Thursday, January 28, 2021

हंगेरियन कविता - Petike Jár का हिन्दी अनुवाद

 

एक माँ के लिए प्रसव वेदना किसी कृति की रचना से कम नहीं होती। लगभग एक साल होते होते जब कोई शिशु पहली बार धरती पर अपने नन्हें पैरों से  ज़िंदगी के सफ़र में अपना पहला क़दम बढ़ाता है तो सबसे ज़्यादा ख़ुशी शिशु की माँ को ही  होती है। इसी भावभूमि   पर इस अद्भुत हंगेरियन कविता के हिन्दी अनुवाद का लुत्फ़ उठायें। 



Petike Jár - नन्हा पैतर चल पड़ा


दो चौड़े मुहँ वाले , छोटे - से जानवर जैसे 

वो  भोंदू     बच्चे  के नन्हे   से प्यारे जूते 

अनिश्चित सहज    परियों जैसी पदचाप 

भीतरी कमरों से आती जूतों की आवाज़ 

मेरे दिल की ख़ुशनुमां धड़कनें जग गयीं 

मैं सफ़ेद फूलों की बारिश से ढक गयीं 

उसको देखते ही मेरा ज़िंदादिल ठहाका 

जीवंत आवाज़ की  मानिंद ज़ोर से गूंजा 

 पुरानी सब तस्वीरें , तहरीरें भूली  बिसरी 

सैकड़ों किरणों  की मानिंद  दौड़ने लगीं

और मैं   बेइंतिहा   ख़ुशी से चीख़ने लगी

पैया पैया चल पड़ा , नन्हा पैतर  चल पड़ा 


उसने अभी   भी मेज़ की टांग पकड़ रखी है 

मुहँ  खुला है औ चेहरे   पर छलकती ख़ुशी है 

साहसी मानवीय तप से ,जलती इच्छाशक्ति से 

एक गुलाब के खिलने  से सीखता है बड़ा होना 

लो देखो ,वो मेज़ छोड़ कर उसका आगे बढ़ना 

कैसे डगमग  डगमग पैरों से  उसका  चलना 

ठहर ठहर कर बढ़ाता , पैया पैया नन्हे क़दम

हिम्मत से रखता ज़मीन पे अपना हरेक क़दम 

लो , बाँहें फैलाता अब .पहुँच गया यहाँ तक  

धीरे से , ध्यान से...  पैतर बेटा......   धीरे से 

अब गिरने का समय कहाँ और तेज़ भाग पड़ा 

आगे   बढ़ कर वो   मेरी गोदी  में पसर गया 


 खेल उसे पसंद आया तो  मैंने भी  वो दोहराया 

 बाँहों वाली कुर्सी के पास फ़र्श पर ही बैठ गयी 

 मुझ तक पहुँचने को जल्दी  बड़े बड़े क़दम उठाता

लेकिन आग़ाज़े सफ़र  में ही अक्सर   लुढ़क जाता 

उसके होंठ कांपने लगते , वो रुहांसा हो जाता 

 आस -पास देखता , कोई हँसा तो  नहीं उस पर 

सोचता एक पल फिर सुगबुगाते हुए खड़ा हो जाता 

और नई ताकत से फिर शुरू करता नया  सफ़र  

अपने गुलाबी हाथो से अपना संतुलन बनाता 

पैया पैया   ध्यानपूर्वक   आगे  बढ़ता जाता 

धीरे से तुतलाते  हुए  अपनी हिम्मत बढ़ाता 

धीले से ..ध्यान से....  पैतल  बेटा... धीले से



 देर तक उसकी भीगी आँखों को देखती रहती 

दुखद कल्पना मेरे वजूद को घेर लेती 

गुज़र जाते हैं सालो - साल मैं बुढ़िया जाती हूँ 

भीतर वाले कमरे में , अब अकेली रहती हूँ 

भारी क़दमों की आवाज़ , कभी कभी सुनती हूँ 

एक जवान , बाँका , कुंवारा लड़का आता है 

तुम हो ?    क्या लोगे ?   कॉफी ?    पेस्ट्री 

और पैया पैया मैंने तब तक उसके चक्कर लगाएँ  

जब तक उसने अपने संघर्ष के दिलचस्प क़िस्से 

हँसते , खिलखिलाते मुझे एक एक कर सुनाएँ 

कंपकंपाते हुए , डरते हुए , बुदबुदाई मैं  धीरे से- 

धीरे से , ध्यान से... .. पैतर बेटा.......   धीरे से 



कवियत्री - Kaffka Margit 

जन्म -   10th June ' 1880 , Nagykároly

निधन - 1s December ' 1918 , Budapest 


अनुवादक - इन्दुकांत आंगिरस 


NOTE : इस कविता के अनुवाद में " पैया पैया " शब्द मेरी पत्नी श्रीमती चंद्रानी आंगिरस  ने सुझाया जिसके लिए मैं उनका शुक्रगुज़ार हूँ।  

