समीक्षा -
अकुलाते लोगों की कसमसाहट और व्यथा की आहट
- आशीष दशोत्तर
कविता के सामने हर दौर में कई सारे संकट खड़े रहे हैं । कविता इन संकटों का मुकाबला करती रही , इन्हें जवाब देती रही और इनसे उबर कर एक ऐसे समाज की अवधारणा को पेश करती रही, जिसमें आम इंसान को कुछ पल की ख़ुशी नसीब हो सके ।
कोई भी दौर ऐसा नहीं रहा जिसमें मुश्किलें न रही हों , जिसमें परेशानियां न हों , जिसमें विसंगतियां न हों , जहां विद्रूपताओं का घेरा न हो । एक कवि जब इन सभी को अपनी समदृष्टि से देखा है तो वह उनके बीच से भी एक बेहतरीन वक़्त की तलाश करता है । उसके लिए जहां मुश्किल है वही समाधान भी । जहां दुःख - दर्द है , वहीं ख़ुशी भी । जहां किसी की आह है वहीं सुकून भी । कमोबेश इन्हीं सबके बीच से होकर गुज़रने की कोशिश हर कवि ने की है ।
ग़ालिब कहते हैं -
हुस्ने - फ़रोगे- शम्अ- सुखन दूर है असद,
पहले दिले - गुदाख़्ता पैदा करे कोई।
पहले अपने भीतर संवेदनाएं होना ज़रूरी हैं। भीतर जब तक किसी परेशानी को देखकर तकलीफ़ नहीं होती है तब तक बेहतर कविता की रचना नहीं हो सकती । समय के निरंतर होते बदलावों के बीच घिरे मनुष्य के सामने उपस्थित मुश्किलों से सक्रिय पत्रकार और कवि श्री प्रमोद झा भी व्यथित हैं। पत्रकारिता और लेखन के ज़रिए एक लंबे समय से अपने रचाव की दुनिया को विस्तृत करते रहे कवि प्रमोद झा भी अपनी कविताओं में कुछ ऐसी ही संवेदनाओं को आवाज़ देते दिखाई पड़ते हैं। अपने सद्य: प्रकाशित कविता संग्रह 'प्रतिरोध के स्वर ' में वे जनमानस के समक्ष मौजूद ऐसी ही तकलीफ़ों से दो - चार होते हैं।
समय अंधा नहीं होता ,
समय देखता रहता है असंख्य दृश्यों को
जीवन धाराओं को
समय के हृदय में बहुत सारी अनुभूतियां ,
जीवन रूपी रंगमंचों के कलाकारों के
अनगिन कृत्य और दुष्कृतियों की
समीक्षा करता है समय ,
उत्कृष्ट ,उत्कृष्टतम कृतियों की
प्रशंसा करता है समय
सत्य - असत्य अंधकार और प्रकाश का
साक्षात्कार करता है समय।
(समय अंधा नहीं होता)
प्रमोद झा की कविताएं समाज के शोषित और व्यथित वर्ग की आवाज़ को बुलंद करती हैं । यह स्पष्ट है कि हर दौर ने इस समाज को विभक्त कर रखा गया है। एक शोषित वर्ग है जो शोषण का शिकार हो रहा है और एक शोषक वर्ग है जो निरंतर बढ़ता ही जा रहा है । उसके रूप बदल रहे हैं । वह शोषकों के रक्त का प्यासा है । किसी न किसी तरह दमित लोगों के रक्त को चूस रहा है । एक पूरे के पूरे वर्ग को उपेक्षित कर पीड़ाएं झेलने के लिए मजबूर किया जा रहा है। उसकी तरफ़ ध्यान नहीं दिया जा रहा है और उसके नाम पर राजनीति की जा रही है। ऐसे समाज के प्रति एक कवि के मन में संवेदनाएं उभरना स्वाभाविक हैं।
गहन पीड़ा में कुकुरमुत्तों जैसे
उग आए कैक्टस
मौत की घाटियों में रक्तधाराएं ,
त्रासदियां ही त्रासदियां ,
मातमी सन्नाटों को बारंबार उघाड़ने
और चीरने की असफल कोशिशें ,
कितने ही घर- परिवार बिखर गए
