Sunday, October 30, 2022

मुतफ़र्रिक़ अशआर

 

कितनी दिलकश है उन के सलाम की अदा 

वो बुहारते हुए दहलीज़ तक आना उनका 


शाम देर तलक किसी की याद आए   

सूनी छत की मुंडेर पर कुहनी टिकाए


गुज़र जानी है शब यूँ ही तो बस यूँ ही गुज़ारेंगे,

न उनको याद आएँगे न उनकी याद आएगी। *


डूबने के लिए घर से निकल तो पड़े 

पर उन आँखों सा समुन्दर और कहाँ 


फिर मेरी मुश्किलें आसान हो गईं

निगाहें उनकी जब मेहरबान हो गईं


जहाँ क़ाफ़िला थक हार कर है बैठ गया 

वही से शुरू होता है यारो सफ़र मेरा  


अब ढक भी लीजिए अपनी मासूम आँखें 

यूँ न डूबता सूरज दूर से देखा करिए   


नहीं अपने ही दिल पर इख़्तियार हमें 

कैसे कहें उन से हमे भूल जाओ 


कही आने जाने का दिल करता नहीं 

क्या आईना  देखें क्या बाल सँवारे 


तेरी याद से दिल ऐसा हुआ   बेक़रार 

तेरी याद से भी अब आता नहीं क़रार 


जाने कब गई रात जाने कब सहर हुई 

उसकी आँखों की मस्ती गुलमोहर हुई 


उन्हें खोकर अब कोई आरज़ू नहीं रही 

ग़म ग़म न रहा , ख़ुशी ख़ुशी न रही 


नामुराद दिल का न रहा सहारा कोई 

साहिल पे बैठ भी ढूंढा करे किनारा कोई 




कभी हँसी तो कभी रोना आए है 

वो मासूम बाते जब याद आए है 


लिख कर शफ़क़ के होठों पे नाम मेरा 

छुपा तो लिया चेहरा उसने हाथों में 


भीड़ में भी तनहा हूँ मैं

एक गुज़रा लम्हा हूँ मैं 


हर तरफ बिखरी हुई तन्हाइयाँ 

परछाइयों में  क़ैद   परछाइयाँ 


अश्क भी मेरा भाप बन उड़ गया 

वस्ल की राह से हर क़दम मुड़ गया 


झुंझला कर मुँह फेर का सो गए 

अश्क भी मेरे अब फरेब हो गए 


बात निगाहों से उतर दिल तक पहुँचे है 

मुख़्तसर सी बात न समझे उम्र भर 


न इतने प्यार से देखिये हमको 

अभी कुछ और जीने को जी चाहे है 


कितनी वीरान है दुनिया बिन तुम्हारे 

उदास फूल उदास गुलशन उदास बहारे


फिर छेड़ दिया कोई किस्सा पुराना 

निचोड़ कर कपडे उस ने छत पर 


न इतना इतराइये इस आईने पर 

वक़्त के साथ ये भी बदल जायेगा 


पी तो ली उन मस्त आँखों से शराब 

अब कौन छोड़ेगा मुझे मेरे घर तक 


माना ये रेत के घर बिखर जायेंगे 

कभी यूँ भी बिखरने को जी चाहे है 


रुक रुक कर ठहर जाती है निगाहें उस मोड़ पर 

जहाँ पे हम मिले थे , जहाँ से अभी तुम मुड़े हो 


इस दस्तक से दिल उनका वाकिफ है ज़रूर 

ये और बात है , संभल के पूछे - कौन है ?


