Sunday, July 13, 2025

Final Geet _राह आसान नहीं है

 दर्द के समुन्दर में    पीड़ा की धार है 

आँसू की कश्ती में जाना उस पार है 


कोई तूफ़ान नहीं है , राह आसान नहीं है 



काँटों की पलकों में , आँसू छिपाती है 

सीने में   अपने ही   ग़म को सजाती है 


शाख़ अनजान नहीं है , राह आसान नहीं है 




क्षण भर का हँसना है , बरसों  का रोना है 

जाने किन हाथो का , मानव खिलौना है   


एक   पहचान नहीं है , राह आसान नहीं है 




महलों की छत पे वो ,जी भर बरसते हैं 

निर्धन के खेत पर ,  सूखे तरसते हैं 


मेघ नादान नहीं हैं , राह आसान नहीं हैं। 


Saturday, July 12, 2025

शहर और जंगल - आधे अधूरे

 आधे अधूरे 


इक गुमनाम सुबह 

धड़कनों में बो कर इक अंकुर 

लौट गईं तुम 

पर बहाव कहाँ रुकता है 

बांधकर नई - नई परिभाषा में 

अनकही अनजानी भाषा में 

पिरोता रहा अपनी धड़कनें 

पर तुम न बाँच पाईं अर्थ 

अनुवाद करते करते 

गुम हो गए शब्द  

Tuesday, July 8, 2025

शहर और जंगल - एक और युद्ध

 एक और युद्ध 


घर की चारदीवारी में 

घुटती बीवी की आकांक्षाएँ 

बच्चों की टूटी स्लेटें 

और दफ़्तर में साहब की ख़ुशामद 

जब छोड़ जाती है दिल पर 

एक कसैली  कड़वाहट 

व्यवस्था की एक एक  शाख़ 

फूँक डालने का आक्रोश  

जब रात में 

टूटी चारपाई पर 

बेतरतीबी से सोये बच्चे की 

मीठी मुस्कराहट के साथ 

बह जाता है ,

तो मैं एक बार फिर से 

शान्ति की प्रतिमा बन 

साधना करने लगता हूँ 

अंदर छिपे  ईमानदार इंसान  की , 

पर अब और नहीं सहा जाता 

यह बात मुझे 

पहले भी कई बार बताई गयी थी -

अधिकार मांगने से नहीं मिलते 

इस युग में

विस्फोट की भाषा 

समझना ज़रूरी है 

और मेरे अंदर का सिपाही 

तैनात हो जाता है 

एक और युद्ध के लिए। 

Friday, July 4, 2025

Final Geet - ज़िक्र ही करे ना जो

 दिल की पुकार का, मुफ़लिस के प्यार का ।


टूटे  से    साज़  का ,   डूबी  आवाज़  का ।


ज़िक्र ही करे ना जो , गीत ही वो क्या.....?




पंछी की  प्यास का , बादल की आस का ।


इतिहास  काल  का , आगे के  साल  का ।


ज़िक्र ही करे ना जो , गीत ही वो क्या......?




लाजो की लाज का , जलते से आज का ।


 टुकड़ों के काँच का , उठी  तेज आँच  का ।


ज़िक्र ही करे ने जो , गीत ही वो क्या.....?




ग़ैरों के  घाव का ,   डूबी सी नाव का 


टूट गए भाग का , तन - मन की आग का 


ज़िक्र ही करे ने जो , गीत ही वो क्या 



कवि - इन्दुकांत आंगिरस

Thursday, July 3, 2025

शहर और जंगल - अंतरराष्ट्रीय बालिका वर्ष

 अंतरराष्ट्रीय  बालिका वर्ष 


काशी से पधारे 

साधू महात्मा के चरणों मैं 

गर्भवती दुलारी ने 

जैसे ही शीश नवाया 

' कन्यावती भव ' का 

आशीर्वाद पाया 

दुलारी झटके से दो क़दम पीछे हटी 

उसकी आँखें रह गयी फटी की फटी 

' महाराज ! आप तो अन्तर्यामी हैं 

मैं तो पहले ही  दो  पुत्रियों की माता हूँ 

फिर एक और !

मुझ दुखिया को कब मिलेगा ठौर ? '

साधु का चढ़ गया पारा 

वह क्रोधित हो हुंकारा 

' चुप कर मूर्ख , पुत्री ही होगी तेरे 

इतना भी नहीं जानती 

समय को नहीं पहचानती 

पूत बन रहे हैं कपूत 

आज ढूँढने पर भी नहीं मिलता 

श्रवण कुमार 

यूँ भी 

यह अंतर्राष्ट्रीय बालिका वर्ष है 

सावधान !

अगर इस वर्ष जन्मा तूने पुत्र !

आज सिर्फ 

लष्मीबाई जैसी 

वीरांगनाओं की हैं दरकार। '

 

Ghazal - RAV _ Lesson

 आज का तरही मिसरा

'फूलों की तर्ह आपका किरदार ही नहीं' 

रदीफ़ - ही नहीं

क़ाफ़िया - किरदार, अखबार, दीदार, सरका, बीमार ,लाचार, अनुसार ख़ूँख़ार, अम्बार, दस्तार आदि

निवेदन - इस मिसरे को मतले में न लें। अन्य किसी शेर में गिरह लगा सकते हैं।

बह्र है

मफऊल फाइलात मुफाईल फाइलुन

221   2121 1221 212

Wednesday, July 2, 2025

शहर और जंगल - बैसाखी पर लटका ईमान

 बैसाखी पर लटका ईमान 


बेबस देखता है 

किसी गहरी खाई में 

अपने ही टुकड़े 

हर तरफ़

दरारें ही दरारें 

आती हैं नज़र ,

मैं कहाँ तक लगाऊँ 

इश्तहार इन सब पर 

इस आकाश के क्षितिज भी 

न जाने कहाँ खो गए ,

कटे पंखों वाले परिन्दें भी 

उड़ने की कोशिश मैं 

थक कर सो गए ,

आओ , आओ 

इनके जागने से पहले 

हम इस जंगल में 

आग लगा दें 

और इंसानियत के 

जितने भी मूल्य हैं 

उन सब को भुला दें।