लघुकथा - औकात
लाल - पीले चीथड़ों में लिपटी काले रंग की बुढ़िया का करुण स्वर बरबस ही मेरा ध्यान बाँट लेता था , लेकिन मैं बहरा बन आगे बढ़ जाता। मन हुआ आज बुढ़िया को पाँच- दस पैसे दे ही दूंगा। बुढ़िया निश्चित स्थान पर बैठी थी। कुछ पहले ही मैं अपनी जेब मैं पैसे टटोलने लगा। नज़दीक पहुँचने पर बुढ़िया ने मेरी तरफ देखा लेकिन कुछ बोली नहीं। उसकी आँखों में याचना भरी करुणा न देख मैं अचकचा गया और इसी उधेड़बुन में जेब में हाथ डालें आगे निकल गया। शायद उस बुढ़िया को मेरी औकात का अंदाज़ा हो गया था।
लेखक - इन्दुकांत आंगिरस
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