Tuesday, January 12, 2021

तख़ल्लुस - असर , बशर और जलाली

 

कहीं   "असर " बे-असर  न  हो जाये इसीलिए मैंने अपना तख़ल्लुस ( उपनाम ) "असर "से अब " बशर " कर लिया है। उर्दू और हिन्दी अदब में यह रवायत है कि शाइर , लेखक अपना उपनाम रखते हैं जोकि उनके वास्तविक नाम से भिन्न होता है। विशेषरूप से ग़ज़ल के मक़्ते में शाइर अपना तख़ल्लुस इस्तेमाल करता है जिससे पता लगता है कि यह ग़ज़ल किस शाइर की है। मेरा वास्तविक नाम इन्दुकांत शर्मा है लेकिन मेरा उपनाम इन्दुकांत आंगिरस है , लेकिन ग़ज़ल में यह उपनाम जमता नहीं। 

             आज से लगभग 40 साल पहले मेरी मुलाक़ात उर्दू के मशहूर शाइर कीर्तिशेष जनाब डी राज कँवल से हुई जोकि परिचय साहित्य परिषद् के संरक्षक  भी थे। उन्होंने मुझे और मेरे कवि मित्र  शिवनलाल  को ग़ज़ल लिखने के लिए प्रेरित किया।  हम दोनों  उनके शागिर्द बन गए। उन्होंने मुझे " असर " तख़ल्लुस दिया और शिवनलाल को " बशर "। हमे कँवल साहिब ने यह बताया था कि असर लखनवी नाम से एक मशहूर शाइर रह चुके है।  अभी हमने ग़ज़ल की दुनिया में क़दम रखा ही था , क़ाफ़िया और रदीफ़ को समझने लगे ही थे कि तभी कँवल साहिब का इंतकाल हो गया। 

अफ़सोस कि उनसे हम कुछ ज़्यादा नहीं सीख पाए।जनाब सीमाब सुल्तानपुरी भी  कँवल साहिब के शागिर्द है। कँवल साहिब के  इंतकाल के बाद मैंने जनाब सीमाब सुल्तानपुरी से गुज़ारिश करी कि वे मुझे ग़ज़ल के उरूज़ के बारे में समझा दें  लेकिन उन्होंने यह कह कर इस बात को टाल  दिया कि यह मुश्किल काम हमारे बस का नहीं है।  ख़ैर कँवल साहिब के बाद और किसी की शागिर्दी करने का सुअवसर कभी नहीं मिला। ग़ज़ल का सफ़र चलता रहा जोकि आज भी ज़ारी है। 


अँगरेज़ी भाषा में एक कहावत है -  Two is a company ,Three is a Crowd   लेकिन दिल्ली की वह शाम मुझे कभी नहीं भूलती  जब  हम तीन शाइर एक दूसरे को company दे रहें थे।  एक मुशायरे में मेरी मुलाक़ात दो नए शाइरों से हुई। मेट्रो ट्रैन का बीस मिनट का वो सफ़र बहुत दिलचस्प था।  हम तीनो एक ही मेट्रो में एक साथ सफ़र कर रहे थे - सर्वश्री प्रमोद शर्मा " असर ", अरविन्द " असर " और इन्दुकांत आंगिरस " असर " । यह  एक अजीब इत्तफ़ाक़ था कि एक ही तख़ल्लुस के तीन शाइर एक साथ।  जनाब प्रमोद शर्मा " असर " कीर्तिशेष सर्वेश चंदौसवी के शागिर्द है। 

मेरे कवि मित्र जनाब शिवनलाल ,अलीगढ़ के नज़दीक " जलाली " कस्बे के रहने वाले हैं ।  बहुत साल पहले उनके परिवार में किसी की शादी के सिलसिले में उनके गावँ जलाली जाने का अवसर मिला था।  उर्दू अदब में यह भी रवायत है कि शाइर अपने नाम के साथ अपने शहर या गावँ का नाम जोड़ देता है जिससे पता लगता है कि वह शाइर किस शहर का रहने वाला है ,  मसलन - असर लखनवी , ख़ुमार बाराबंकी ,जिगर मुरादाबादी , मजाज़ लखनवी, फ़िराक़ गोरखपुरी   आदि। लगभग एक साल पहले  एक पाकिस्तानी शाइर शकेब जलाली के बारे में पढ़ा , जोकि जलाली के रहने वाले थे।  मैंने इस बात का ज़िक्र अपने मित्र शिवनलाल  से किया और उन्हें सुझाव दिया कि वह अपना उपनाम नाम "बशर" की  जगह "जलाली " रख ले क्यूँकि वह जलाली के रहने वाले है। उन्हें मेरा सुझाव पसंद आया और अब उनका कवि नाम - शिवनलाल जलाली है। 


जनाब प्रमोद शर्मा " असर " और अरविन्द " असर " दोनों ही मुझसे बेहतर ग़ज़लकार हैं और मुझे लगता है कि उनके रहते मुझे अपना तख़ल्लुस बदल लेना चाहिए। क्यूँकि शिवनलाल ने अब अपना उपनाम बदल लिया है और कँवल साहिब हम दोनों के ही उस्ताद थे। मैंने शिवनलाल जी के सामने प्रस्ताव रखा और उनसे इजाज़त माँगी कि क्या मैं " बशर " तख़ल्लुस इस्तेमाल कर सकता हूँ ? उन्होंने सहर्ष मेरे प्रस्ताव को स्वीकार करा और परिणाम स्वरुप अब मेरा  तख़ल्लुस " बशर " हो गया है। बदले हुए  तख़ल्लुस के साथ यह मक़्ता देखें -

 

ऐ ' बशर ' चैन से बैठो घर में 

बेवफ़ाओं को भुला कर देखो 


 

1 comment:

  1. यादगार संस्मरण लेकिन भाई साहब तखल्लुस बदलने की जरूरत नहीं थी खैर आप बेहतरीन शायर हैं

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