मुफ़लिस की जवानी होती है लघुकथा

कुछ कविता , कुछ कहानी होती है लघुकथा।

 ------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------


पसलियाँ 


लाल बत्ती चौराहे पर उस नर - कंकाल को देख कर मैं लगभग जड़ हो गया। उसकी ख़ाली कुर्सी वही पड़ी थी लेकिन  उसऔरत ने उसे पकड़ कर खड़ा कर रखा था और उसके दोनों हाथ भीख माँगने के लिए फैला रखे थे। मैं ग़ुस्से में तमतमाते हुए उस औरत पर बरस पड़ा -

"तुम्हे शर्म नहीं आती।  इस पिंजर को अस्पताल में होना चाहिए और तुम चौराहे पर इसकी नुमाइश कर रही हो। "

वह सकपका कर बोली - " बाबू जी , इसको पकडे रखने में मेरी भी पसलियाँ  दुखती हैं लेकिन क्या करूँ मजबूरी है। अगर यह कुर्सी पर बैठ जाता है तो लोगो की नज़र इस पर नहीं पड़ती और इसके खड़े रहने से इसकी एक एक पसली भी  दिखाई देती हैं।  लोग यह जान कर कि ये मरने वाला है इसके कफ़न के लिए पैसे दे जाते हैं।बच्चें तीन दिन से भूखे हैं तो मैंने सोचा कि ख़ुद को बेचने से पहले इसकी नुमाइश ही कर दूँ।   

उसकी दलील सुन कर मैंने अपनी नज़रें झुकाई और आगे बढ़ गया। 

------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------

 लघुकथा - दीवार 


पडोसी  ने अपना पुराना मकान तुड़वा कर नया मकान बनवाया तो आँगन की ३ फ़ीट की दीवार को ६ फ़ीट ऊँचा कर दिया। यह देख कर मेरी पत्नी उदास हो कर मुझसे बोली - "देखिये भाईसाहब  ने  दीवार कितनी ऊँची कर दी है , पहले तो कभी कभी आमने -सामने खड़े हो कर बात हो जाती थी अब तो हम एक दूसरे की शक्ल भी नहीं देख पाएँगे , बात करना तो दूर की बात है। "

- " अरे धीरे बोलो , दीवारों के  भी कान होते हैं , अगर उन्होंने सुन लिया तो बुरा मान जायेंगे " - मैंने पत्नी को शांत करते हुए कहा। 

- " मैं तो चाहती हूँ वो सुन ले , दीवारों के कान ही नहीं दिल भी होता है , ज़रा ग़ौर से देखिये , ये दीवार कैसे सुबक - सुबक के रो रही है। "पत्नी  मायूसी से बोली। 

आँगन की ऊँची दीवार से टपकती बारिश की बूँदों  में पत्नी के आँसू  घुल - मिल गए थे  और उन बूँदों से मेरा दिल भी भीग गया था।    । 


लेखक - इन्दुकांत आंगिरस 

--------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------

 शब्द  कोई  भी    प्रेम  भरा , 

अब मुझ को ना लिखना तुम।

मेरे    जलते     ज़ख़्मों    पे , 

अब  मरहम  ना  रखना तुम ।


टूटा  दिल   उजड़ी बस्ती हूँ , 

गुजरा   हुआ    ज़माना   हूँ ।

मुरझाए   फूलों   पे   पसरा ,  

गम    का    शामियाना   हूँ ।

मैं   टूटी  हुई   सी   सरगम  ,

गीत   कोई  न   रचना  तुम ।

मेरे जलते जख्मों...... 


अपने ज़िंदा ज़ख़्मों को हँस ,

आज   कफ़न   पहनाया  है । 

बरसों से इस बोझिल मनको,

मुश्किल   से   समझाया   है ।

बन्द  खुली  इन   पलकों  में, 

स्वप्न   कोई  न   बुनना  तुम ।

मेरे जलते जख्मों......


इस सूने  मरघट  दिल में ना , 

कोई    ख़्वाब    मुस्काएगा ।

चन्दन   भी  जहरीले   सर्पों ,

जैसी     अगन     लगाएगा ।

मिले अगर जो किसी मोड़ पे,

मिलकर  भी न  मिलना तुम ।

मेरे जलते जख्मों.....

