1
जैसी मन की बाँसुरी , वैसी उस की पीर।
आँसू हैं ये पीर के , कहो न इनको नीर।।
2
गल बाँही सब की करी ,अपना भया न कोय।
बिछड़े सब साथी सखी , आज बहुत हम रोय।।
3
मिल ना पाएँगे कभी , नदिया के दो तीर ।
कब समझी लहरें सखी , इन तीरों की पीर ।।
4
और नहीं कुछ चाहिए , बस इक तेरा साथ ।
मिल जाएगी हर ख़ुशी , थाम सखी का हाथ ।।
5
उलझी उलझी ज़िंदगी , बिखरे बिखरे बाल।
याद बहुत आते रहे , ग़म के गुज़रे साल।।
6
राम नाम ही जप रहें , घर घर में नर नार।
टूटी इन की नाव को , राम लगाओ पार।।
7
इतना बैर ठीक नहीं , मन की गाँठें खोल।
सबको ही शीतल करें , प्रेम भरे दो बोल।।
8
आती कितनी दूर से , छुक छुक करती रेल।
सब धरमों के नाम का , रेल कराती मेल।।
9
बापू के बन्दर सभी , देते सब को ज्ञान।
बंद किए बैठे कब से , आँख मुँह और कान ।।
10
जाने किस के हाथ है , इन साँसों की डोर।
टूटे जब ये डोर तो , लोग कहे नो मोर ।।
11
और नहीं कुछ ज़िंदगी , बस साँसों का खेल।
चाबी जितनी हो भरी , उतनी चलती रेल।।
12
रोटी रोटी सब कहे , ख़ाली सब के पेट।
रोटी पाने को कभी ,कर न किसी से हेट।।
13
मतलब पड़ने पर सभी , कहे गधे को बाप ।
रहे ना जब मतलब तो , बाप रहे ना आप ।।
14
प्रेम नहीं कुछ जानिए , बस अंतस की पीर
रोज़ जिगर में जा लगे , ज़हर बुझा इक तीर
15
मूसल से वो कब डरे , जो खुद ओखल यार।
तोड़ी ज़ंजीरें सदा , मानी कभी न हार।।
16
मिलती ना वापिस कभी ,कर से फिसली रेत।
जैसे फिसले साँस रे , अब तो जा तू चेत।।
फिसली जाती साँस रे , अब तो जा तू चेत।।
17
घर जो साधे रेत का , खुद बन जाये रेत।
मिटती जैसे ज़िंदगी , कुछ मिटटी कुछ खेत।।
18
प्रेम नहीं अब बांचिये , प्रेम सखी अनमोल।
लेकिन क़दम क़दम यहाँ , देना पड़ता टोल।।
19
मन का दरपन साफ़ तो , दिखता सब कुछ साफ़।
धुंधला गर दरपन हो , सब कुछ लगे ख़िलाफ़।।
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