Tuesday, May 17, 2022

लघुकथा - अंगड़ाई


अंगड़ाई 


गहरी सोच में डूबी वो औरत , गली में खुलती  खिड़की से नज़र आते बिजली के नंगे तार पर बैठी उस चिड़िया को देख रही थी शायद , हाँ शायद उसी को देख रही थी।  बहुत ग़ौर से देख रही थी , अपने आस -पास से बेख़बर , अपनी साँसों से भी बेख़बर और वही बिस्तर पर बेढब से खर्राटे भरते उस जानवर से भी बेख़बर जिसने रात भर उसकी खाल को  परत दर परत खींचा था। उदासी में डूबा उसका चेहरा पीले चाँद - सा दिखता था।  उसके बेतरतीब बाल किसी मछेरे के जाल - से और वीरान आँखों में मकड़ी के जाले थे। 

उस औरत की ऐसी तस्वीर देख कर सुबह की पहली किरन सिहर उठी और उसने डरते डरते उस औरत से पूछा -

" तुम इतनी उदास क्यों हो और  इतने ग़ौर से उस चिड़िया को क्यों देख रही हो ? "

-" कुछ नहीं , बस ऐसे ही  ..."

- " कुछ तो बात है , अपनी सखी से नहीं कहोगी ..आख़िर क्या सोच रही हो ? "

- " कुछ ख़ास नहीं , बस यही सोच रही थी कि बिजली के इस नंगे तार पर बैठ कर भी यह चिड़िया ज़िंदा है और गा  रही है सुबह का गीत....लेकिन मैं मखमली गद्दों पर सोते हुए भी मर रही हूँ  लम्हा - लम्हा ..."

औरत का जवाब सुनकर किरन फ़िसल कर उस चिड़िया पर जा बैठी। किरन के स्पर्श से चिड़िया उड़ गयी दूर गगन में। 

चिड़िया को उड़ते देख  उस औरत ने गहरी साँस छोड़ी  और ख़ुशी में ऐसी  अंगड़ाई ली  कि  धरती  के साथ साथ आसमान भी  लजा गया। 


लेखक - इन्दुकांत आंगिरस 


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