Saturday, May 21, 2022

गोदरवॉ गाँव का ' विपल्वी पुस्तकालय '

 

                    पुस्तकें और पुस्तकालय हर राष्ट्र की सांस्कृतिक व  साहित्यिक  धरोहर होते हैं।  हम  पुस्तकों के ज़रिये ही विवेक प्राप्त करते हैं और अपने पूर्वजों का साहित्य और इतिहास भी।  टेक्नोलॉजी के इस दौर में अनेक डिजिटल मीडिया पटल मौजूद है और पुस्तकों के प्रति लोगो की उदासीनता चिंता का विषय है लेकिन फिर भी जब तक इस दुनिया में कवि , लेखक , इतिहासकार रहेंगे , पुस्तकें प्रकाशित होती रहेंगी और पुस्तकालय खुलते रहेंगे। अपनी संस्कृति को बचाने के लिए भारतीय सरकार को भी जीर्ण पुस्तकालयों का उद्धार करना चाहिए और नए पुस्तकालय खोलने चाहिए। 


गोदरवॉ गाँव ,बेगूसराय का ' विपल्वी पुस्तकालय ' अपने आप में एक विशिष्ट पुस्तकालय है जिसके संस्थापक  प्रसिद्ध साहित्यकार एवं पूर्व विधायक श्री राजेंद्र राजन है।  शहीदे - आजम भगत सिंह की स्मृति में बनवाया गया यह पुस्तकालय अनेक साहित्यिक कार्यक्रमों का गवाह रहा है। यहाँ पर अब तक दो बार प्रगतिशील लेखक संघ के वार्षिक अधिवेशन संपन्न हो चुके हैं जिसमे देश - विदेश के प्रतिष्ठित साहित्यकारों ने अपनी उपस्थिति दर्ज करी है। शहीदे - आजम भगत सिंह के जन्म दिन 23 मार्च को हर वर्ष यहां पर साहित्यिक कार्यक्रमों का आयोजन किया जाता है। इसके परिसर में भगत सिंह के  अलावा दूसरे क्रांतिकारियों और स्वतंत्रता सेनानियों की मूर्तियां भी लगी हैं। राजेंद्र राजन सबों को साथ लेकर आगे बढ़ने वाले साहित्यकार हैं और इस की प्रेरणा स्रोत मैथिलीशरण गुप्त की निम्न पंक्तिया हैं जो आप अक्सर गुनगुनाते हैं - 

यही पशु प्रवर्ति है कि आप - आप ही चरे 

वही मनुष्य है कि जो , मनुष्य के लिए मरे 


बेगूसराय जो एक ज़माने में लेनिनग्रेड कहा जाता था , निश्चित रूप से कम्युनिस्ट विचारधारा से प्रभावित रहा है।  इस मिटटी ने भारत को अनेक  महत्त्वपूर्ण साहित्यकार दिए हैं जिनमें रामधारी सिंह दिनकर और डॉ रामशरण शर्मा के नाम विशिष्ट हैं।  मेरा तो  कभी बेगूसराय जाना नहीं हुआ लेकिन लगभग ४-५  वर्ष पहले बेगूसराय से एक शख़्स बैंगलोर आया , एक साहित्यिक कार्यक्रम में मुलाक़ात हुई और हम मित्र बन गए। राजेंद्र कुमार मिश्रा उर्फ़ ' राही राज ' ने मेरे साथ मिल कर साहित्यिक संस्था ' कारवाँ ' की स्थापना करी जो बाद में ' राही के कारवाँ ' और फिर 3 सितम्बर 2021 को ' कलश कारवाँ फाउंडेशन ' एक ट्रस्ट के रूप में रजिस्टर हो गयी।  राही राज इस संस्था के अध्यक्ष हैं और संस्था को जोर - शोर से साहित्यिक जगत में आगे बढ़ा रहे हैं।  आशा है राही राज किसी दिन  ' विपल्वी पुस्तकालय ' में संस्था का कार्यक्रम आयोजित करवाएंगे और हमें भी बेगूसराय देखने का अवसर मिलेगा। 


