शहर और जंगल - प्लेटफॉर्म
वह जो प्लेटफॉर्म के अँधेरे कोने में
बैठी है थकी हारी उदास
हाँ , मैं जानता हूँ
उस अबला का इतिहास
जन्मभूमि ही जिसकी हो प्लेटफॉर्म
क्या बताऊँ उस अबला का नाम
जाने कौन है बाप उसका
जाने कौन महतारी है
पर यक़ीनन
वह हिन्दोस्तान की सम्माननीय नारी है।
प्लेटफॉर्म ही था उसका परिवार
था वही उसका घर
भीख माँग कर करती थी गुज़र
फाँका करती थी प्लेटफॉर्म की धूल
उसने कब जाना पाठशाला स्कूल
बीत गया ऐसे ही बचपन उसका
रीत गया ऐसे ही बचपन उसका
एक रात अचानक
भीख माँगता बचपन जवान हो गया
चंद लोगों के मनोरंजन का सामान हो गया
बाल सँवारे काजल डाले
जब चलती थी इठला कर वह
लगा होठों पर लाली
बजती थी कहीं सीटी , बजती थी कही ताली
अल्हड बदमस्त जवानी थी उसकी
फैली दूर तक कहानी थी उसकी
छोड़ दिया था माँगना उसने भीख
पैसा कमाने की कला गयी थी सीख
पर चलती यह कहानी भी कब तक
फिर रहती है जवानी भी कब तक
ढलना था , ढल ही यौवन काल गया
जैसे गुज़रा साल गया
अब न बजती थी सीटी
अब न बजती थी ताली
जब तब पड़ जाती थी गाली
प्लेटफॉर्म के
इस अँधेरे कोने में झुका कर सर
कर रही है शायद इन्तिज़ार उस ट्रेन का
जो उसे उसकी
अंतिम मंज़िल तक पहुँचाएगी
इस दुनिया के मुसाफ़िरख़ाने से
शायद मुक्त उसे कर जाएगी
बेहतर है इस मुसाफ़िर की ट्रेन कभी न आये
बेरहम ज़िंदगी के भारी बोझ तले
मौत कभी न मुस्काये
मौत कभी न मुस्काये।
आएगी , आएगी
इस मुसाफ़िर की ट्रेन भी आएगी।
- कवि - इन्दुकांत आंगिरस
No comments:
Post a Comment