मेरी उम्र से भी लम्बा ये सफर हो गया 

फिर डूब गयी शाम देखते देखते 


उनकी आँखों की कैफ़ क्या कहिए 

कलेजा हाथों से थामे रहिए  


दफ़अतन गिरा जो   भी गिरा पहलू में 

अब जो गिरे तो दानिश्ता गिरे पहलू में 


तुम ही नहीं और भी रूठे हैं  मुझ से 

जी अपना भी है रूठे मगर किस से 


लम्हें गुज़रे वक़्त क्व सजा भी लूँ तो क्या 

लौट कर आती नहीं ख़ुशी  ग़म की तरह 


इल्ज़ाम  तेरा सर तो मैं ले लूँ  मगर 

यक़ीन क्या है तेरी आँखों का न बदलेंगी 


दीवार से उतरती धूप से ही पूछिए 

गिरेगी कब दिलों के सहन की दीवार 


किनारे न मिले हैं न मिलेंगे कभी 

रोकेगा कौन मगर लहरों को लिपटने से 


मसलहत का उम्र से दूर दूर तक रब्त नहीं 

खरोंचे दिल की बता देती है धार की तेज़ी 


बाद तेरे , तेरी ही याद आये ऐसा कहाँ 

दिल तो फिर दिल है , इस पर बस कहाँ 


हर बार सफर तय किया जाये ऐसा नहीं 

मंज़िलें भी खुद बी खुद चली आती है कभी 


उससे न कभी ज़िक्र करूँगा अपने क़िस्सों का 

मैं कब चाहूँगा  वो मुझे बेवफ़ा  समझें 


अच्छा ही हुआ हमे तैरना न आया 

उसकी आँखों में उतरें और डूब गए 


वीरानियाँ मेरी मुझे ले जाएँगी कहाँ 

सकूं उन्हें भी और कही ऐसा कहाँ


इस दौरे कमखुलूस में बात रब्त की न कीजिए

दुश्मनी भी न निभा पाए लोग क्या कीजिए 


रफ़ू  अपने ज़ख़्मों को न करों यारों  

यही  वो शय है जो मुफ़्त मिलती है 


उसकी बेनियाज़ी का मुझे ग़म नहीं 

उसने मुझे चाहा है कुछ कम नहीं  


हादिसा यही बस मेरे साथ हुआ 

ज़ख़्म उसने  जब छुआ मेरा छुआ 


माना तेरे वा'दें  हैं तोड़ने के लिए 

पर मेरा दिल तो कोई वा'दा न था 


डर मुझे किसी दुश्मन से नहीं लगता 

बस न मिले दुश्मन कोई दोस्त बन कर 


मिटाने इन्हें आप यहाँ कहाँ आ गए 

घर से ही शुरू होते हैं सब फ़ासले 





 






ग़ज़ल - आप फूलों सा बिखरना सीखिए

 

आप फूलों सा   बिखरना  सीखिए 

खाक़ में मिल कर संवरना सीखिए 


आ गया ज़ीनों पे चढ़ना आपको 

अब ज़रा नीचे उतरना सीखिए 


इस से पहले आप भी कुंदन बनें 

आग से हो कर गुज़रना सीखिए 


ग़म भी मिलता है कहाँ सब को यहाँ

सारी ख़ुशियों  से उभारना  सीखिए 


आप तक भी जाम आएगा ' बशर '

दिल में साक़ी के उतरना सीखिए 


शाइर - बशर देहलवी


ग़ज़ल - किसी के दिल से निकली इक दुआ हूँ


 किसी के दिल से निकली इक  दुआ हूँ 

मैं   जैसे एक   अधूरी  -सी   सज़ा हूँ 


मुझे तकरार ही में खो न देना 

सुनो मैं एक लम्हा प्यार का हूँ 


मुझे वो काश आ कर ये बताएं 

नहीं इन्सां तो फिर मैं और क्या हूँ 


हैं कुछ बदले हुए ये आईने भी 

कुछ उन के साथ मैं बदला हुआ हूँ 


भले हैं लोग सब दुनिया के यारो 

मुझी में है कमी ,   मैं ही बुरा हूँ 


मुझे वो   ढूँढ़ते   फिरते है हर सू 

मैं दिल में जिनके बरसो से छुपा हूँ 


कभी हँसते कभी रोते हो मुझ पर 

कहो सचमुच मैं क्या इतना बुरा हूँ 


असर हो जायेगा उस के भी दिल पर 

मैं कितनी बार जिस से मिल चुका हूँ 


शाइर - बशर देहलवी 


ग़ज़ल - अब और कोई क्या मुझे नाशाद करेगा

 