समय के साथ ' विपल्वी  पुस्तकालय ' की महत्ता बढ़ती जा रही है और इसके लिए इसके संस्थापक राजेंद्र राजन  बधाई के पात्र है।  इस पुस्तकालय के निर्माण में उनके श्रम को कभी भुलाया नहीं जा सकता। आजकल पुस्तकालय को डिजिटल बनाने के प्रयास चल रहे हैं।  हाल ही में राजेंद्र राजन के जन्मदिन की 75वीं वर्षगाँठ मनाई  गयी । ' समय  सुरभि  अनंत ' पत्रिका का नवीनतम संग्रहणीय अंक राजेंद्र राजन  पर केंद्रित है। सम्पादक  नरेंद्र कुमार सिंह को इस विशेषांक के लिए बधाई। 

 

        अगर आप लेखक , कवि , साहित्यकार हैं तो कम से कम एक बार इस अद्भुत ' विपल्वी पुस्तकालय ' ज़रूर जाएं । 


प्रस्तुति - इन्दुकांत आंगिरस 



Tuesday, May 17, 2022

लघुकथा - अंगड़ाई


अंगड़ाई 


गहरी सोच में डूबी वो औरत , गली में खुलती  खिड़की से नज़र आते बिजली के नंगे तार पर बैठी उस चिड़िया को देख रही थी शायद , हाँ शायद उसी को देख रही थी।  बहुत ग़ौर से देख रही थी , अपने आस -पास से बेख़बर , अपनी साँसों से भी बेख़बर और वही बिस्तर पर बेढब से खर्राटे भरते उस जानवर से भी बेख़बर जिसने रात भर उसकी खाल को  परत दर परत खींचा था। उदासी में डूबा उसका चेहरा पीले चाँद - सा दिखता था।  उसके बेतरतीब बाल किसी मछेरे के जाल - से और वीरान आँखों में मकड़ी के जाले थे। 

उस औरत की ऐसी तस्वीर देख कर सुबह की पहली किरन सिहर उठी और उसने डरते डरते उस औरत से पूछा -

" तुम इतनी उदास क्यों हो और  इतने ग़ौर से उस चिड़िया को क्यों देख रही हो ? "

-" कुछ नहीं , बस ऐसे ही  ..."

- " कुछ तो बात है , अपनी सखी से नहीं कहोगी ..आख़िर क्या सोच रही हो ? "

- " कुछ ख़ास नहीं , बस यही सोच रही थी कि बिजली के इस नंगे तार पर बैठ कर भी यह चिड़िया ज़िंदा है और गा  रही है सुबह का गीत....लेकिन मैं मखमली गद्दों पर सोते हुए भी मर रही हूँ  लम्हा - लम्हा ..."

औरत का जवाब सुनकर किरन फ़िसल कर उस चिड़िया पर जा बैठी। किरन के स्पर्श से चिड़िया उड़ गयी दूर गगन में। 

चिड़िया को उड़ते देख  उस औरत ने गहरी साँस छोड़ी  और ख़ुशी में ऐसी  अंगड़ाई ली  कि  धरती  के साथ साथ आसमान भी  लजा गया। 


लेखक - इन्दुकांत आंगिरस 


पुस्तक परिचय - रंग सपनों के ( ग़ज़ल संग्रह )





                    अदब के इस दौर में ग़ज़ल सबसे अधिक लोकप्रिय विधा है। अरबी , फ़ारसी और उर्दू से गुज़रती हुई ग़ज़ल आज हिन्दोस्तान की दीगर ज़बानों में भी कही जा रही है और एक से बढ़कर एक शाइर ग़ज़ल के फ़न में महारत हासिल करते जा रहे हैं। ऐसे ही एक मोतबर शाइर जनाब प्रमोद शर्मा ' असर '  हैं  जिनके  प्रथम  ग़ज़ल संग्रह - ' रंग सपनों के ' का परिचय देते हुए मुझे अत्यंत हर्ष  हो रहा है। जनाब प्रमोद शर्मा ' असर ' मशहूर उस्ताद शाइर जनाब 'सर्वेश ' चंदौसवी  के शागिर्द हैं।  पुस्तक की प्रस्तावना ' नये रंग सपनों के इंद्रधनुष में ' में  जनाब 'सर्वेश ' चंदौसवी  द्वारा दी गयी महत्त्वपूर्ण जानकारी देखें - 