Sunday, January 24, 2021

हंगेरियन गद्य - Neuraszténia का आंशिक हिन्दी अनुवाद


Neuraszténia - तंत्रिकावसाद  


उस गूँगे और नामुराद घर में , मैं अकेली बैठी थी। बर्फ़ - सी सफ़ेद ठंडी अग्निष्ठिका  अपने खुले मुहँ से यूँ  आहें भर रही थी जैसे भीगे पतझड़ की सर्द उच्छवासें कमरों में पसर रही हों।  अँधेरे कोनों में लिपटे हुए क़ालीन और गुप्त एवं संदेहपूर्ण तरीके से कुछ बक्से आपस में यूँ  सटे  पड़े थे जैसे कि प्रतीक्षालयों और जहाज़ों के डेक  पर इन्तिज़ार करती कुरूप ग़रीबी की शक्लें।  यहाँ सब कुछ अस्थाई और शोरमय था। मैं आख़री हफ़्ते तक उसी घर में रही थी  जो कभी मेरा अपना घर था। 


मैं तैयार हो रही थी और यह भी नहीं जानती थी कि मुझे कहाँ जाना है।  लेकिन वे सब जो मेरे अपने थे , मुझसे पहले ही बिछड़ गए थे और अपनी नियति अथवा मेरी बेचैन अभिलाषाओं द्वारा संचालित नयी अनजान राहों पर बढ़ रहे थे। मैं अकेली थी , देर से आई  पतझड़ी शाम धीरे धीरे रात में ढलने लगी थी। 


मैं   यहाँ सारे दिन अपनी ही मर्ज़ी से बैठी थी। इस खण्डरनुमा मकान में घुलती हवा को अपनी साँसों में भर रही थी और मैंने महसूस किया  कि मेरा पूरा वजूद इसकी समरसता से लहराता हुआ बाहर जा रहा था।  यहाँ हर चीज़ अजनबी ,गूँगी और नामुराद थी। मैं हैरान थी। 

मेरे कानों में उतरती वो गुनगुनाहट सन्नाटे का संगीत था या फिर धीमी बारिश की आकुल गहरी साँसें।  हाँ , नहर के ताम्बे वाले बिगुल पर गिरती हज़ारों नन्ही नन्ही बूँदों  का संगीत साफ़ सुना जा सकता था।    




कवियत्री - Kaffka Margit 

जन्म -   10th June ' 1880 , Nagykároly

निधन - 1s December ' 1918 , Budapest 


अनुवादक - इन्दुकांत आंगिरस 

Thursday, January 21, 2021

कीर्तिशेष कृष्ण कुमार चमन देहलवी और उनकी पुरानी दिल्ली

 

बेहतर  है  टूट  पड़े उस पे बिजलियाँ 

जो आदमी ज़मी के लिए आस्मां  बने 


उस्ताद चमन देहलवी का उपरोक्त शे'र उन सब लोगो की तरफ़ इशारा करता है जो अपने स्वार्थ के लिए दूसरों  के निवाले छीन रहे हैं। 

एक कवि , शाइर , कलाकार आज भी एक पहरेदार की तरह सजग है और निरंतर अपनी साधना में रत है।  मीडिया की चकाचौंध में कविता का जादू समाप्त होता जा रहा है लेकिन ५०० साल पुरानी ग़ज़ल विधा आज भी परवान चढ़ रही है। दिल्ली का इतिहास गवाह है कि यह हमेशा अदीबों का शहर रहा है। पुरानी दिल्ली में आज भी मिर्ज़ा ग़ालिब , दाग़  देहलवी , उस्ताद इब्राहिम ज़ौक़ , हीरा लाल फ़लक देहलवी की ग़ज़लें गूँजती रहती हैं। पिछले दिनों जब पुरानी दिल्ली जाना हुआ तो उस्ताद चमन देहलवी से हुई एक पुरानी मुलाक़ात ताज़ा हो गयी।

 

दाग़ स्कूल के नामवर शाइर उस्ताद हीरा लाल फ़लक देहलवी के शागिर्द कृष्ण कुमार चमन देहलवी ने २० वर्ष की आयु से ग़ज़ल कहनी  शरू कर दी थी और लगभल २० सालो तक इन्होने " यादगार -ए -अंजुमन फ़लक ,(दिल्ली की अदबी संस्था) की बागडोर संभाले रखी । अपने उस्ताद फ़लक देहलवी का ज़िक्र करते हुए चमन साहिब ने फ़रमाया -

" उस्ताद फ़लक साहिब उस्तादों के उस्ताद थे। एक बार एक मुशायरे में उन्होंने ग़ज़ल पढ़ी जिसका शोर लखनऊ तक उठा -