अब और कोई क्या मुझे नाशाद करेगा 

 मेरा ये  जुनूं   ही   मुझे    बर्बाद करेगा 


महफ़िल में मुझे रोके है जिस काम से अकसर

उस काम   को  वो ख़ुद   ही मेरे  बाद करेगा 


अब टूटे हुए दिल में ख़ुशी आए तो कैसे 

तड़पेगा न अब और ये फ़रियाद करेगा 


आती है सदा कोई तो कहता हूँ ये ख़ुद से 

क्या उसको पड़ी है जो मुझे याद करेगा 


लो ये भी भरम टूट गया आज 'बशर' का 

कहता था वो आएगा मुझे शाद करेगा  


शाइर - बशर देहलवी 

Saturday, October 29, 2022

ग़ज़ल - यादों के आईने में लगते रहे पराए

 यादों के  आईने   में लगते  रहे पराए

लेकिन नहीं गए वो दिल से मेरे भुलाए


दिल ढूंढ़ता है उनको दिन रात अब हमारा 

जो हमसफ़र बने थे जो लौट कर न आए 


इस दिल का रूठना भी है इक बड़ी मुसीबत 

रूठे   हुए दिलों   को   कैसे   कोई मनाए 


भूले से भी कभी तुम दिल पर न चोट करना 

है   इक यही   मकां जो बनता   नहीं बनाए 


कुछ बात की न उसने और न मुझे बुलाया 

जाऊँ मैं दर पर उसके कैसे बिना बुलाए 


मुड़ ही गए क़दम तो उनको ' बशर ' न रोको 

ये   रास्ता भी   शायद    घर को उसी के जाए



शाइर - बशर देहलवी 


वसंत का ठहाका - दोआबा

दोआबा


गंगा और जमुना के बीच का ये

 ' दोआबा '

था कभी बहुत ख़ुशहाल और हरा - भरा

हिन्दी और उर्दू ज़बानों की मानिंद

लेकिन आज इसका बदन ही नहीं

इसकी रूह भी ज़ख़्मी है ,

ख़ून के छींटों ने बदरंग बना दिया  इसे

एक खूं ख़्वार जंगल बना दिया  इसे

जहाँ  प्यासे है सब जानवर

एक दूसरे के ख़ून के ,

वही  जानवर  जो शायद कभी इंसान थे

बन्दे थे ख़ुदा के , आदम की पहचान थे

जो पानी मांगने पर आब लाते थे

चाँद की झोली में महताब लाते थे

जिनके ख़्वाब सपनों में ढल जाते थे ,

अब पानी भी है और आब भी

फिर भी सब हैं प्यासे

एक - दूसरे के ख़ून  के प्यासे ,

कैसी प्यास हैं ये

जो जला रही है मोहब्बत के ख़तूत

इंसानियत के सब सबूत ,

गंगा - जमुना के बीच का 

वही   ख़ुशहाल दोआबा

फलता फूलता रहे तो बेहतर है 

गंगा - जमुनी तहज़ीब

इक - दूजे में घुलती रहे तो बेहतर है ,

मुझे डर है 

ये दोआबा , मरघट  कही न बन जाए

हम सब  प्यासे कही न  मर जाएँ,

गर ऐसा हुआ तो 

गंगा और जमुना का पानी

रोएगा अपनी क़िस्मत पर ।




कवि - इन्दुकांत आंगिरस 



जंगली कबूतर और मुटरी - A vadgalamb és a szarka ( हंगेरियन लोककथा का हिन्दी अनुवाद )

 


पंचतंत्र की कथाओं से आप सभी परिचित हैं। इन कथाओं में अक्सर जानवरों और पक्षियों  के माध्यम से समाज को नीतिपरक ज्ञान दिया जाता रहा है। पंचतंत्र की कथाएँ सिर्फ़ भारत में ही नहीं अपितु दूसरे राष्ट्रों और भाषाओं में भी उपलब्ध हैं। प्रस्तुत है , हंगेरियन भाषा में उपलब्ध ऐसी ही एक लोककथा का हिन्दी अनुवाद जोकि आज भी प्रासंगिक है , विशेषरूप से भारतीय साहित्यिक परिवेश में। 

कोरोना के दौरान हिन्दी कवि / लेखक कुकुरमुत्ता की तरह उग आयें। वे सभी कवि / लेखक इस लोककथा को ज़रूर पढ़ें जो चहार कविताएँ लिख कर ख़ुद को फ़ारसी का उस्ताद समझने लगते हैं और साहित्य की पावन गंगा नदी को अपने कूड़े -करकट से दूषित करते जा रहे हैं।  





