Friday, May 6, 2022

पुस्तक परिचय - बना रह ज़ख़्म तू ताज़ा







' बना रह ज़ख़्म तू  ताज़ा डॉ सुभाष वसिष्ठ की प्रथम प्रकाशित काव्यकृति है।  इस नवगीत संग्रह में  46 चयनित नवगीत शामिल हैं जिनका रचनाकाल   1970 से 1990 तक का है । इस संग्रह को डॉ सुभाष वसिष्ठ ने ' द्विवेदी युग के सिद्ध महाकवि पंडित नाथूराम  शर्मा ' शंकर ' , नवगीत के सूत्र पंडित सूर्यकांत त्रिपाठी ' निराला ' और शुरुआती दमदार  नवगीतकार  वीरेंद्र मिश्र '' को समर्पित किया है। संग्रह में किसी की भूमिका नहीं है , सिवाय कवि के आत्मकथ्य ' इस संग्रह तक ' शीर्षक से प्रकाशित है जिसमे कवि ने नवगीत की सैद्धांतिक अथवा ऐतिहासिक विवेचना नहीं करी है अपितु अपने लेखन , नवगीत यात्रा एवं अपने साहित्यिक विकास का दिलचस्प वर्णन किया है।  इसमें कोई दो राय  नहीं कि रचनाओं के सूत्रों को बारीक़ी से समझने के लिए कवि का व्यक्तित्व एक हद तक सहयोगी सिद्ध होता है। 

यह मेरा सौभाग्य है कि बरसों पहले इस पुस्तक के लोकार्पण समारोह में , मैंने शिरकत फ़रमाई थी।  उस कार्यक्रम में  डॉ  सुभाष वसिष्ठ के अनुज और मेरे साहित्यिक मित्र कीर्तिशेष सतीश सागर भी मौजूद थे। 

कुछ आत्मकथ्य इतने दिलचस्प होते हैं कि उन्हें नज़रअंदाज़ करना सहज नहीं होता। इस आत्मकथ्य में कवि ने अपनी साहित्यिक यात्रा के साथ साथ अपने बचपन की यादों को भी कलात्मक रूप से उकेरा है।  कवि सुभाष वसिष्ठ एक शुद्ध गीतकार हैं और गीत उनकी आत्मा में बसा है।इसीलिए उन्होंने अपने एक गीत में लिखा है -

" गीतमय  ज़िंदगी जुटाए मन , पर पीछे पड़े हैं निबंध "

 गीत के अलावा सुभाष वसिष्ठ एक प्रतिष्ठित रंगकर्मी भी है , 1980 में बदायूँ के शौक़िया कलाकारों की नाट्य  संस्था  ' रंगायन ' की स्थापना करी जिसके तहत लगभग दो दशकों तक नाटकों का मंचन किया। 

इसीलिए उनकी भाषा में अजीब -सा fusion  है , उनके आत्मकथ्य से उद्धृत चंद पंक्तियाँ  देखें -


' ऐसी ही एक ढलती  शाम को ....' पृष्ठ १०


' रौशनी की किरन पकड़ने और थामे रखने की ज़िद .....' पृष्ठ १२


' बहरहाल , उतरते 2012 में ' बना रह ज़ख़्म तू ताज़ा ' आपके समक्ष ....' पृष्ठ १२


' बना रह ज़ख़्म तू ताज़ा ' इस संग्रह का अंतिम गीत है।  बानगी के तौर पर चंद गीतों की चंद पंक्तियाँ देखें -


शुरू हुई 

दिन की हलचल 

गए सभी 

लोहे में ढल। ( पृष्ठ १७ )


लाएँ क्या गीतों में ढूँढकर नया ?

ज़हरीला पूरा परिवेश हो गया  ! 

प्रतिभा के हक़ में क्या सिर्फ़ मर्सिया ? ( पृष्ठ १८)


चमकदार सब असूल स्याह हो गए

   रोटी   के   चक्कर में सूर्य खो गए

गीत ,लो , अगीत हुआ राग से सना 

झुका नहीं , टूट गया , जो रहा तना।  ( पृष्ठ -२३ )


 

सूर्य पश्चिम से उगे इस बार 

सही कोशिश की यही दरकार  ( पृष्ठ -५६ )



      पश्चिम से सूर्य उगाने वाले और रौशनी की किरन पकड़ सही की लड़ाई लड़ने वाले सुभाष वसिष्ठ एक ऐसे जीवट कवि है जो रात को दिन में बदलने की क़ुव्वत रखते हैं।पानी को पानी और रौशनी को रौशनी कहने की हिम्मत रखते हैं। अपने ज़ख़्म को सहलाते नहीं , उस पर मरहम भी नहीं लगाते बल्कि उसे हमेशा ताज़ा रखते हैं क्योंकि ये ज़ख़्म सिर्फ़ उनका नहीं अपितु उन सबका है जो व्यवस्था , हर्राफ़ों और समाज के ठेकेदारों द्वारा प्रताड़ित होते  रहें हैं। 

' बना रह ज़ख्म तू ताज़ा ' के गीत सुर , लय और ताल की डोर पकड़ अनंत आकाश में उड़ते हैं लेकिन ये सहज  गीत अक्सर पैदा करते हैं एक विशिष्ट अचरच। इसीलिए स्वाभाविक है इन गीतों को पढ़कर पाठक का अचकचा जाना। आप भी इन  अचरच भरे गीतों को लुत्फ़ उठायें ......




पुस्तक का नाम - बना रह ज़ख्म तू ताज़ा     ( नवगीत    संग्रह )


लेखक -  डॉ  सुभाष वसिष्ठ 


प्रकाशक - शब्दालोक , दिल्ली 


प्रकाशन वर्ष - प्रथम संस्करण , 2012


कॉपीराइट डॉ  सुभाष वसिष्ठ 

 पृष्ठ - 64

मूल्य ( 120/ INR  (एक सौ  बीस रुपए केवल )

Binding -  Hardbound 

Cover Design - मनीषी वसिष्ठ 

Size - डिमाई 4.8 " x 7.5 "

वितरक - हिंदी बुक सेंटर , नई दिल्ली 

ISBN - Not Mentioned


 


                                                                              प्रस्तुति - इन्दुकांत आंगिरस 



1 comment:

  1. एक पठनीय पुस्तक की उत्तम समीक्षा।

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