अराइस्ते  बज़्में ऐश हुई ,   अब रिन्द पिएंगे खुल -खुल के 

झुकती है सुराई सागर पे ,नग़में हैं फ़ज़ा में क़ुल - क़ुल के 


इस मतले में पिरोय " क़ुल - क़ुल " अल्फाज़ को लेकर काफी शोर उठा। लखनऊ के शाइरों ने कोश छान मारे किन्तु यह लफ्ज़ कही नहीं मिला।  तब  उस्ताद फ़लक ने इस पर रौशनी  डाली और बताया कि सुराही से पानी निकालते  समय छलकता है संगीत - क़ुल - क़ुल का। 

उस्ताद चमन देहलवी ने कई दशकों तक मुशायरे पढ़े। ग़ज़ल के अलावा चमन साहिब की ख़्याल गोई  विधा में भी गहरी पैठ थी। आज भी १५ अगस्त को पुरानी दिल्ली के लाल दरवाज़े मोहल्ले में  ख़्याल गोई की प्रतियोगिताएं आयोजित होती हैं जिसमे देश के नामवर शाइर शिरकत फ़रमाते हैं ।  ख़्याल गोई का मुकाबला घंटों चलता है जिसमे शाइरों को आशु शाइरी में जवाब देना पड़ता है। उस्ताद चमन देहलवी की ख़्याल गोई की एक बानगी देखें -


यह देखना है जहाँने ग़म में मुझे न कब तक ख़ुशी मिलेगी 

उसी पे रख दूँगा  अपना दामन   जो आँख रोती हुई मिलेगी  


जब उस्ताद चमन देहलवी  से मैंने उनकी कुछ पुरानी यादों के बारे में पूछा तो एक पल को उदास हो गए और फिर फ़रमाया -

" वो ज़माना कुछ और था , लोग मिलनसार थे ,एक - दूसरे की इज्ज़त करते थे। पुरानी दिल्ली ,हिम्मतगढ़ ( अंगूरी घट्टा )तक महदूद थी। उसके बाद दिन में भी सुनसान रहता था ।  हाँ , हरिहर महाराज की कुटिया बहुत पुरानी है और शाह जी का तलाब तो अब इमारतों के नीचे दफ़्न हो चुका है।  उन दिनों यहां इतनी भीड़ - भाड़ नहीं थी और न ही इतनी गंदगी थी।  लेकिन आज तो पुरानी दिल्ली एक नरक से बढ़ कर कुछ नहीं।  अब तो पतंगों के रंग भी बदरंग हो चुके हैं और उनकी उड़ान भी अब पहले जैसी नहीं रही।  यह देश का दुर्भाग्य है कि हम पुरानी दिल्ली की सांस्कृतिक विरासत को बचा नहीं सके ।  "


उस्ताद चमन देहलवी के शागिर्दों की फ़ेहरिस्त बहुत लम्बी है जिनमें सर्वश्री अनिल वर्मा 'मीत', अरविन्द कुमाअश्क़  और कृष्ण कुमार ' गुल 'के नाम उल्लेखनीय हैं । यह अफ़सोस की बात है कि उनकी कोई भी किताब अभी तक प्रकाशित नहीं हुई है। 



जन्म - 2nd March ' 1937 , Delhi 

निधन DOD  की   जानकारी जुटाई जा रही है। 



NOTE : जनाब  अनिल मीत को उनके सहयोग के लिए शुक्रिया, उस्ताद चमन देहलवी  से हुई  मुलाक़ात का श्रेय  भी जनाब  अनिल मीत को ही  जाता है।

Monday, January 18, 2021

हंगेरियन लोक कथा - Égig Érő Mesefa का हिन्दी अनुवाद


Égig Érő  Mesefa  -  गगनचुम्बी क़िस्सागो पेड़ 



प्राचीन समय की बात है , एक  वृद्ध व्यक्ति था। वह अकेले ही अपने दिन गुज़ारता था क्योंकि इस दुनिया में उसका कोई नहीं था। 

 एक बार उसे राजमा का एक दाना मिला , जिसे उसने आँगन में बो दिया। राजमा का बीज फूट पड़ा और बढ़ने लगा। बढ़ते बढ़ते इसने एक विशाल वृक्ष का रूप ले लिया। लेकिन पेड़ का बढ़ना तब भी नहीं रुका और अंत में आकाश को छूने लगा। इससे अधिक ऊपर बढ़ना इसके लिए संभव नहीं था इसीलिए यह दूसरी दिशाओं में फैलने लगा। इसकी सुन्दर शाखाओं में से छोटी - छोटी टहनियाँ भी निकल रही थी। 

 वृद्ध व्यक्ति बहुत ख़ुश था क्योंकि अब इस विशाल वृक्ष की ठंडी छाँव आँगन में फैल गयी थी। उस समय तो उसकी ख़ुशी का ठिकाना ही नहीं रहा जब गगनचुम्बी पेड़ ने कहानियों की झड़ी लगा दी। वृक्ष ने अनेक दिलचस्प कहनियाँ सुनाई , यहाँ तक कि बाद में वृद्ध व्यक्ति ने कहानियाँ सुननी बंद कर दी।