-------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------


Soror Annuncia - सिस्टर अनुनत्सया  


सिस्टर अनुनतस्या  मुझे देख रही थी।  मालूम नहीं , मैंने इससे पहले  सिर्फ़ पुरुषों की आँखों में देखी थी ऐसी उदासीनता , एक बार जब एक पुराना सपना टूट गया था और कोई पाँच मिनट के लिए यह विश्वास कर सकता था कि कुछ बहुत क़ीमती रीत जाता है ग़र कोई औरत किसी पुरुष की ज़िंदगी से निकल जाती है। 


लेकिन मेरे दूर जाने से उस बाल हृदय ,अधेड़ उम्र की सिस्टर में क्या रीत रहा है ? मैं तो उस संगीत को भी नहीं समझ पाती जिसमे ढलकर  वह अपना विरोध दर्शाती है। क्या मैं  उसके नारी सुलभ सपनों का पुल थी  जो उसके डरने के बावजूद उसे उस वास्तविक उत्तेजित दुनिया से जोड़ने में सक्षम था , या फिर उसने मुझे संसार के उस अद्भुत  मानव द्वीप से जोड़ा था जोकि सदियों से यही पर मौजूद था और अब वह समझती है कि मैं अतीत से भविष्य की ओर जा रही हूँ।  अथवा यह एक रुग्ण  संवेदनशीलता है , एक दिमाग़ी ख़लल  ,  मैं सुलझे शब्दों में समझना चाहती थी। बहुत कुछ पढ़ा था लेकिन फिर भी सब कुछ नहीं। एक पल के लिए वो सर्द  शाम मेरे ज़ेहन में कौंध गयी जब मैं  पियानो के पास बैठी थी ओर  मेरा हाथ ज़ख़्मी हो गया  था। 


जब ' अलविदा ' शब्द गूँजा तो हमेशा की तरह सिस्टर ने बढ़ कर मेरा हाथ थाम लिया। एक नारी सुलभ आकर्षक अदा से वह मुझसे लिपट गयी ओर उसने अपने अधर  मेरे अधरों पर रख दिए। तब से आज तक किसी ने मुझे उस तरह नहीं चूमा ,  सुलगते अधर .. यक़ीनन मेरी आत्मा भी भीग गयी थी । 

लेकिन  किसलिए    ?


बकवास.. बकवास.. बोलते हुए  मैं सीढ़ियाँ  उतर रही थी। मुझे किस बात के लिए शर्म आ रही थी , ख़ुद पे झुंझला रही थी  या फिर मैं समझना नहीं चाहती थी। क्या उस वाइलेन से परे भी कुछ ऐसे  रंग थे जिसके लिए कोई उपयुक्त  शब्द अबसे हज़ारों साल  बाद कोई हमारा पोता -पड़पोता  ही ढूँड   पायेगा ?


----------------------------------------------------------------------------------------------------------------------

Altató - लोरी


आकाश ने मूँदी नीली आँखें 

घर में मूँदी सबने आँखें 

रजाई में सोयें हरे मैदान 

चैन से सोओ तुम बलाज़


पैरों पर रख  सर को अपने 

कीड़ा ,मक्खी सोयें भैया 

उनके साथ सोयें ततैया 

चैन से सोओ तुम बलाज़


ट्राम भी थक कर सो गयी 

ऊँघ रही है खखड़ाहट 

सपने में बजती थोड़ी -सी 

चैन से सोओ तुम बलाज़


कुर्सी पे रखा कोट भी सोया 

उधड़न   भी अब ऊँघ रही 

बस और नहीं उधड़ेगी अब 

चैन से सोओ तुम बलाज़


ऊँघती गेंद ,एक जाम और 

जंगल की कर लो सैर और 

मीठी चीनी भी सो गयी 

चैन से सोओ तुम बलाज़


दूरिया सब कंचों की मानिंद 

बड़े हो कर सब पाओगे 

मूँद लो नन्हीं आँखें अपनी 

चैन से सोओ तुम बलाज़


सैनिक , फ़ायरमैन बनोगे 

या तुम बनोगे चरवाहे ?