 A vadgalamb és a szarka

जंगली कबूतर और मुटरी 


जंगली कबूतर ने मुटरी से कहा कि वह उसे भी घोंसला बनाना सीखा दे क्योंकि घोंसला बनाने में मुटरी उस्ताद है और वह ऐसा घोंसला बनाना जानती है जिसमे  बाज़ , शिकरा नहीं घुस सकते। 

मुटरी ने ख़ुशी ख़ुशी उसे सीखाना  स्वीकार कर लिया।  घोंसला बनाने के बीच एक एक टहनी को जोड़ते वक़्त मुटरी अपने अंदाज़ में जंगली कबूतर से कहती - 

-" इस तरह रखो , इस  तरह बनाओ ! इस तरह रखो , इस  तरह बनाओ "

यह सुन कर जंगली कबूतर बोला - 

जानता हूँ , जानता हूँ , जानता हूँ !

मुटरी एक पल को ख़ामोश हो गयी लेकिन बाद में ग़ुस्से से भर उठी। 

- अगर जानता है  , तो बना ले अपने  आप ! - और उसने घोंसला अधूरा ही छोड़ दिया। 

जंगली कबूतर उसके बाद से न तो कभी उस घोंसले को पूरा कर पाया और न ही मुटरी उस्ताद से कभी कुछ सीख पाया।  



( प्रसिद्ध  लोककथा )

अनुवादक - इन्दुकांत आंगिरस


NOTE : मुटरी एक प्रकार की चिड़िया होती है जिसका सिर, गरदन और छाती, काली तथा बाक़ी  शरीर कत्थई होता है। यह कौए से कहीं बढ़कर चालाक और चोर होती है। इसको अँगरेज़ी भाषा में Magpie  कहते है। 

Friday, October 28, 2022

हंगेरियन गद्य का आंशिक हिन्दी अनुवाद

Polixena Tant 


 कोलोशी ... ( बारतोती , बारतोती , बारतोती ) एक आम अंधविश्वास , अपशकुन एक ऐसा विशवास जोकि हंगेरियन नियति की देवी अनान्के  का उपाख्यान बन चुका है।  कई सदियों से एक परिवार इस अभिशाप से पीड़ित है , यह अभिशाप उनके परिवार के हरेक सदस्य को प्रताड़ित करता है।  उनकी ज़मीन और पशु , उनके महूर्त , उनकी योजनाओं को और उन सब को भी प्रताड़ित करता है जिनका सम्बन्ध उस परिवार से है मसलन उन की बीवियाँ , रखैलें , नौकर और दोस्त। इस अभिशाप द्वारा लाई गयी दारुण विपत्ति की पुरानी सैकड़ों कहानियाँ धुंध की चादरों में खो चुकी हैं।  शायद उन अर्थहीन कहानियों के मूल तत्त्व भी मिट चुके हैं लेकिन फिर भी वे हमारी यादों में शेष हैं।  अगर कोई भी किसी ज़रूरत से या फिर सिर्फ़ स्मरण करते हुए इस नाम को अपने होठों पर लाएगा और फिर उसके फौरन बाद एक ही साँस में तीन बार एक दूसरे भाग्यशाली परिवार का नाम नहीं लेगा तो उस दिन ज़रूर कोई दुर्घटना होगी ....कोई दुश्मनी निकालेगा   या कुछ नुक्सान हो जाएगा। 


और मुझे याद है कैसे यह शब्द मेरे बाल मस्तिष्क में विचरण करता रहा था , जब वे मुझे उस के घर ले गए थे। उस गोधूलि बेला में मैंने उसे लकड़ी  के फ्रेम में जड़ी एक तस्वीर की मानिंद , एक अजीब सख़्त पत्थर की तरह बैठे देखा था। इसी क्षण में सन्नाटे ने उसे लील लिया था।  