 पेड़ पर इतनी कहानियाँ उग आई कि उनसे आँगन , गावँ, शहर और यह संसार भर गया। लेकिन बच्चों को इससे कोई परेशानी नहीं थी ,वे तो रात - दिन बस कहानियाँ सुनना चाहते थे।

 एक बार पेड़ के शिखर पर ठीक बीचो-बीच एक लोबिया का दाना उग आया। यह लोबिया का दाना पक गया था। पका हुआ लोबिया का दाना एक आड़ू की मानिंद इस तरह ज़मीन पर गिरा कि गिरते  ही उसमे से एक फुदकता हुआ सुन्दर लड़का निकला । वृद्ध व्यक्ति ने ख़ुशी से उसका नाम लोबिया यांको रख दिया। लेकिन उसकी ख़ुशी लम्हे भर की थी क्योंकि वह लड़का वृद्ध व्यक्ति के साथ नहीं रहना चाहता था। यांको दुनिया की सैर के लिए यह कह कर निकल पड़ा कि वह कही भी नहीं ठहर सकता क्योंकि बच्चें उसकी प्रतीक्षा कर रहें हैं। वह जहाँ  भी गया उसकी राह में हज़ारों आश्चर्य आएँ। 

 गगनचुंबी पेड़ पर शायद तब से ही कहानियाँ उगती हैं , एक से बढ़ कर एक। सभी उन कहानियों से परिचित हैं।
 
लोबिया यांको अपनी यात्रा के दौरान हर तरफ़  देखता है कि लोग उसे पहचानते हैं कि नहीं। बच्चों ! अगर तुम सब भी उस गगनचुम्बी पेड़ के नीचे जाओगे तो तुम्हें ऐसी कहानियाँ सुनने को मिलेंगी जो अब तक तुमने सुनी नहीं होंगी।




अनुवादक - इन्दुकांत अंगिरस 

कीर्तिशेष प्रो.वशिनी शर्मा और उनका हिन्दी प्रेम

 


                                                    कीर्तिशेष प्रो.वशिनी शर्मा


हिन्दी भाषा के प्रचार - प्रसार में हिन्दी भाषा के कवियों और लेखकों के अलावा हिन्दी भाषा के शिक्षकों एवं हिन्दी भाषा संस्थानों का विशेष योगदान रहा है। विशेष रूप से केंद्रीय हिन्दी सचिवालय , दिल्ली  एवं केंद्रीय हिन्दी संस्थान ,आगरा दो ऐसी सरकारी संस्थाएं  हैं जो न केवल भारत में अपितु विदेशों में भी हिन्दी के प्रचार -प्रसार में लगी  हैं । केंद्रीय हिन्दी संस्थान ,आगरा  में विदेशों से पधारे विद्यार्थियों को हिन्दी सिखाई  जाती है। पिछले दिनों केंद्रीय हिन्दी संस्थान ,आगरा से जुडी कीर्तिशेष प्रो.वशिनी शर्मा गोलोक सिधार गईं । 

यह अत्यंत हर्ष की बात है कि मोडलिंगुआ कि निदेशक रवि कुमार ने उनकी स्मृति में  ई-संगोष्ठी  का आयोजन किया ।Modlingua के  निदेशक रवि कुमार से मेरी मुलाक़ात  लगभग ३५ साल पुरानी होगी ।  मेरी जानकारी में Modlingua विदेशी भाषाओं से जुड़ा हुआ था ,यह हर्ष का विषय है कि मोडलिंगुआ हिन्दी भाषा के प्रचार प्रसार में भी संलग्न है।    ई-संगोष्ठी की  विस्तृत रिपोर्ट पढ़ें  -