" इस ग़ज़ल संग्रह में 51 ग़ज़लों के 357 अशआर मुतदारिक , मुतक़ारिब , हज़ज , रमल और ख़फ़ीफ़ बहरों के 7 औज़ान में शामिल किये गए हैं। प्रमोद शर्मा ' असर ' की शाइरी की उम्र बहुत कम है मगर इनके तजुर्बातों  - एहसासात , की उम्र दराज़ हैं जिसे उन्होंने अपनी शाइरी की उम्र में जोड़ कर अच्छी ग़ज़लें तामीर करने में कामयाबी हासिल की हैं।  "

प्रमोद शर्मा ' असर ' ने अपनी यह पुस्तक अपने माता - पिता को समर्पित करी है और पुस्तक  के फ्लैप पर  उस्ताद शाइर जनाब मंगल नसीम के शब्द पुष्प अंकित हैं।  उर्दू और हिन्दी लिपियों में प्रकाशित इस  ग़ज़ल संग्रह  से उद्धृत चंद अशआर देखें - 


सच को सच हमने कहा सौ धमकियों के बावजूद 

अब मिले जो   भी   हमे   इसकी   सज़ा मंज़ूर है 

( पृष्ठ -15 )


वो ही  मेरा  ख़याल रखता है

सारी दुनिया के भूल जाने पर 

( पृष्ठ - 16 )


ढूँडना मुश्किल नहीं होगा मुझे सुन लीजिए

ये मेरे अशआर  ख़ुद   मेरा  पता   दे जाएँगे 

( पृष्ठ - 25  )


' असर ' सबसे बड़ा है वो मुसव्विर 

फ़ज़ा  में  रंग  क्या क्या घोलता हैं 

( पृष्ठ - 57  )


छुपा कर अपनी करतूतें  हुनर की बात करते हैं

शजर को काटने   वाले समर की बात करते  हैं 

( पृष्ठ - 71  )


जो तेरे   लम्स से    मुझमें  समाई 

वो ख़ुशबू  जिस्म से  जाती नहीं है

( पृष्ठ - 79  )


अपनों से जुदा हो  के ' असर ' कैसे रहूँ मैं

बाँटे  जो  किसी  घर को वो दीवार नहीं हूँ 

( पृष्ठ - 81  )


औक़ात   क्या  है  जान तू 

ख़ुद को ख़ुदा मत मान तू 

( पृष्ठ - 93  )


कोई भी हादिसा हो शह्र में अब 

किसी  चेहरे  पे  हैरानी  नहीं है

( पृष्ठ - 111  )


सिर्फ़ उपरोक्त अशआर ही नहीं बल्कि इस किताब में आपको ऐसे बहुत से अशआर मिलेंगे जो आपके दिल की गहराइयों  में ख़ुद बी ख़ुद उतरते चले जाएँगे।  मुझे यक़ीन  है कि प्रमोद शर्मा ' असर ' के सपनों के कुछ  रंग आपके रंगों जैसे होंगे , इसलिए आप भी इस किताब का लुत्फ़ उठाएँ...... 




 पुस्तक का नाम - रंग सपनों के    (  ग़ज़ल संग्रह  )

लेखक -  प्रमोद शर्मा ' असर ' 

प्रकाशक - अमृत प्रकाशन , दिल्ली 

प्रकाशन वर्ष - प्रथम संस्करण , 2016

कॉपीराइट - प्रमोद शर्मा ' असर ' 

पृष्ठ - 128

मूल्य - ( 300/ INR  ( तीन सौ   रुपए केवल )

Binding -  Hardbound

Size - डिमाई 5 " x 8 "

ISBN - 978-81-8280-197-4

आवरण - शशिकांत सिंह 



प्रस्तुति - इन्दुकांत आंगिरस 


Sunday, May 15, 2022

हंगेरियन कविता - Mert Engem Szeretsz का हिन्दी अनुवाद





MERT ENGEM SZERETSZ


Áldott csodáknak

Tükre a szemed

Mert engem nézett .

Te vagy a bölcse,

Mesterasszonya

Az ölelésnek.

Áldott ezerszer

Az asszonyságod,

Mert engem nézett ,

Mert engem látott 

S mert nagyon szeretsz :

Nagyon szeretlek

S mert engem szeretsz :

Te vagy az Asszony 

Te vagy a legszebb .