देखो, सो गयी माँ तुम्हारी 

चैन से सोओ तुम बलाज़



कवि - József Attila

जन्म -  11th April ' 1905 - Budapest

निधन - 03rd December ' 1937  - Balatonszárszó

------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------

बड़ी बुआ 


हर दिल अज़ीज़ थी मेरी बड़ी  बुआ 

परिवार में कुछ भी  होता 

अच्छा या बुरा 

मिलते ही ख़बर

दौड़ी आती थी पहली गाडी से 

एक छोटा बैग , एक कंडिया 

ज़ाफ़रानी  ज़र्दे की पुड़िया   

और पिछलग्गू गुड्डू भाई 

( उनका कनिष्ट पुत्र - मेरा फुफेरा भाई ) 

मिलती थी सबसे गले लग के   

मिनटों में घर लेती थी संभाल 

रखती थी वो सबका ख़्याल

और रात को फुर्सत में 

सुनाती थी मुझे दिलचस्प  क़िस्से 

पुरानी ज़िंदगी के 

कुछ अपने , कुछ ग़ैरों के 

काम सब निबटा के  

लौट जाती थी ख़ुशी ख़ुशी घर अपने 

भाई के दिए नेग को लगा सर अपने 

जब से नहीं रही दुनिया में बड़ी बुआ 

कोई नहीं आता घर अब 

ख़ुशी में या ग़म में 

बस याद बहुत आती है बड़ी बुआ। 



कवि - इन्दुकांत आंगिरस -----------------------------------------------------------------------------------------------

Geet 


 इस मन के सूने आँगन में

कब आओगे प्राण प्रिय 


रीत गयी चंदा की किरणें , बुझने लगे सितारे भी 

दरिया की बेबस लहरों से , मिलते नहीं किनारे भी 

पतझड़ भी अब रूठ गया है , रूठी यहाँ बहारें  भी 


इन दर्दीले गीतों को फिर  , कब  गाओगे प्राण प्रिय 


दिल की नगरी उजड़ गयी है  रूठी अब तन्हाई भी 

ग़म में डूबे  नग़मे मेरे ,  गूँगी है शहनाई  भी  

राख़ हुआ चन्दन मन  मेरा  ,धुआँ  बनी  परछाई भी 


बंजर मन में ख़ुश्बू बन कर  , कब छाओगे प्राण प्रिय 


शाम ढली डूबा सूरज भी , नागिन सी डसती  रतियाँ 

पनघट भी अब छूट गया है  , छूट गयी सगरी सखियाँ 

तारे गिनते रात कटी ये , बीत गयी कितनी सदियाँ


किरनों का सतरंगी रथ तुम , कब लाओगे प्राण प्रिय 

-----------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------


गीत - आख़िर  कब तक 


मानव का रक्त पियेगा , मानव आख़िर  कब तक 

मानव का ज़ुल्म सहेगा , मानव आख़िर  कब तक 


भ्रष्टाचार  का  सर्प डसेगा , आख़िर कब तक 

मज़दूरों का ख़ून  बहेगा  , आख़िर  कब तक 

कब तक होगा      क़त्ल यहाँ इंसानियत का 

दशानन का दर्प हँसेगा , आख़िर  कब तक 


मानव का रक्त पियेगा..........


दहशत का सामान बनेगा आख़िर कब तक 

सिक्कों में ईमान  बिकेगा आख़िर  कब तक 

कब तक   होगा नाच यहाँ   हैवानियत  का   

मानव , मानव बम बनेगा आख़िर  कब तक 


मानव का रक्त पियेगा..........


सच का झूठा ढोल बजेगा आख़िर  कब तक 

चौपट जी का राज चलेगा  आख़िर  कब तक 

कब तक होगा   पतन    यहाँ  सियासत का 

दिल्ली तेरा ताज बिकेगा आख़िर  कब तक। 


-------------------------------------------------------------------------------------



No comments:

Post a Comment