 हिन्दी शिक्षक बंधु की संचालिका प्रो. वशिनी शर्मा की पुण्यस्मृति को श्रद्धांजलि अर्पित करने के लिए मोद्लिंगुया, विचारक मंच और केन्द्रीय हिन्दी संस्थान द्वारा  16 जनवरी, 2021 को  ई-संगोष्ठी का आयोजन किया गया।  इस कार्यक्रम को यूट्यूब के जरिये modlingua channel पर भी प्रसारित किया गया ।  इस कार्यक्रम का संयोजन modlingua learning के निदेशक रवि कुमार और केंद्रीय हिंदी संस्थान के IT के प्राध्यापक श्री अनुपम श्रीवास्तव ने संयुक्त रूप में किया ।  इस ई-संगोष्ठी में प्रो. वशिनी शर्मा के  सहकर्मी विद्वानों ने भी भाग लिया।  ई-संगोष्ठी के आरंभ में अपनी अभिन्न मित्र और सहयोगी को स्नेहसिक्त श्रद्धांजलि देते हुए हिन्दी के प्रख्यात कवि पद्मश्री अशोक चक्रधर को उद्धृत करते हुए रेल मंत्रालय के पूर्व निदेशक (राजभाषा) विजय कुमार मल्होत्रा ने कहा कि वशिनी जी के जाने से  हिन्दी बहुत दुःखी हो गई है ।  श्री मल्होत्रा ने उनकी बालसुलभ जिज्ञासा के गुण की ओर इंगित करते हुए बताया कि उन्होंने हैदराबाद में उनके साथ मिल कर रेलवे के उद्घोषकों और चल टिकट निरीक्षकों को  हिन्दी का शुद्ध उच्चारण करने के लिए विशेष पाठ्यक्रम तैयार किये थे।   हिन्दी के वरिष्ठ प्रो.  जगन्नाथन् ने इस बात को आगे बढ़ाते हुए बताया कि संस्थान के हैदराबाद केंद्र द्वारा संचालित नवीकरण पाठ्यक्रमों में नवप्रवर्तन को शामिल करने में वशिनी जी की विशेष भूमिका रही।  उन्होंने अनेक भाषा खेल बनाए एवं  डाकियों के लिए भी पाठ्यक्रम चलाये ।  प्रो. जगन्नाथन् की आरंभिक पुस्तक ‘प्रयोग और प्रयोग’ में सम्मिलित हैदराबादी हिंदी पर लिखे उनके लेख की चर्चा करते हुए केंद्रीय हिंदी संस्थान के IT के प्राध्यापक श्री अनुपम श्रीवास्तव ने इसे एक शोधपरक लेख बताया और ग़ालिब  के शब्दों में कहा- 

शमा हर रंग में जलती है सहर होने तक’. 

संस्थान की निदेशक प्रो. बीना शर्मा ने उन्हें अजातशत्रु के रूप में याद करते हुए अपनी श्रद्धांजलि अर्पित की.केंद्रीय हिन्दी संस्थान के उपाध्यक्ष श्री अनिल जोशी ने उन्हें अपनी भाव-भीनी श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए कहा कि उन्होंने हिन्दी शिक्षण को अपनी ममता और स्नेह से सिंचित किया।  उनके वरिष्ठ सहयोगी प्रो. के. के. गोस्वामी ने कहा कि वह किसी भी विद्वान् के कृतित्व को भरपूर सम्मान देती थीं. अपनी गुरुतुल्य सहेली को रुँधे गले से स्मरण करते हुए उनकी सहकर्मी प्रो. मीरा सरीन ने बताया कि वह अपने शैक्षणिक कार्यों की व्यस्तता में भी अपने पारिवारिक दायित्वों की अवहेलना नहीं करती थीं।  वशिनी जी के घर का माहौल पूरी तरह शैक्षणिक था। उनके माता-पिता घर पर संस्कृत में ही बातचीत करते थे। 

वशिनी जी के सुपुत्र विक्रांत शास्त्री ने अपनी स्नेहमयी माँ को याद करते हुए कहा कि वह यह मानने के लिए तैयार नहीं हैं कि वे उनके साथ नहीं हैं ।  अपने पिता श्री सीताराम शास्त्री और अपनी माँ के पारिवारिक जीवन की चर्चा करते हुए विक्रांत ने बताया कि उनके माता-पिता एक दूसरे के पूरक थे।  अगर माँ अपनी मेज़ पर बैठकर कुछ लेखन कार्य कर रही होती थीं तो उनके पिता रसोई का काम देखते थे ।  उनके पिता ने ही उन्हें IT के क्षेत्र में पढ़ाई करने के लिए प्रेरित किया।  चार दशक की अपनी सहकर्मी वशिनी जी की चर्चा करते हुए प्रो. अश्विनी श्रीवास्तव ने बताया कि भाषा प्रौद्योगिकी के लिए भाषा प्रयोगशाला के निर्माण के लिए उन्होंने वशिनी जी के साथ मिलकर कार्य किया था। 

अमरीका के पेंसिल्वेनिया विश्वविद्यालय  के वयोवृद्ध प्रो. सुरेंद्र गंभीर ने वशिनी जी के साथ संपन्न अपनी दो परियोजनाओं की चर्चा करते हुए बताया कि Business Hindi की महत्वाकांक्षी योजना को पूरा करने उन्होंने जो अथक परिश्रम किया, वह बहुत ही प्रशंसनीय था. आगरा प्रवास में उनके घर पर ठहर कर उन्होंने देखा कि तीन पीढ़ियाँ कैसे मिलकर एक साथ रह सकती हैं।  प्रो. जगन्नाथन् ने भी उनके घर के माहौल को याद करते हुए कहा कि उनके घर का वातावरण बहुत आत्मीय और सहज था।  उन्होंने बताया कि वशिनी जी से उनकी पहली मुलाक़ात  सीताराम जी की दुल्हन के रूप में हुई।  मृदुभाषी, स्मितवदना, उनकी आँखों से सौहार्द झलकता था।  संस्थान के लोग कहते थे कि ईश्वर ने अच्छी जोड़ी मिलायी है।  दोनों मिलनसार थे, काम के प्रति दत्तचित्त थे. दीन-दुनिया से कुछ लेना-देना नहीं, हमेशा शैक्षिक कार्यों में लीन रहते थे।  संस्थान के कार्यों से जुड़ने के लिए वशिनी जी ने भाषाविज्ञान में एम.ए. किया, वाक् विकारों पर विशेषज्ञता प्राप्त की।  दोनों ने मिलकर मनोभाषाविज्ञान पर पुस्तक लिखी. उनमें कार्य के प्रति निष्ठा भाव था।  दुर्भाग्य से सीताराम शास्त्री जल्दी चले गये, फिर भी वशिनी जी हिम्मत नहीं हारी, अकेले ही बच्चों को संभाला , उन्हें चारित्रिक विकास की प्रेरणा दी । 