उस बड़े साफ़  बैठकघर में  नक़्क़ाशीदार बड़ी अल्मारियों और सजावटी क्रॉकरी वाले कपबोर्ड के नीचे मामूली दरी दबी हुई थी। यहाँ सब कुछ मामूली और ख़ाली ख़ाली  था , सब कुछ बिखरा हुआ , ग़मगीन। मैंने दो अजीब वस्तुओं की तरह उस बूढी औरत की दो सख़्त सफ़ेद कलाइयाँ देखी थी जो एक काले एप्रन में लिपटी बिना हिले -डुले लेटी हुई थी और जिसे किसी भी चीज़ से कोई लेना -देना नहीं था।  


उस धुंधली रौशनी में , मैं उसकी सूखी ठोड़ी की सख़्त  लकीर और अकड़ी हुई गर्दन के अलावा उसकी पीठ पर उभरता कूबड़ ही देख पायी थी। 



कवियत्री - Kaffka Margit 

जन्म -   10th June ' 1880 , Nagykároly

निधन - 1s December ' 1918 , Budapest 


अनुवादक - इन्दुकांत आंगिरस  

Monday, October 24, 2022

हंगेरियन गद्य का आंशिक हिन्दी अनुवाद

 Polixena Tant 


"मैंने प्यार किया था "-  लकड़ी की जाली के पीछे से उसने अचानक कहा था , कभी किसी को पता नहीं लगा , उसको सपने में भी इसका अंदेशा नहीं था।  वह एक मामूली आदमी था।  इस से तुम सब कुछ समझ सकती हो ....

पागलपन , पीड़ा उन्माद और सुंदरता , पैसा लुटाने वाला , दीवाना , छैल - छबीला , नष्ट होती जाति , मृत्यु तक नृत्य करते नर्तक , मंच पर आदिम रौशनी में अभिनय करते , झूटी अभिनूतियाँ , बचकानी उद्दंडता और गर्वित स्मृतियाँ। मुझे याद है मेरा किशोर व्यक्तित्व इस नए संसार में अधिक उर्वर और कल्पनाशील हो गया था। मैं इस से भी पूरी तरह संतुष्ट नहीं थी। अधूरी जानकारी से अन्दाज़ा लगाते हुए मैंने समझा कि यह किसी व्यक्ति विशेष की सनक नहीं थी , यह अनुभव की तस्वीर का दूसरा पहलू था , कारण और विशवास , आम सच ,जीर्ण-शीर्ण हंगेरियन नियति की देवी अनान्के का अभिशाप। मैं कुछ इसी तरह की बाते सोचना चाहती थी लेकिन मैं उलझ कर रह गयी थी।



कवियत्री - Kaffka Margit 

जन्म -   10th June ' 1880 , Nagykároly

निधन - 1s December ' 1918 , Budapest 


अनुवादक - इन्दुकांत आंगिरस  

Sunday, October 9, 2022

मुखबरी कविता - मैं रिपोर्टर हूँ

 

 ( २९ अक्टूबर ' २००५ में दिल्ली की सरोजिनी नगर मार्किट में हुए बम विस्फोटों  की ख़बरों से प्रेरित कविता )


मैं रिपोर्टर हूँ 


हाँ , मैं मिडिया का रिपोर्टर हूँ 

इधर - उधर की 

सब तरफ की ख़बरें लाता हूँ 

बाल की खाल , खाल की बाल 

और फिर बाल की खाल निकलता हूँ 

काल - महाकाल की ख़बरें सुनाता हूँ 


मैं रिपोर्टर हूँ 

हाँ , मैं मिडिया का रिपोर्टर हूँ


मैं शमशान में भी मुस्कुराता हूँ 

चिताओं पर मृत्यु की धुन बजाता हूँ 

जब मुस्कुरा कर पूछता हूँ सवाल 

मुझसे डर जाता है महाकाल 


हैलो..... जी , मीडिया जी 

जी हाँ , मैं यहाँ शमशान से ही बोल रहा हूँ 

आपके लिए लाशों का पिटारा खोल रहा हूँ 


जी हाँ , सीरियल बेम विस्फोटों में मरे 

तमाम लोगो की लाशें यहाँ आ गयी हैं


हैलो , क्या कहा आपने , कफ़न ....


जी हाँ , कफ़न सब लाशों  पे ढका हुआ है

पर लकड़ियों को लेकर यहाँ कुछ लफ़ड़ा  है


- लफ़ड़ा , कैसा लफ़ड़ा ?


