Sunday, April 30, 2023

लघुकथा - एक जून की रोटी

 लघुकथा - एक जून की रोटी 


सुबह , दोपहर , शाम जब कभी भी उधर से गुज़रता वह भीख मांगती ही मिलती और उसके दो मासूम बच्चे सड़क पर बिछी फटी चादर पर सोये मिलते। यूँ हमेशा बच्चों का सोते रहना मुझे खटक गया और मैं   हिचकिचाते हुए उससे पूछ बैठा -

" बच्चें बीमार हैं क्या ? हमेशा सोते रहते हैं "

-" न बाबू जी , बीमार तो नहीं हैं , मैं इन्हें सुबह ही थोड़ी सी अफ़ीम चटा  देती हूँ । 

- क्यों , ऐसा क्यों करती हो ? मैंने चौंकते  हुए पूछा। 

- धंधा नहीं करने देते बाबू , जो जागते रहेंगे तो इधर - उधर भागेंगे।  अब मैं इन्हें सम्भालूं कि इनके लिए एक जून कि रोटी का इंतिज़ाम करूँ। 


उसका जवाब सुन कर मैं गूँगा ही नहीं बहरा भी हो गया। 


लेखक - इन्दुकांत आंगिरस 

फ़्लैश बैक - विद्या मंदिर

विद्या मंदिर 


हाँ , कटरा गोकुल शाह का 

विद्या मंदिर ही थी मेरी पाठशाला 

जहाँ पढ़े थे मैंने क , ख , ग 

और A  , B  , C 

स्लेट और स्लेटी 

सरकंडे की क़लम , तख़्ती 

और काली स्याही 

तख़्ती  को पानी से साफ़ करना 

 फिर उस पर मुल्तानी मिटटी का लेप लगा 

उसको हवा में सूखाना  

फिर पेंसिल से लकीरें  खींच कर 

उस पर सरकंडे की क़लम से लिखना 

अपने आप में एक दिलचस्प 

खेल था मेरे लिए 

कुछ महीने वहाँ पढ़ने के बाद 

हो गया था मेरी दाखिला 

आंध्रा स्कूल में 

फिर कभी  जाना नहीं हुआ 

विद्या मंदिर के भीतर 

लेकिन विद्या मंदिर की तीन सीढ़ियां 

और लज्जा मैडम 

आज भी जेहन में ताज़ा हैं। 





कवि - इन्दुकांत आंगिरस 




फ़्लैश बैक - शरबती दादी

शरबती दादी 

( मेरी सगी दादी की छोटी बहिन )


कुनबे में थी सबसे छोटी बुआ की शादी 

और मुझे मिली थी ज़िम्मेदारी 

गली शीशमहल , बाज़ार सीताराम से 

शरबती दादी को ग़ाज़ियाबाद ले जाने की 

उन दिनों शादी - ब्याह होते थे बड़े उत्सव 

जिसमे महीनों पहले घर आ जाते थे 

क़रीबी रिश्तेदार 

बस इसी सिलसिले में पहली बार 

जाना हुआ गली शीशमहल में 

गली में शीशमहल तो कोई न दिखा 

लेकिन शरबती दादी का घर ढूँढ निकाला 

शरबती दादी ने पिलाई मुझे चाय 

और फिर निकल पड़े हम स्टेशन की ओर

उनके कपड़ो की छोटी संदूकची 

और बिस्तरबंद उठा कर चल पड़ा दादी के साथ 

शरबती दादी करती थी बहुत मीठी बातें 

बरसो गुज़र गए लेकिन 

दिल्ली से ग़ाज़ियाबाद का वो सफ़र 

आज भी जेहन में ताज़ा हैं 

संदूकची , बिस्तरबंद और शरबती दादी। 



कवि - इन्दुकांत आंगिरस

फ़्लैश बैक - डॉ बंसल

 डॉ बंसल 

 

हौज़काज़ी से थोड़ा पहले 

गली शीशमहल के नुक्कड़ पर थी 

डॉ बंसल की दुकान

कभी भी बीमार पड़ने पर 

घरवाले ले जाते थे उन्हीं के पास 

बहुत हँसमुख और ख़ुशमिज़ाज  

अक्सर उनके छूते ही  

बुखार हो जाता छू मंतर 

कुछ ऐसा शफ़क़ था उनके हाथों में 

उनकी मीठी मीठी बातो से 

आधी बीमारी हो जाती थी ख़त्म 

उनके क्लिनिक पर ही 

और बाक़ी आधी उनके द्वारा दी गयी 

दवाई खा कर 

 वो सफ़ेद गोलियाँ 

और गुलाबी शरबत 

होता था कड़वा 

लेकिन खाते ही बंदा

हो जाता था चंगा। 



कवि  -  इन्दुकांत आंगिरस

फ़्लैश बैक - लट्टू

 

लट्टू

 

