Wednesday, April 30, 2025

शहर और जंगल - आत्मदाह

 आत्मदाह 


आत्मदाह कोई खेल नहीं 

झुलस जाता है सारा बदन चंद मिनटों में 

रह जाती है सिर्फ राख , सिर्फ राख 


इसे क़ुर्बानी भी कह सकते है आप 

इसे जवानी भी कह सकते है आप 

दीवारों से फोड़ना भी पड़ जाता है सर 

कभी यूँ भी उजड़ जाते हैं घर 

जीवन में यूँ भी आती है निराशा कभी 

बनना पड़ता है ख़ुद भी तमाशा कभी 


तब रह जाता है शेष क्या 

अर्थ क्या अनर्थ क्या 

अब नहीं किसी की डाह 

हँस क्र करता हूँ आत्मदाह 


मेरा ये भुना हुआ गोश्त 

शायद किसी काम आ ही जाये 

मेरे दोस्त !   


मेरे जिस्म से उठता ये धुआँ भी उठ जाएगा

बिखर ही जाएगी मेरी राख 

मेरे ख़ून  की चन्द सूखी हुई बूँदें 

कुछ वर्दीधारी पुलिसवालों के 

भारी जूतों के तले 

तलाश कर सकते हैं आप 

पर मेरे  जले जुए गोश्त की गंध को 

क़ैद नहीं कर पाएगी 

दुनिया की कोई भी ताकत 

दुनिया की कोई भी सरकार 


मेरे जले हुए गोश्त की गंध 

जब घुल जाएगी 

सब की साँसों में 

तब तुम 

किस किस की छाती पे 

चलवाओगे गोली 

किस किस की साँसों पर 

लगवाओगे ताला ?


मेरी क़ुर्बानी को 

इतिहास भी भूल नहीं पाएगा 

मेरा ख़ून एक दिन 

ज़रूर रंग लाएगा 


मेरा ये भुना हुआ गोश्त 

किसी न किसी 

काम आ ही जाएगा 

मेरे दोस्त !

 

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