- वो मेडिया जी , वैसे तो लकड़ियों का गोदाम भरा पड़ा है

लेकिन अफ़सोस कि लकडिया गीली हैं

इन चिताओं की कहानी दर्दीली है  


- रिपोर्टर जी , आखिर ये चिताएँ गीली कैसे हुई ?


- मीडिया जी , गोदाम मालिक के अनुसार 

कल रात यहाँ बारिश हुई थी , 

जिसके कारण लकड़ियाँ  गीली हो गयी थी। 


- क्या कहा , बारिश , लेकिन कल रात तो दिल्ली में बारिश नहीं हुई। 


- जी मीडिया जी , असल में बात ये  है कि 

जब भी शहर में थोक में मौतें  होती हैं , 

उसी रोज़ शहर में बारिश हो जाती है 

और  लकड़ियाँ ख़ुद ब ख़ुद गीली हो जाती हैं। 


- अच्छा , अच्छा , ये बताये कि शमशान घाट में 

सब लोगो के दाह संस्कार के लिए 

पर्याप्त स्थान है या नहीं ?


देखिए मीडिया जी !

मैं शहर के सबसे बड़े  शमशान घाट 

निगमबोध घाट से बोल रहा हूँ 

यूँ तो दाह संस्कार के लिए यहाँ

काफी अच्छे इंतज़ामात हैं 

जलाने से पहले लाशों को 

गंगाजल से नहलाया जाता है 

उन्हें फूलों से सजाया जाता है 

लेकिन अक्सर जब भी थोक में  लाशें आती हैं 

जब ज़िंदगी ,मौत का मर्सिया गाती है 

यह शमशान भी छोटा पड़ जाता है 

यहाँ लाशों की लम्बी कतार है 

अफरा - तफरी का माहौल है 

पंडितो को लोग इधर उधर खींच रहे हैं 

पंडित मुहँ - मांगे दाम लूट रहे हैं 


- अच्छा , रिपोर्टर जी , ये बताये कि

अब तक कितनी चिताएँ तैयार हो चुकी हैं ?


- मीडिया जी , अभी तक सिर्फ पाँच चिताएँ तैयार हुई है। 


- बाक़ी चिताएँ कब तक तैयार होंगी ?


- उसमे अभी वक़्त लगेगा क्योंकि 

 जबसे सरकार ने 

मुआवज़े  की  रकम बढ़ा दी है 

यह कुछ लाशों के 

एक से अधिक दावेदार निकल आये हैं 

उनका दाह संस्कार DNA टेस्ट के बाद ही  होगा। 


- एक लाश के एक से अधिक दावेदार 

यह कैसे संभव है ?

ख़ैर , यह बताये कि बाक़ी  लाशो को 

कब तक प्रतीक्षा करनी पड़ेगी ?


- मीडिया जी , यह हिन्दुस्तान है 

यहाँ सब कुछ संभव है 

यहाँ यमराज को भी प्रतीक्षा करनी पड़ती है 

जैसे जैसे रात गहराती जा रही है 

लोगो की बेचैनी  बढ़ती जा रही है 

लाशों के सामूहिक 

दाह संस्कार की बात उठ रही है 

सर्वसम्मति से कुछ ही देर में

बाक़ी लाशों का 

सामूहिक संस्कार कर दिया जायेगा 

दिल्ली का निगमबोध घाट 

जगमगा उठेगा 

और महाकाल 

वही चिर परिचित 

मृत्यु गीत जाएगा। 



कवि - इन्दुकांत आंगिरस



NOTE :  पुराने काग़ज़ों में एक ख़बरी  कविता मिल गयी तो मन हुआ कि मित्रों से साझा कर लूँ। 

मैंने चंद कविताएँ ख़बरों से प्रेरित हो कर लिखी हैं।  यह कविता उसी सिलसिले की एक कड़ी है।




