Thursday, January 21, 2021

कीर्तिशेष कृष्ण कुमार चमन देहलवी और उनकी पुरानी दिल्ली

 

बेहतर  है  टूट  पड़े उस पे बिजलियाँ 

जो आदमी ज़मी के लिए आस्मां  बने 


उस्ताद चमन देहलवी का उपरोक्त शे'र उन सब लोगो की तरफ़ इशारा करता है जो अपने स्वार्थ के लिए दूसरों  के निवाले छीन रहे हैं। 

एक कवि , शाइर , कलाकार आज भी एक पहरेदार की तरह सजग है और निरंतर अपनी साधना में रत है।  मीडिया की चकाचौंध में कविता का जादू समाप्त होता जा रहा है लेकिन ५०० साल पुरानी ग़ज़ल विधा आज भी परवान चढ़ रही है। दिल्ली का इतिहास गवाह है कि यह हमेशा अदीबों का शहर रहा है। पुरानी दिल्ली में आज भी मिर्ज़ा ग़ालिब , दाग़  देहलवी , उस्ताद इब्राहिम ज़ौक़ , हीरा लाल फ़लक देहलवी की ग़ज़लें गूँजती रहती हैं। पिछले दिनों जब पुरानी दिल्ली जाना हुआ तो उस्ताद चमन देहलवी से हुई एक पुरानी मुलाक़ात ताज़ा हो गयी।

 

दाग़ स्कूल के नामवर शाइर उस्ताद हीरा लाल फ़लक देहलवी के शागिर्द कृष्ण कुमार चमन देहलवी ने २० वर्ष की आयु से ग़ज़ल कहनी  शरू कर दी थी और लगभल २० सालो तक इन्होने " यादगार -ए -अंजुमन फ़लक ,(दिल्ली की अदबी संस्था) की बागडोर संभाले रखी । अपने उस्ताद फ़लक देहलवी का ज़िक्र करते हुए चमन साहिब ने फ़रमाया -

" उस्ताद फ़लक साहिब उस्तादों के उस्ताद थे। एक बार एक मुशायरे में उन्होंने ग़ज़ल पढ़ी जिसका शोर लखनऊ तक उठा -

अराइस्ते  बज़्में ऐश हुई ,   अब रिन्द पिएंगे खुल -खुल के 

झुकती है सुराई सागर पे ,नग़में हैं फ़ज़ा में क़ुल - क़ुल के 


इस मतले में पिरोय " क़ुल - क़ुल " अल्फाज़ को लेकर काफी शोर उठा। लखनऊ के शाइरों ने कोश छान मारे किन्तु यह लफ्ज़ कही नहीं मिला।  तब  उस्ताद फ़लक ने इस पर रौशनी  डाली और बताया कि सुराही से पानी निकालते  समय छलकता है संगीत - क़ुल - क़ुल का। 

उस्ताद चमन देहलवी ने कई दशकों तक मुशायरे पढ़े। ग़ज़ल के अलावा चमन साहिब की ख़्याल गोई  विधा में भी गहरी पैठ थी। आज भी १५ अगस्त को पुरानी दिल्ली के लाल दरवाज़े मोहल्ले में  ख़्याल गोई की प्रतियोगिताएं आयोजित होती हैं जिसमे देश के नामवर शाइर शिरकत फ़रमाते हैं ।  ख़्याल गोई का मुकाबला घंटों चलता है जिसमे शाइरों को आशु शाइरी में जवाब देना पड़ता है। उस्ताद चमन देहलवी की ख़्याल गोई की एक बानगी देखें -


यह देखना है जहाँने ग़म में मुझे न कब तक ख़ुशी मिलेगी 

उसी पे रख दूँगा  अपना दामन   जो आँख रोती हुई मिलेगी  


जब उस्ताद चमन देहलवी  से मैंने उनकी कुछ पुरानी यादों के बारे में पूछा तो एक पल को उदास हो गए और फिर फ़रमाया -

" वो ज़माना कुछ और था , लोग मिलनसार थे ,एक - दूसरे की इज्ज़त करते थे। पुरानी दिल्ली ,हिम्मतगढ़ ( अंगूरी घट्टा )तक महदूद थी। उसके बाद दिन में भी सुनसान रहता था ।  हाँ , हरिहर महाराज की कुटिया बहुत पुरानी है और शाह जी का तलाब तो अब इमारतों के नीचे दफ़्न हो चुका है।  उन दिनों यहां इतनी भीड़ - भाड़ नहीं थी और न ही इतनी गंदगी थी।  लेकिन आज तो पुरानी दिल्ली एक नरक से बढ़ कर कुछ नहीं।  अब तो पतंगों के रंग भी बदरंग हो चुके हैं और उनकी उड़ान भी अब पहले जैसी नहीं रही।  यह देश का दुर्भाग्य है कि हम पुरानी दिल्ली की सांस्कृतिक विरासत को बचा नहीं सके ।  "


उस्ताद चमन देहलवी के शागिर्दों की फ़ेहरिस्त बहुत लम्बी है जिनमें सर्वश्री अनिल वर्मा 'मीत', अरविन्द कुमाअश्क़  और कृष्ण कुमार ' गुल 'के नाम उल्लेखनीय हैं । यह अफ़सोस की बात है कि उनकी कोई भी किताब अभी तक प्रकाशित नहीं हुई है। 



जन्म - 2nd March ' 1937 , Delhi 

निधन DOD  की   जानकारी जुटाई जा रही है। 



NOTE : जनाब  अनिल मीत को उनके सहयोग के लिए शुक्रिया, उस्ताद चमन देहलवी  से हुई  मुलाक़ात का श्रेय  भी जनाब  अनिल मीत को ही  जाता है।

2 comments:

  1. उस्ताद चमन देहलवी साहब के बारे मैं जानकर अच्छा लगा । इंदु कांत जी,आप बहुत बढ़िया काम कर रहे हैं । हार्दिक बधाई आपकों।

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  2. महत्वपूर्ण जानकारी

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