समापन से पूर्व के वक्ता डॉ. स्नेह ठाकुर ने वशिनी जी के साथ बिताए उन पलों को याद किया जो उन्होंने गिरमिटिया और प्रवासी सम्मेलन में वशिनी जी के साथ बिताए थे और तब वशिनी जी ने हिन्दी को कनाडा तथा अमेरिका मेँ बसे प्रवासी भारतीय तक पहुँचाने  के लिए पुरज़ोर  प्रयास किया. कनाडा से प्रकाशित 'वसुधा'  हिन्दी साहित्यिक पत्रिका की संपादक-प्रकाशक श्रीमती स्नेहा ठाकुर ने ‘सादा जीवन उच्च विचार’ की प्रतिमूर्ति प्रो. वशिनी शर्मा की दिवंगत आत्मा के लिए गीता के श्लोक- 

अछेद्योS यमदाह्योSयमक्लेद्योSशोष्य एव च’ का पाठ करते हुए उनकी आत्मा की शांति की कामना की.


श्रद्धांजलि की गोष्ठी का समापन करते हुए श्री अनुपम श्रीवास्तव ने बताया कि भाषा प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में वशिनी जी की महत्वपूर्ण भूमिका रही थीं , वह वाक् चिकित्सा की भी विशेषज्ञ थीं। वह कभी निराश नहीं होती थीं। श्री मल्होत्रा ने वशिनी जी को सच्ची श्रद्धांजलि देने के लिए संस्थान के सामने तीन संकल्प रखे. ये संकल्प अधूरे रहने के कारण वह अंतिम समय में भी विचलित  थीं ।


जन्म  - 1944

निधन - 2 जनवरी , 2021 


NOTE : Modlingua  के निदेशक श्री रवि कुमार को उनके सहयोग के लिए शुक्रिया। 


VIDEO LINK: https://youtu.be/8DeMc2iNSxQ


Thursday, January 14, 2021

हंगेरियन कविता - Tao का हिन्दी अनुवाद

 

Tao - ताओ 


लम्बे सफ़र पर यही काम था

एक  ( ख़ुदी में डूब जाना )

कविता , आशा भरी  पहेली

सख्त जूते के ढांचें में 

चमड़े के तलुओ को घुसाना 

अब अपने ही सफ़र पर 

ख़ुद अपने बिना कैसा लगेगा। 

जब सफ़र के दौरान मुझे 

ख़ुद अपनी ख़बर नहीं रहती 

' अदबी होना भी मूल्यहीन '

शब्दकोष के तीसरे अनुच्छेद में 

दर्शित , और मेरे काले मछलीघर के 

तले में बिछी काई  की तड़पन में 

ख़ुद को शून्यता की 

सबसे नीचे वाली  परत में करता हूँ दफ़्न। 

सड़क खाली है लेकिन उसकी चहल -पहल

कभी  बंद नहीं होती 

और  सब कुछ एक जैसा नहीं:मेरे साथ  

या फिर मेरे बिना सूनी -सूनी । 

चौराहे पर 

भागता बचपन 

अधेड़ नक्काल 

छिटकती भीड़ 

नुक्कड़ वाले मकान के पीछे

एक पल में गायब हो गयी,यकायक 

सब कुछ  - कुछ भी नहीं था

ऊँचा टीला भी ढक गया।  

ज़मीन से ऐसे अलग हुए 

जैसे ईश्वर  की तस्वीर से कलगी 

चैराहों से झाड़ भी हुए नदारद 

और शेष था मेरे सफ़र पर  

मेरे बिना  सिर्फ़ एक सूनी सड़क 

उजड़ी आज़ादी की 

खनखनाती तलवार। 



कवि - Tőzsér Árpád  ( जन्म - 06th October ' 1935 ,Gömörpéterfala ,Slovakia  )


अनुवादक - इन्दुकांत आंगिरस 



Tuesday, January 12, 2021

तख़ल्लुस - असर , बशर और जलाली

 