बचपन में खेलता था लट्टू का खेल

कभी ज़मीन पर घुमाता 

तो कभी हवा में उछाल कर

बिना ज़मीन को छुए

सीधा हथेली पे लट्टू को घुमाना

किसी हुनर से कम था

लट्टू पर सही से रस्सी लपेटना

फिर सही दिशा, गति और अनुपात में

उसे हवा में उछालना

और अपनी हथेली पर

उस लट्टू को नचाना 

जैसे ही बड़ा और बड़ा

छूट गया लट्टू का खेल

ज़िंदगी ने मुझे ही बना दिया लट्टू

और इतना नचाया

इस बेरहम दुनिया के मेले में

कि भूल ही गया लट्टू का खेल

आज भी ज़िंदगी नचाती  जा रही है मुझे

एक लट्टू की तरह

नाचते नाचते अब थक गया हूँ

घूँघरु भी नहीं मेरे पाँव में

ज़ंजीर भी नहीं मेरे पाँव में

कभी भी रूक सकती है

लट्टू की गति

मेरी साँसों की मानिंद। 

 


कवि  -  इन्दुकांत आंगिरस

 

फ़्लैश बैक - गली आर्यसमाज

 गली आर्यसमाज 


गली आर्य समाज 

का एक सिरा बाज़ार सीताराम 

तो दूसरा हमदर्द दवाख़ाने में निकलता  

जिससे तीन यादे जुडी हैं मेरी 

पहली चुन्नीलाल पतंग वाला 

दूसरा मेरा दोस्त पवन कुमार 

और तीसरा 

मेरे छोटे पुत्र अनुज का 

३ साल की उम्र में खो जाना 

और उसका गली आर्य समाज में मिलना  

मेरे दादा जी बरसो आर्य समाज से जुड़े रहे 

लेकिन बहुत बाद में पता चला कि

गली आर्य समाज में स्थापित 

आर्य समाज का मंदिर दिल्ली का 

पहला आर्य समाज का मंदिर है। 



कवि  -  इन्दुकांत आंगिरस

Saturday, April 29, 2023

लघुकथा - पोस्टर

 लघुकथा - पोस्टर 


सुबह सुबह उठा तो घर के बाहर कुछ शोर - सा  सुनाई पड़ा।  कुछ ज़र्द शोर , कुछ फ़ुसफ़ुसाहट।  कूड़ेदान पे चिपके किसी नए पोस्टर पर बहस हो रही थी।  न किसी का नाम न पता , बिलकुल बर्फ़ - सा  सफ़ेद पोस्टर। बहुत  क़ीमती काग़ज़ लगता था। मन हुआ उसे वहाँ से उतार लूँ और उस पर एक सुन्दर से तस्वीर बनाऊँ। लेकिन हिम्मत नहीं जुटा पाया।  उस रात बहुत बारिश हुई। अगली सुबह उठते ही कूड़ेदान की तरफ़  क़दम  उठ गए। पोस्टर दीवार से उतर चुका था।  मैंने धीरे धीरे वो क़ीमती पोस्टर उठाया जिसके दूसरी तरफ़ खुदा था - मैं हरामी हूँ।     


लेखकइन्दुकांत आंगिरस  

लघुकथा - औकात

 लघुकथा - औकात 


लाल - पीले चीथड़ों में लिपटी काले रंग की बुढ़िया का करुण स्वर बरबस ही मेरा ध्यान बाँट लेता था , लेकिन मैं बहरा बन आगे बढ़ जाता। मन हुआ आज बुढ़िया को पाँच- दस पैसे दे ही दूंगा।  बुढ़िया निश्चित स्थान पर बैठी थी।  कुछ पहले ही मैं अपनी जेब मैं पैसे टटोलने लगा।  नज़दीक पहुँचने पर बुढ़िया ने मेरी तरफ देखा लेकिन कुछ बोली नहीं।  उसकी आँखों में  याचना  भरी  करुणा न देख मैं अचकचा गया और इसी उधेड़बुन में जेब में हाथ डालें आगे निकल गया। शायद उस बुढ़िया को मेरी औकात का अंदाज़ा हो गया था। 


लेखक - इन्दुकांत आंगिरस  

Monday, April 24, 2023

Tele üvegből a bolond is tud inni - भरी हुई बोतल से तो मूर्ख भी पी लेगा

 








Tele üvegből a bolond is tud inni - भरी हुई बोतल से तो मूर्ख भी पी लेगा


एक आदमी ने अपने बेटे को १ लीटर  की बोतल थमाते हुए कहा ,

- "सुनो बेटा , मेरे लिए १ लीटर वाइन  ले आओ। "

लड़का घर से जाता है लेकिन कुछ ही देर बाद वापिस लौटता है और अपने पिता से कहता है , 

-" पापा , वाइन ख़रीदने के लिए पैसे भी दो। "

यह सुन कर उस आदमी ने कहा -" पैसा दे कर तो कोई मूर्ख भी ले आएगा।" 

पापा का जवाब सुन कर लड़का दोबारा बाज़ार जाता है और कुछ देर बाद वही  बोतल अपने पिता को दे कर कहता है , -" लो पापा , पी लो वाइन। "

- " सुनो बेटा , खाली बोतल से कभी किसी को पीते देखा है क्या ? "

-" भरी हुई बोतल से तो मूर्ख भी पी लेगा। "



                                                                           (  Székely anekdota  )


अनुवाद - इन्दुकांत अंगिरस