Neuraszténia - तंत्रिकावसाद
उस गूँगे और नामुराद घर में , मैं अकेली बैठी थी। बर्फ़ - सी सफ़ेद ठंडी अग्निष्ठिका अपने खुले मुहँ से यूँ आहें भर रही थी जैसे भीगे पतझड़ की सर्द उच्छवासें कमरों में पसर रही हों। अँधेरे कोनों में लिपटे हुए क़ालीन और गुप्त एवं संदेहपूर्ण तरीके से कुछ बक्से आपस में यूँ सटे पड़े थे जैसे कि प्रतीक्षालयों और जहाज़ों के डेक पर इन्तिज़ार करती कुरूप ग़रीबी की शक्लें। यहाँ सब कुछ अस्थाई और शोरमय था। मैं आख़री हफ़्ते तक उसी घर में रही थी जो कभी मेरा अपना घर था।
मैं तैयार हो रही थी और यह भी नहीं जानती थी कि मुझे कहाँ जाना है। लेकिन वे सब जो मेरे अपने थे , मुझसे पहले ही बिछड़ गए थे और अपनी नियति अथवा मेरी बेचैन अभिलाषाओं द्वारा संचालित नयी अनजान राहों पर बढ़ रहे थे। मैं अकेली थी , देर से आई पतझड़ी शाम धीरे धीरे रात में ढलने लगी थी।
मैं यहाँ सारे दिन अपनी ही मर्ज़ी से बैठी थी। इस खण्डरनुमा मकान में घुलती हवा को अपनी साँसों में भर रही थी और मैंने महसूस किया कि मेरा पूरा वजूद इसकी समरसता से लहराता हुआ बाहर जा रहा था। यहाँ हर चीज़ अजनबी ,गूँगी और नामुराद थी। मैं हैरान थी।
मेरे कानों में उतरती वो गुनगुनाहट सन्नाटे का संगीत था या फिर धीमी बारिश की आकुल गहरी साँसें। हाँ , नहर के ताम्बे वाले बिगुल पर गिरती हज़ारों नन्ही नन्ही बूँदों का संगीत साफ़ सुना जा सकता था।
कवियत्री - Kaffka Margit
जन्म - 10th June ' 1880 , Nagykároly
निधन - 1s December ' 1918 , Budapest
अनुवादक - इन्दुकांत आंगिरस
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