  Mert Engem Szeretsz  

 क्योंकि तुम मुझसे प्रेम करती हो 



हैरान ,शुक्रगुज़ार  है  आईना 
तुम्हारी इन निगाहों का 
क्योंकि तुमने देखा था मुझे ।  
तुम हो सबसे ज़हीन 
बेगम गणिका *
आलिंगनों के लिए। 
हज़ार बार शुक्रिया 
तुम्हारे लावण्य का 
क्योंकि तुमने मुझे निहारा था 
क्योंकि तुमने मुझे देखा था। 
और क्योंकि तुम बहुत प्रेम करती हो :
मैं तुमसे  अथाह प्रेम करता हूँ 
और क्योंकि तुम मुझसे  प्रेम करती हो :
तुम हो एक गणिका 
तुम हो सुन्दरतम। 




  मूल कवि -  Endre Ady 
  जन्म -    22nd November ' 1877 , Romania 
  निधन -   27th January ' 1919 , Budapest , Hungary 

अनुवादक : इन्दुकांत आंगिरस 

NOTE :

गणिका का अर्थ हिन्दी में वैश्या हो सकता है लेकिन इस शब्द की मूल उत्पत्ति ग्रीक शब्द γυναίκα से है जिसका अर्थ औरत ही होता है और इस कविता में भी गणिका शब्द औरत ही है । बक़ौल  सआदत हसन मंटो   "हर औरत  वैश्या नहीं होती लेकिन हर वैश्या एक औरत  होती है।"   
 

Friday, May 6, 2022

पुस्तक परिचय - बना रह ज़ख़्म तू ताज़ा







' बना रह ज़ख़्म तू  ताज़ा डॉ सुभाष वसिष्ठ की प्रथम प्रकाशित काव्यकृति है।  इस नवगीत संग्रह में  46 चयनित नवगीत शामिल हैं जिनका रचनाकाल   1970 से 1990 तक का है । इस संग्रह को डॉ सुभाष वसिष्ठ ने ' द्विवेदी युग के सिद्ध महाकवि पंडित नाथूराम  शर्मा ' शंकर ' , नवगीत के सूत्र पंडित सूर्यकांत त्रिपाठी ' निराला ' और शुरुआती दमदार  नवगीतकार  वीरेंद्र मिश्र '' को समर्पित किया है। संग्रह में किसी की भूमिका नहीं है , सिवाय कवि के आत्मकथ्य ' इस संग्रह तक ' शीर्षक से प्रकाशित है जिसमे कवि ने नवगीत की सैद्धांतिक अथवा ऐतिहासिक विवेचना नहीं करी है अपितु अपने लेखन , नवगीत यात्रा एवं अपने साहित्यिक विकास का दिलचस्प वर्णन किया है।  इसमें कोई दो राय  नहीं कि रचनाओं के सूत्रों को बारीक़ी से समझने के लिए कवि का व्यक्तित्व एक हद तक सहयोगी सिद्ध होता है। 

यह मेरा सौभाग्य है कि बरसों पहले इस पुस्तक के लोकार्पण समारोह में , मैंने शिरकत फ़रमाई थी।  उस कार्यक्रम में  डॉ  सुभाष वसिष्ठ के अनुज और मेरे साहित्यिक मित्र कीर्तिशेष सतीश सागर भी मौजूद थे। 

कुछ आत्मकथ्य इतने दिलचस्प होते हैं कि उन्हें नज़रअंदाज़ करना सहज नहीं होता। इस आत्मकथ्य में कवि ने अपनी साहित्यिक यात्रा के साथ साथ अपने बचपन की यादों को भी कलात्मक रूप से उकेरा है।  कवि सुभाष वसिष्ठ एक शुद्ध गीतकार हैं और गीत उनकी आत्मा में बसा है।इसीलिए उन्होंने अपने एक गीत में लिखा है -

" गीतमय  ज़िंदगी जुटाए मन , पर पीछे पड़े हैं निबंध "

 गीत के अलावा सुभाष वसिष्ठ एक प्रतिष्ठित रंगकर्मी भी है , 1980 में बदायूँ के शौक़िया कलाकारों की नाट्य  संस्था  ' रंगायन ' की स्थापना करी जिसके तहत लगभग दो दशकों तक नाटकों का मंचन किया। 

इसीलिए उनकी भाषा में अजीब -सा fusion  है , उनके आत्मकथ्य से उद्धृत चंद पंक्तियाँ  देखें -