कहीं   "असर " बे-असर  न  हो जाये इसीलिए मैंने अपना तख़ल्लुस ( उपनाम ) "असर "से अब " बशर " कर लिया है। उर्दू और हिन्दी अदब में यह रवायत है कि शाइर , लेखक अपना उपनाम रखते हैं जोकि उनके वास्तविक नाम से भिन्न होता है। विशेषरूप से ग़ज़ल के मक़्ते में शाइर अपना तख़ल्लुस इस्तेमाल करता है जिससे पता लगता है कि यह ग़ज़ल किस शाइर की है। मेरा वास्तविक नाम इन्दुकांत शर्मा है लेकिन मेरा उपनाम इन्दुकांत आंगिरस है , लेकिन ग़ज़ल में यह उपनाम जमता नहीं। 

             आज से लगभग 40 साल पहले मेरी मुलाक़ात उर्दू के मशहूर शाइर कीर्तिशेष जनाब डी राज कँवल से हुई जोकि परिचय साहित्य परिषद् के संरक्षक  भी थे। उन्होंने मुझे और मेरे कवि मित्र  शिवनलाल  को ग़ज़ल लिखने के लिए प्रेरित किया।  हम दोनों  उनके शागिर्द बन गए। उन्होंने मुझे " असर " तख़ल्लुस दिया और शिवनलाल को " बशर "। हमे कँवल साहिब ने यह बताया था कि असर लखनवी नाम से एक मशहूर शाइर रह चुके है।  अभी हमने ग़ज़ल की दुनिया में क़दम रखा ही था , क़ाफ़िया और रदीफ़ को समझने लगे ही थे कि तभी कँवल साहिब का इंतकाल हो गया। 

अफ़सोस कि उनसे हम कुछ ज़्यादा नहीं सीख पाए।जनाब सीमाब सुल्तानपुरी भी  कँवल साहिब के शागिर्द है। कँवल साहिब के  इंतकाल के बाद मैंने जनाब सीमाब सुल्तानपुरी से गुज़ारिश करी कि वे मुझे ग़ज़ल के उरूज़ के बारे में समझा दें  लेकिन उन्होंने यह कह कर इस बात को टाल  दिया कि यह मुश्किल काम हमारे बस का नहीं है।  ख़ैर कँवल साहिब के बाद और किसी की शागिर्दी करने का सुअवसर कभी नहीं मिला। ग़ज़ल का सफ़र चलता रहा जोकि आज भी ज़ारी है। 


अँगरेज़ी भाषा में एक कहावत है -  Two is a company ,Three is a Crowd   लेकिन दिल्ली की वह शाम मुझे कभी नहीं भूलती  जब  हम तीन शाइर एक दूसरे को company दे रहें थे।  एक मुशायरे में मेरी मुलाक़ात दो नए शाइरों से हुई। मेट्रो ट्रैन का बीस मिनट का वो सफ़र बहुत दिलचस्प था।  हम तीनो एक ही मेट्रो में एक साथ सफ़र कर रहे थे - सर्वश्री प्रमोद शर्मा " असर ", अरविन्द " असर " और इन्दुकांत आंगिरस " असर " । यह  एक अजीब इत्तफ़ाक़ था कि एक ही तख़ल्लुस के तीन शाइर एक साथ।  जनाब प्रमोद शर्मा " असर " कीर्तिशेष सर्वेश चंदौसवी के शागिर्द है। 

मेरे कवि मित्र जनाब शिवनलाल ,अलीगढ़ के नज़दीक " जलाली " कस्बे के रहने वाले हैं ।  बहुत साल पहले उनके परिवार में किसी की शादी के सिलसिले में उनके गावँ जलाली जाने का अवसर मिला था।  उर्दू अदब में यह भी रवायत है कि शाइर अपने नाम के साथ अपने शहर या गावँ का नाम जोड़ देता है जिससे पता लगता है कि वह शाइर किस शहर का रहने वाला है ,  मसलन - असर लखनवी , ख़ुमार बाराबंकी ,जिगर मुरादाबादी , मजाज़ लखनवी, फ़िराक़ गोरखपुरी   आदि। लगभग एक साल पहले  एक पाकिस्तानी शाइर शकेब जलाली के बारे में पढ़ा , जोकि जलाली के रहने वाले थे।  मैंने इस बात का ज़िक्र अपने मित्र शिवनलाल  से किया और उन्हें सुझाव दिया कि वह अपना उपनाम नाम "बशर" की  जगह "जलाली " रख ले क्यूँकि वह जलाली के रहने वाले है। उन्हें मेरा सुझाव पसंद आया और अब उनका कवि नाम - शिवनलाल जलाली है। 