ताश के पत्तों की मानिंद
राक्षस रक्तबीजों की गिरती ही रहीं रक्त बूंदें ,
एक से बढ़कर एक रक्तबीज।
(ख़ून में नहाया मणिपुर)
जिस समाज में इतने दुःख दर्द हों, पीड़ाएं कदम-कदम पर मौजूद हों, वहां एक संवेदनशील व्यक्ति चुप नहीं रह सकता । कवि प्रमोद झा बहुत बेचैनी और अकुलाहट के कवि हैं । उनके भीतर का आक्रोश फूट-फूट कर कहता है कि निर्दयी समाज किस तरह आम इंसान के ग़म से बेफिक्र हो सकता है । किसी मजलूम की आंखों से गिरते हुए आंसू क्यों उसे बेचैन नहीं करते ? क्यों उसे सदैव कुचलने के लिए मजबूर किया जाता है ? उसके भीतर के करूणामयी संसार को कोई क्यों नहीं देख पाता ? ऐसे कई सारे सवाल एक संवेदनशील कवि को बेचैन करते हैं। यही बेचैनी एक कवि के ज़िंदा होने का सबूत भी है। जिस कवि को इस तरह के दुःख दर्द बेचैन नहीं करते , वह सत्ता का चरणपूजक हो सकता है , जनता का चाहने वाला कभी नहीं।
ओ करुणा ,
तेरी आंखों में आंसू
हमेशा रोती रहती है ,
क्या रात भर तू सोती नहीं है
जब भी तुम्हारे बारे में सोचता हूं
कितने ही चेहरे सामने आ जाते हैं ,
मीरा का भजन गूंजने लगता है
कृष्ण प्रेम में मीरा रोती थी
अश्रुधार में तू ही तो समाई करुणा ।
ओ करुणा ,
यशोधरा को भी नहीं छोड़ा
जीवन पर सिद्धार्थ के बिना
बिछोह वेदना में तड़पती रही वह
उर्मिला के शयनकक्ष में प्रविष्ट हो गई
लक्ष्मण के बिछोह में गिरते रहते आंसू
तन , मन अश्रुपूरित।
(आंसू पोंछ नहीं पाई करूणा)
मुक्तिबोध जब कहते हैं ' तय करो , तुम किधर हो ?' तब वह पूरे समाज के सामने एक प्रश्न खड़ा करते हैं । यही प्रश्न आज हर किसी के समक्ष खड़ा हुआ है । दिन-ब-दिन समाज को विभक्त करने की कोशिशें हो रही हैं । मनुष्य को मनुष्य से जुदा किया जा रहा है । इतिहास के गड़े मुर्दे उखाड़ कर वर्तमान को तहस-नहस किया जा रहा है । भविष्य की एक ऐसी ज़मीन गढ़ी जा रही है जिसमें नफ़रत और हिंसा के अतिरिक्त कुछ नहीं हो। वर्तमान पीढ़ी के ख़्वाबों को कुचला जा रहा है । जिन हाथों में रोज़गार होना चाहिए वहां तरह-तरह के रंगों के परचम थमाए जा रहे हैं। अपने समय को गढ़ने की चिंता में जिस पीढ़ी को मसरूफ़ होना चाहिए , उन्हें प्रभात फेरियों में उलझाया जा रहा है । समाज से समन्वय की भावनाओं को ख़त्म किया जा रहा है । सदियों से मौजूद हमारी साझा संस्कृति को तार-तार किया जा रहा है। वक़्त ने जिनके लिए जान की बाज़ी लगाना सिखाया , उन्हें जान का दुश्मन बनाया जा रहा है । ऐसे में एक कवि की चुप्पी लाज़िमी नहीं । उसे बोलना चाहिए । ऐसी ताक़तों के विरुद्ध बोलना चाहिए । उन परिस्थितियों के विरुद्ध बोलना चाहिए जो ऐसे वातावरण को निर्मित करने के लिए ज़िम्मेदार है । कवि प्रमोद झा भी ऐसी परिस्थितियों के विरुद्ध प्रतिबद्धता से आवाज़ उठाते हैं । वे कविताओं के ज़रिए समाज के मौजूदा हालात और मनुष्यता के सामने के ख़तरों से भी आगाह करते हैं।
क्या दे सकते हो ?