Saturday, October 1, 2022

ग्रुनेवाल्दी में बिताये साल का दस्तावेज़ - हंगेरियन गद्य का आंशिक अनुवाद

 ग्रुनेवाल्दी में बिताये साल का दस्तावेज़ 


मैंने बहुत - सी बातों के बारे में निश्चय किया था और बहुत - सी बातो के बारे में निश्चय  नहीं कर पाया था।  मैं उस आने वाले साल में क्या करूँगा जो मुझे विशेनशाफ्टकॉलेग में किराये के मकान में बिताना है।  ईश्वर की मदद और सौभाग्य से वह सब कुछ पूरा नहीं हुआ जिसकी मैंने आखिर तक कोशिश की थी।  सबसे पहले मुझे ' पारहुज़ामोश ' शीर्षक कहानी पर काम शुरू करना था।  सब कुछ उसी तरह करना था जैसे कि घर पर करता था , दोपहर तक हमेशा काम में लगे रहना। दोपहर तक का यह समय मेरे लिए सबसे महत्त्वपूर्ण था।  सुबह का नाश्ता अक्सर छूट जाता था और गपशप भी।  उठते ही एक बड़े कॉफ़ी के मग के साथ अपनी मेज़ पर आ जाना।  बाक़ी सब काम बंद।  न किसी को फ़ोन करना और न ही किसी से मुलाक़ात।, ख़बरें भी नहीं , इस समय किसी भी किस्म का शोर मुझे बर्दाश्त नहीं था।  


यह एक पागलपन और दीवानगी जैसा लगता था और वास्तव में ऐसा ही था।  पिछले दशकों में यही एक ऐसा तरीका था जोकि गद्य लेखन में निरंतरता कायम रखने के लिए ज़रूरी है।  ग्रुनेवाल्दी में स्थित मेरे स्टडी रूम का फर्नीचर मेरी सभी आवशयक ज़रूरतों के अनुकूल था।  सबसे ऊपरी मंज़िल के कमरे से चिनार व देवदार के पेड़ों के ऊपरी हिस्सों को देखा जा सकता था।  काम करते हुए भी मैं कबूतरों की रहस्यमयी उलझन भरी ज़िंदगी का गहराई से अध्ययन कर सकता था , उनका घोंसला बनाने से नवजात पक्षियों के पंख फड़फड़ाने तक। 


दोपहर के भोजन के समय मैं अपने अनुभव अमेरिकी पक्षी विज्ञानी तेचुमेश फिच के साथ बाँटता था और मैंने उनसे यह भी सीखा था कि देखने लायक क्या क्या हो सकता है।  तेचुमेश के परिवार में किसी पूर्वज का भारतीय नाम रख दिया गया था और तभी से हर भारतीय परिवार के पहले बच्चे का अँगरेज़ी नाम रख दिया जाता है और वे आपस में दोस्त बन जाते हैं। 


खिड़की के नीचे , एक -दूसरे  से कुछ दूरी पर ड्राइंग की बड़ी मेज़ जैसे दो बोर्ड लगे हैं जो मेरे डेस्क का काम देते हैं।  उनमे से एक पर मैं अपने लेख बड़े करीने से सजा देता हूँ और दूसरे पर  मैंने अपना टाइपराइटर  और  कंप्यूटर रखा हैं जो हालांकि हंगेरियन भाषा में लिपिबध है लेकिन अपने मूड के मुताबिक यह कभी कभी अँगरेज़ी या जर्मन में कभी कभी एक ख़ास अंदाज़ में तीन भाषाओँ के मिश्रण में तब्दील हो जाता है। 


मैं पहले हाथ से लिखता हूँ और फिर उसे टाइप करता हूँ , हाथ से ही ग़लतियों को सुधारता  हूँ और फिर टाइप करता हूँ।  मैं तब तक टाइप करता रहता हूँ जब तक कि पूरी ग़लतिया सुधर नहीं जाती।  उसके बाद मैं उस लेखन सामग्री को कंप्यूटर में डालता हूँ।  सीधे कंप्यूटर में भरे गए साहित्यिक गद्यांशों की संरचना काफ़ी  बनावटी लगती है लेकिन फिर भी अपने इस ढाँचे में ये गद्यांश विशिष्ट दिखाई पड़ते हैं। 