' ऐसी ही एक ढलती  शाम को ....' पृष्ठ १०


' रौशनी की किरन पकड़ने और थामे रखने की ज़िद .....' पृष्ठ १२


' बहरहाल , उतरते 2012 में ' बना रह ज़ख़्म तू ताज़ा ' आपके समक्ष ....' पृष्ठ १२


' बना रह ज़ख़्म तू ताज़ा ' इस संग्रह का अंतिम गीत है।  बानगी के तौर पर चंद गीतों की चंद पंक्तियाँ देखें -


शुरू हुई 

दिन की हलचल 

गए सभी 

लोहे में ढल। ( पृष्ठ १७ )


लाएँ क्या गीतों में ढूँढकर नया ?

ज़हरीला पूरा परिवेश हो गया  ! 

प्रतिभा के हक़ में क्या सिर्फ़ मर्सिया ? ( पृष्ठ १८)


चमकदार सब असूल स्याह हो गए

   रोटी   के   चक्कर में सूर्य खो गए

गीत ,लो , अगीत हुआ राग से सना 

झुका नहीं , टूट गया , जो रहा तना।  ( पृष्ठ -२३ )


 

सूर्य पश्चिम से उगे इस बार 

सही कोशिश की यही दरकार  ( पृष्ठ -५६ )



      पश्चिम से सूर्य उगाने वाले और रौशनी की किरन पकड़ सही की लड़ाई लड़ने वाले सुभाष वसिष्ठ एक ऐसे जीवट कवि है जो रात को दिन में बदलने की क़ुव्वत रखते हैं।पानी को पानी और रौशनी को रौशनी कहने की हिम्मत रखते हैं। अपने ज़ख़्म को सहलाते नहीं , उस पर मरहम भी नहीं लगाते बल्कि उसे हमेशा ताज़ा रखते हैं क्योंकि ये ज़ख़्म सिर्फ़ उनका नहीं अपितु उन सबका है जो व्यवस्था , हर्राफ़ों और समाज के ठेकेदारों द्वारा प्रताड़ित होते  रहें हैं। 

' बना रह ज़ख्म तू ताज़ा ' के गीत सुर , लय और ताल की डोर पकड़ अनंत आकाश में उड़ते हैं लेकिन ये सहज  गीत अक्सर पैदा करते हैं एक विशिष्ट अचरच। इसीलिए स्वाभाविक है इन गीतों को पढ़कर पाठक का अचकचा जाना। आप भी इन  अचरच भरे गीतों को लुत्फ़ उठायें ......




पुस्तक का नाम - बना रह ज़ख्म तू ताज़ा     ( नवगीत    संग्रह )


लेखक -  डॉ  सुभाष वसिष्ठ 


प्रकाशक - शब्दालोक , दिल्ली 


प्रकाशन वर्ष - प्रथम संस्करण , 2012


कॉपीराइट डॉ  सुभाष वसिष्ठ 

 पृष्ठ - 64

मूल्य ( 120/ INR  (एक सौ  बीस रुपए केवल )

Binding -  Hardbound 

Cover Design - मनीषी वसिष्ठ 

Size - डिमाई 4.8 " x 7.5 "

वितरक - हिंदी बुक सेंटर , नई दिल्ली 

ISBN - Not Mentioned


 


                                                                              प्रस्तुति - इन्दुकांत आंगिरस 



Tuesday, May 3, 2022

लघुकथा - दिल्ली मेट्रो का सफ़र

दिल्ली मेट्रो का सफ़र



 दिल्ली मेट्रो का ऐसा ही एक प्रेम भरा सफ़र मेरे ज़ेहन में ताज़ा हो गया। आप भी लुत्फ़ उठायें इसका। 

मेरे क़रीब बैठी थी एक जवान माँ और उसकी गोद में उसका  शिशु। दोनों ही निढाल लग रहे थें। तभी अगले स्टेशन पर एक युवा प्रेमी युगल हमारी कोच में चढ़े और ठीक हमारे सामने ही खड़े हो कर बतियाने लगे। लड़की के चेहरे  पर मास्क था पर सुंदरता परदों से कब ढकी है ? आपसी गिले-शिकवे , रूठना - मनाना ,इंकार -इकरार ,तकरार - मनुहार ,रह रह कर एक दूसरे को बाँहों में भर लेना।  मैं अभी तक आँखे बंद करके ध्यान लगाने का हुनर  सीख नहीं  पाया था  । मेरे क़रीब बैठी निढाल औरत की आँखें भी चमक उठी थी और उसका चेहरा भी गुलाबी हो उठा था। अचानक उसने तोडा था मौन और पूछा था मुझसे -

