लट्टू
बचपन में खेलता था लट्टू का खेल
कभी ज़मीन पर घुमाता
तो कभी हवा में उछाल कर
बिना ज़मीन को छुए
सीधा हथेली पे लट्टू को घुमाना
किसी हुनर से कम न था
लट्टू पर सही से रस्सी लपेटना
फिर सही दिशा, गति और अनुपात में
उसे हवा में उछालना
और अपनी हथेली पर
उस लट्टू को नचाना
जैसे ही बड़ा और बड़ा
छूट गया लट्टू का खेल
ज़िंदगी ने मुझे ही बना दिया लट्टू
और इतना नचाया
इस बेरहम दुनिया के मेले में
कि भूल ही गया लट्टू का खेल
आज भी ज़िंदगी नचाती जा रही है मुझे
एक लट्टू की तरह
नाचते नाचते अब थक गया हूँ
घूँघरु भी नहीं मेरे पाँव में
ज़ंजीर भी नहीं मेरे पाँव में
कभी भी रूक सकती है
लट्टू की गति
मेरी साँसों की मानिंद।
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