इसका तात्पर्य यह नहीं कि लेखन कोई शिल्पकारिता या कारीगिरी है।  मेरे लेखन में दोपहर का भोजन अक्सर बाधक बनता और उस से भी बढ़ कर भोजन की मेज़  पर विभिन्न वैज्ञानिक विषयों पर विचार - विमर्श और हर मंगलवार को वैज्ञानिक संगोष्ठियों का आयोजन। सामूहिक भोजन करने के कारण मेरे लेखन की अवधि भी कम हो जाती थी और मंगलवार को तो काम शुरू करने का प्रश्न ही नहीं उठता।  अपनी कार्यविधि को पूरा करने के लिए मैं हर सुबह नियत समय से पहले उठता लेकिन रात को कभी भी जल्दी नहीं सो पाता। मैं  मंगलवार की संगोष्ठियों में भी सम्मिलित होना चाहता था।  


मैं भाषणों की विवेकपूर्णता और स्वरूपता से अत्यंत प्रभावित हो जाता , वाद विवाद काफ़ी गंभीर स्तर का होता  और उसके बाद सामूहिक शानदार भोजन।  नवंबर में जब  मेरी पुस्तक " ओन डेथ " का विमोचन हुआ तो प्रशंसा और जिज्ञासा के बावजूद यह स्पष्ट हो गया था कि  कथित सत्य और कथित सुंदरता के बीच एक गहन रसातल है। 


वैज्ञानिक कार्यप्रणाली में मेरी अपनी भाषा बिखर रही थी।  अपना लेख पढ़ने के बाद चिकित्सा दार्शनिक बेतिना  इस्कोनस्यीफर्ट  और ब्रह्मविज्ञानी क्रिस्तोफ़ मार्कशाई के साथ मेरा वाद - विवाद हुआ जिसमे मैं अकेला पड़ गया।  आपसी सद्भावना और सहनशीलता निरर्थक हो गयी थी।  साधन , प्रणाली , भाषा प्रयोग अचानक सब कुछ बदला हुआ लग रहा था। 


मूल लेखक - Péter Nádas

जन्म -  14th October ' 1942, Budapest 

अनुवाद - इन्दुकांत आंगिरस 

The Ajanta Caves - Early Buddhist Paintings from India




                                                         The Ajanta Caves 

                                           ( Early Buddhist Paintings from India  )




साहित्य और कला का साथ पुरातन है।  अक्सर बहुत से साहित्यकारों का रुझान कला के प्रति होता है और बहुत से कलाकार / चित्रकार साहित्य में दिलचस्पी रखते हैं ।  कविता में कला और कला में कविता। अपनी पुरानी पुस्तकों में " The Ajanta Caves " मिली तो मन हुआ कि मित्रों से साझा कर लूँ।  अजंता गुफ़ाओं की जानकारी तो आपको गूगल में मिल जाएगी , लेकिन यह पुस्तक अपने आप में इसलिए भी विशिष्ट है क्योंकि यह Fontana UNESCO Art Books श्रृंखला की एक कड़ी है।  इस श्रृंखला में प्रकाशित दूसरी कला पुस्तकें जिनका नाम इस पुस्तक में शामिल हैं इस प्रकार हैं - 


Fontana UNESCO Art Books edited by Peter Bellew

1Persian Miniatures 

2. Russian Icons 

3. Spanish Frescoes

4. Mexican Wall - Paintings 

5. Byzantine Frescoes 

6. Japanese Paintings 

7. The Ajanta Caves  


अजंता की मूरत प्रेम कविताओं में जब -तब  आ ही जाती है , बक़ौल यावर अमान -

औरत एक हयूला सूरत 

कभी अजंता की वो मूरत 

कभी कभी जापानी गुड़िया 

कभी वो इक सागर शहज़ादी 

आब-ए-रवाँ के दोष पे लेटी 

मौजों के हलकोरे खाती 


पुस्तक का नाम - The Ajanta Caves     (  Art Book  )

Editor  -  Peter Bellew

प्रकाशक - Collins . UNESCO 

प्रकाशन वर्ष - प्रथम संस्करण , 1963  ( Printed in Italy by Amilcare Pizzi S.p.A. Milano )

कॉपीराइट - UNESCO

पृष्ठ - 24 + 28 Plates 

मूल्य - 6/-

Binding -  Paperback 

Size -  11cm  x 16.6 cm"

ISBN - Not mentioned 

Language - English 

Forward  - Benjamin Rowland



प्रस्तुति - इन्दुकांत आंगिरस