- " आप कहाँ जायेंगे ? "

-  " श्याम पार्क  " - मेरा जवाब सपाट-सा था। 

-  "ओह , मैं आपसे पहले वाले स्टेशन पर ही उतर जाऊँगी , गर आँख लग जाए तो जगा दीजियेगा " मुस्कुराते हुए उसने अपनी पलकें मूँदी और कुछ मेरी ओर पसर गयी। 




लेखक - इन्दुकांत आंगिरस 


 


Sunday, May 1, 2022

लघुकथा - ठक..ठक..ठक ..

 

 ठक..ठक..ठक ..


रात देर तक कुछ काग़ज़ काले करके बमुश्किल चंद घंटे ही सो पाया था कि सिरहाने वाली दीवार पर ठक..ठक..ठक .. के प्रहार से आँख खुल गयी। सुबह के 9 बज रहे थे और साथ वाले मकान पर कार्यरत मज़दूरों ने अपना काम शुरू कर दिया था। नींद तो अब दुबारा आनी  मुश्किल ही थी सो बॉलकनी से अख़बार उठा पढ़ने लगा। 1 मई 2022 , यानी अंतर्राष्ट्रीय मज़दूर दिवस जो कुछ राष्ट्रों में Labor Day  अथवा May Day  के नाम से भी मनाया जाता है।  

ठक..ठक..ठक .. अरे आज तो मज़दूर दिवस है , फिर यहाँ मज़दूर काम कैसे कर रहे हैं।  मैं तिलमिला उठा और तत्काल पड़ोस वाले मकान पर जा पहुँचा। 5-6 मज़दूर अपने अपने काम में जुटे थे।  मैंने  ठेकेदार को तलब किया और उससे काम रुकवाने  के लिए कहा तो सभी मज़दूर अपना अपना काम छोड़कर हमारे  क़रीब आ गए। मैं ठेकेदार से ग़ुस्से में कह रहा था -

आज मज़दूर दिवस है तो ये मज़दूर काम कैसे कर रहे हैं यहाँ पर ?

ठेकेदार ने मेरे तेवर देखते हुए तत्काल अपने मालिक को फ़ोन लगाया और चंद मिनटों में ही काम रुकवा दिया। मज़दूरों को एक दिन की छुट्टी दे दी गई। 

 मैं अपनी सफलता पर मुस्कुरा उठा लेकिन ठेकेदार और उन मज़दूरों के इस वार्तालाप को अनसुना न कर सका। 


१ - का हुआ भैया , ठेकेदार ने काम रुकवा दिया और हमारी आज की छुट्टी भी कर दी ?

२ - अरे , सुनत नाही ,आज मज़दूर दिवस है , आज  का दिन मज़दूरों से काम कराना ग़ैर -क़ानूनी है। 

३ - ये मज़दूर दिवस का होत है भैया ?

ठेकेदार  - अरे मज़दूर दिवस नाही जानत , इका यूँ समझिये कि आज मज़दूरों का जन्मदिन है और जन्मदिन मनाने ख़ातिर मालिक ने आज तुम सब को  छुट्टी दे दी है   , जाओ मौज - मस्ती करों और कल सुबह ठीक 9 बजे फिर काम पे लग जाना । 

४ - मज़दूरों का भी जन्मदिन होत है ? हम तो इएह पहली बार सुनिबे। 

१ - मालिक आज की मज़ूरी तो मिलेगी ना ?

ठेकेदार - पगला गए हो , अरे काम नहीं तो मज़ूरी काहे की ? चला ,फूटो यहाँ से .....

सभी मज़दूरों की गर्दनें लटक गयीं और उनके बोझिल क़दम चाय की ढ़परी की ओर बढ़ गए ...

मैं असमंजस की स्थिति में था।   ठक..ठक..ठक .. की आवाज़ बंद  हो चुकी थी लेकिन मेरे दिमाग़ में अभी भी हथौड़े बज रहे थें  । 


लेखक - इन्दुकांत आंगिरस