हम अच्छी तरह जानते हैं ,
बखूबी जानते हैं तेरी हरकतों , फितरतों
और करगुजारियों को
सालों से हाशिए पर जमे
उपेक्षितों , वंचितों , दलितों
और आदिवासियों को
बेहद जरूरी हक़ अधिकार मिले ही कहां हैं ,
तुम नहीं दे सकते बहुत सारी रोटियां
बीमारों को दे नहीं सकते दवाइयां
हर तरफ पड़े हुए हैं रोज़गार के लाले।
(क्या दे सकते हो तुम )
आम जनता की तकलीफों से वाबस्ता रहकर तरक्की पसंद तहरीक़ के हमसफ़र शाइर फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ कहते हैं -
यही जुनूं का , यही तोको-दार का मौसम
यही है ज़ब्र , यही इख्तियार का मौसम।
इस मौसम को समझना और इससे होकर गुज़रना बहुत मुश्किल है। देखा जाए तो एक रचनाकार की दुनिया किसी दीवाने से कम नहीं होती । उसके सामने सब कुछ होते हुए भी वह वही दृश्य देखता है जिसका इजाज़त उसका दिल देता है। तमाम खुशहालियों के बीच उसकी नज़र उन अभावों पर ही जाती है जिससे एक बहुत बड़ा वर्ग प्रभावित है । एक रचनाकार को इसीलिए दीवाना भी कहा जाता है कि उसकी दीवानगी का आलम सिर्फ़ वही समझ पाता है । यही दीवानगी उसकी ज़िद भी बनती है , उसका जज़्बा भी बनती है और उसका जुनून भी । एक कवि के यहां जब यह सब कुछ मौजूद होता है तो वह अपने भीतर के जज़्बात को शिद्दत से उभार पाता है।
बड़ी हसीं दुनिया होती है
आशिकों और दीवानों की ।
जज़्बात ही जज़्बात , आगा पीछा न कभी
सोचे और समझने की
दीवानगी हावी होती है इस कदर के
तमाम बहारों को सीने में समेट लें
रोजी-रोटी की फैलती चादर को
दरख्तों पर ही टांग दें ,
ग़मों का बाज़ार भी लगाने से फायदा ही क्या
दिल ही ख़रामा-ख़रामा चले ,
दिमाग़ से और भी क्या लेना
लेनदारी तो उसी महबूबा से जो छत पे
बारहा आवाजाही करती रहे।
(दीवानों की दुनिया)
कवि प्रमोद झा ने अपनी इन 65 कविताओं में इशारों ही इशारों में बहुत सी बातें समझाने की कोशिश की है। कई कविताओं में सीधे-सीधे ज़िम्मेदारों से आंख मिलाने का साहस भी किया है । ये कविताएं बहुत सीधी कविताएं हैं । इनमें अधिक उतार-चढ़ाव नहीं । शब्दों की बाज़ीगरी नहीं। पेचीदगियां भी नहीं , लेकिन सच्चाई हर जगह मौजूद है । ये कविताएं सच्चाई को बयां करती कविताएं हैं । इनमें सच्चे इंसान को किसी तरह का खौफ़ नजर नहीं आता लेकिन बुरे आदमी का दिल दहलता है।
वक़्त से आंख चुराने की कोशिश भी ये कविताएं नहीं करतीं। ये सीधे-सीधे बतियाती हैं , आपके भीतर उतरती हैं और आपके भीतर किसी कोने में मौजूद करुणा को बाहर निकाल कर लाती है। उन करूणामयी आंखों से जब आप संसार को देखते हो तब आपको महसूस होता है कि जो खुशहाली आपके सामने दिखाई जा रही है , उसके पीछे का सच क्या है। ज़िम्मेदार किस तरह से लोगों को बहका रहे हैं, बरगला रहे हैं । किस तरह से सरकारें आम इंसान को चंद सहूलियतों की आड़ में छल रही हैं । किस तरह ग़रीब की थाली आज भी खाली है और अमीरों की ताक़त निरंतर बढ़ रही है। चंद धनाढ्यों की सूची अख़बारों में पेश कर समाज को संपन्न बताने की कोशिशें हो रही हैं । सहूलियतों की भीख दे देकर आम इंसान को कमज़ोर किया जा रहा है । उसे परजीवी बनाया जा रहा है । उसे सिर्फ एक टूल की तरह इस्तेमाल किया जा रहा है । ये कविताएं इस पूरे षडयंत्र का पर्दाफाश करती हैं और बहुत सादगी से अपनी बात उन लोगों तक पहुंचती हैं जो इन सारे षड्यंत्रों का शिकार हैं । कवि प्रमोद झा इन कविताओं के ज़रिए जिस कसमसाहट को सामने लाने की कोशिश करते हैं , उसमें वे पूरी तरह सफल दिखाई देते हैं।
---------------------
प्रतिरोध के स्वर
कवि - प्रमोद झा
प्रकाशक - समदर्शी प्रकाशन, ग़ाज़ियाबाद
मूल्य - 210/-
-----------------
- 12/2, कोमल नगर
बरबड़ रोड़
रतलाम -457001( म. प्र.)
मो. 9827084966
No comments:
Post a Comment