जनाब प्रमोद शर्मा " असर " और अरविन्द " असर " दोनों ही मुझसे बेहतर ग़ज़लकार हैं और मुझे लगता है कि उनके रहते मुझे अपना तख़ल्लुस बदल लेना चाहिए। क्यूँकि शिवनलाल ने अब अपना उपनाम बदल लिया है और कँवल साहिब हम दोनों के ही उस्ताद थे। मैंने शिवनलाल जी के सामने प्रस्ताव रखा और उनसे इजाज़त माँगी कि क्या मैं " बशर " तख़ल्लुस इस्तेमाल कर सकता हूँ ? उन्होंने सहर्ष मेरे प्रस्ताव को स्वीकार करा और परिणाम स्वरुप अब मेरा  तख़ल्लुस " बशर " हो गया है। बदले हुए  तख़ल्लुस के साथ यह मक़्ता देखें -

 

ऐ ' बशर ' चैन से बैठो घर में 

बेवफ़ाओं को भुला कर देखो 


 

Sunday, January 10, 2021

हंगेरियन कविता - Argirus Királyfi का हिन्दी अनुवाद

 Argirus Királyfi  -  राजकुमार आर्गिरुश



भोर की डगर पर अदृश्य लोग 

बढ़ते ही आ रहें  हैं बहरे  लोग 

आ रहा है विशाल गूँगा जुलूस

तुम्हारे प्रिय समय के द्वारपाल 

एक मुद्दत से तुम्हारी तलाश में हैं 

तुम  निद्रास्थ हो ,राजकुमार आर्गिरुश ?


ख़ुद से आलिंगनबद्ध लोगों को न देखा कभी 

बस देखते रहें जाने वालो को 

अकेले , नितांत अकेले हो तुम 

लेकिन तुम्हारे दरवाज़े को खोल निकलते रहें 

तुम्हारे कमरे को रिक्त कर 

एक-एक कर लोग निकलते रहें 


समय के द्वारपाल तुम्हारी उम्र की सड़क से 

गुज़रते हुए गा रहें हैं दर्द भरे गीत 

लाएँ हैं तुम्हारे लिए दुःख का संगीत 

जिनकी कमर तो हैं पर चेहरे नहीं 

जिनके पदचिह्न तो हैं पर पावँ नहीं 

आर्गिरुश , भागो , पीछा करो इनका 


बढ़ कर उन्हें राह में थामना होगा 

अपनी आँखों में उन्हें भरना होगा 

क्यूँकि तुम्हारे दुखों का कोई मूल्य नहीं 

बिना उनके दुखों की गहराई जाने 

बिना इन गहरे निशानों को पहचाने 

तुम्हारे अपने जीवन का कोई मूल्य नहीं 


बेकार है अब ,राह तुम्हारी अवरुद्ध है

सुरमई शाम में अँधेरी गुफ़ा के द्वार 

तैनात  समय के द्वारपाल, अब 

छिपाए अपना चेहरा , झुकाए  अपना सर 

ग़मगीन जा रहें हैं , गुफ़ा के भीतर 

बजा रहें है मंदिर की घंटियाँ

और कर रहें है गुफ़ा में प्रार्थना 

अब कर लो  ठुकाई उनकी  ।




कवि - Balázs Béla  

जन्म -  4 अगस्त ' 1884 - Szeged 

निधन - 17 मई ' 1949  - Budapest


अनुवादक -इन्दुकांत आंगिरस 



Thursday, January 7, 2021

हंगेरियन कविता - A Lúdhattyú का हिन्दी अनुवाद


                                                 A Lúdhattyú
-  बगुलाहंस


यह बढ़िया पानी  Cayster* का  है , Döncös* का नहीं 

कीचड़ भरा, बदबूदार  लेकिन सुन्दर क्यूँकि  मैं  रहता हूँ इसमें 

अब मैं बगुला नहीं बल्कि राजहंस हूँ 

क्यूँकि तैरने वाली टाँगे और पंख मुझे भी मिले हैं 

तुम गर्व से फूलते औ गर  झुको नहीं तो गर्दन तनी रहती 

बगुले भगत तुम्हारे खेल को सब हैरानी से देखते हैं 

और गर  कोई भी न देखे तब भी मैं देखता हूँ  

जाओ , अब जाओ, प्रिय बगुले प्रेमपूर्वक पानी में

 तुम्हें तैरना तो  आता नहीं , तो किसी सफ़ेद क़लम से 

सैन्य दलों के सिरों पर धरे ताज को रौशन कर दो 

और हीरों जड़े पुष्पगुच्छ उन पर धर दो , तुम्हे तैरना नहीं आता 

और मैं अच्छा तैराक हूँ लेकिन ओ निर्मोही ईश्वर 

तुमने मुझे हास्यप्रद कुड़कुड़ाहट  , कूँ-काँ, कूँ-काँ क्यों दी! 

ऐसी हास्यप्रद कुड़कुड़ाहट  , कूँ-काँ, कूँ-काँ मुझे क्यों दी !!

ये बेढंगी और कुरूप कुड़कुड़ाहट आख़िर क्यों दी !!!




कवि -  Kazinczy Ferenc (1759-1831)


अनुवादक -इन्दुकांत आंगिरस


NOTE : लैटिन और हंगेरियन  भाषा में नदियों के नाम