Franz Kafka ( 1883 - 1924 ) शिप्रा चतुर्वेदी
Ein altes Blatt - पुरानी पांडुलिपि
यह ऐसा है, मानो हमने अपनी मातृभूमि की रक्षा का ध्यान रखने में कुछ असावधानी बरती I हमने अब तक उसकी फ़िक्र नहीं की और अपने काम में लगे रहे; पर पिछले कुछ समय के परिणाम चिंतित करते हैं I
राजमहल के सामने चौक पर मेरा मोची का कारखाना है I सुबह के धुंधलके में मैंने दुकान खोली ही थी कि मैंने देखा इस ओर आने वाली सभी गलियाँ हथियारबंद लोगों से भरी हुई थीं I लेकिन ये हमारे सैनिक नहीं हैं, बल्कि लगता है कि उत्तर से आये हुए क्रूर ख़ाना-ब -दोश हैं I मुझे एक बात यह समझ नहीं आई कि वे राजधानी तक आ कैसे आ गए, जबकि सीमा से यह बहुत दूर है I बहरहाल, वे वहाँ/यहाँ हैं; ऐसा लगता है कि उनकी संख्या दिन-ब-दिन बढ़ती जाती है I
अपने स्वभाव के अनुरूप वे खुले आसमान के नीचे रह रहे हैं, घर उन्हें कतई पसंद नहीं हैं I वे अपनी तलवार की धार तेज़ करने में, तीरों को नुकीला बनाने में, घोड़ों के साथ अभ्यास करने में व्यस्त रहते हैं I डराने की हद तक साफ़ नीरव वातावरण को उन लोगों ने अब घुड़साल बना दिया था I हम लोगों ने अपनी दुकान से भाग जाने और कम से कम घोर अनिष्ट को दूर कर सकने की चेष्टा की, पर यह कम से कमतर होता गया, क्योंकि यह प्रयत्न निष्फल था I इसके अलावा इस बात का भी डर था कि हम जंगली घोड़ों के नीचे आ जाएँ या कोड़ों की मार से घायल हो जाएँ I
बंजारों से बातचीत नहीं की जा सकती I हमारी भाषा उन्हें आती नहीं, उनकी अपनी कोई है नहीं I एक दूसरे को समझने के लिए वे कौए की प्रजाति के पक्षियों जैसी आवाज़ निकालते हैं I ये आवाज़ें हरदम सुनाई देती हैं I हमारी जीवन शैली, हमारे कार्य-कलाप, गृह-सज्जा उनकी समझ से परे है और उन्हें उसकी परवाह भी नहीं है I इसके फलस्वरूप हर सांकेतिक भाषा पर नकारात्मक प्रतिक्रिया देते हैं I उन्हें समझाने के लिए आप जबड़े ऐंठ लेते हैं, हाथों को जोड़ों पर मोड़ लेते हैं पर वे आपको नहीं समझते और कभी समझेंगे भी नहीं I अक्सर वे मुँह बिराते हैं; तब उनकी आँखों का सफ़ेद हिस्सा घूम जाता है और मुँह से झाग निकलने लगता है पर इस सबसे वे न तो कुछ कहना चाहते हैं न डराना ही चाहते हैं; वे यह करते हैं क्योंकि यह उनकी आदत है I जिस चीज़ की उन्हें ज़रुरत होती है, उसे वे ले लेते हैं I यह नहीं कहा जा सकता कि वे हिंसा का प्रयोग कर रहे हैं I उनकी इस कार्यवाही के पहले ही लोग एक ओर हो जाते हैं और सब कुछ उनके लिये छोड़ देते हैं I
मेरे भण्डार से भी उन्होंने कुछ लिया I पर मैं इसकी शिकायत नहीं कर रहा I उदाहरण के लिए जब मैं देखता हूँ, सामने वाले कसाई की कैसी कट रही है I वह सामान अन्दर लाता ही है कि सब कुछ छिन जाता है और बंजारों द्वारा निगल लिया जाता है I उनके घोड़े भी माँस खाते हैं; अक्सर एक घुड़सवार घोड़े के बगल में लेटा होता है और दोनों अपनी-अपनी ओर से माँस के उसी टुकड़े से अपनी क्षुधा शांत कर रहे होते हैं I कसाई डर जाता है और माँस की आपूर्ति बंद करने का साहस नहीं कर पाता है I पर हम समझते हैं, धनराशि एकत्र करते हैं और उसकी सहायता करते हैं I यदि बंजारों को माँस न मिलता, कौन जाने, वे क्या करते, फिर भी रोज़ माँस मिलने की स्थिति में भी उनके दिमाग़ में क्या आएगा , कौन जानता है I
अंततः कसाई ने सोचा कि वह कम से कम पशुओं को जिबह करने की ज़िम्मेदारी से तो बच सकता है और सुबह एक जीवित बैल ले आया I वह इसे अब कभी नहीं दोहराएगा I मैं शायद एक घंटे अपने कारखाने में पीछे हक्का-बक्का ज़मीन पर लेटा रहा और मैंने अपने सभी कपड़े, चादरें, तकिया अपने ऊपर डाल लिये थे ताकि बैल की अनवरत रोने-चिल्लाने की आवाज़ सुनने से बच सकूँ , क्योंकि बंजारे सब तरफ़ से उस पर टूट पड़े थे और दाँतों से उसके गर्म माँस के टुकड़े नोंच रहे थे I मैं जब बाहर आने का साहस जुटा पाया उसके बहुत पहले ही सब कुछ शांत हो गया था; वे बैल के अवशेष के पास ऐसे लेटे थे जैसे पियक्कड़ एक बैरल शराब पीने के बाद थककर लेट जाते हैं I
तभी मुझे ऐसा लगा कि मैंने राजा को राजमहल की खिड़कियों में से एक खिड़की पर खड़े हुए देखा है I वैसे इन बाहरी कमरों की खिड़कियों की तरफ़ कोई कभी आता नहीं I वे सिर्फ़ सबसे अंदरूनी बग़ीचे में रहते हैं; पर इस बार वे खड़े थे, कम से कम मुझे तो यही लगाI एक खिड़की पर, सिर झुका कर अपने महल के सामने के जनसमूह को देखते रहे I
“अब क्या होगा?” हम एक-दूसरे से पूछते I “हमें कब तक यह बोझ और दुःख बर्दाश्त करना होगा ?” राजमहल ने बंजारों को प्रलोभित किया है पर वे यह नहीं जानते, इन्हें भगाएँ कैसे I द्वार बंद रहता है I पहरेदार, पहले हमेशा एक उत्सवी रूप में अन्दर-बाहर परेड करते थे, अब वे अपने-आप को जालीदार खिडकियों के पीछे रोके हुए हैं I हम कारीगरों और व्यापारियों के ऊपर मातृभूमि की रक्षा का भार सौंप दिया गया है; पर हम ऐसे काम के लिए नहीं बड़े हुए; कभी हमने इस बात की शेखी भी नहीं मारी कि हम इसके क़ाबिल हैं I यह एक ग़लतफ़हमी है और हम इसकी वज्ह से तबाह हो रहे हैं I
मूल लेखक - Franz Kafka
अनुवादक - Shipra Chaturvedi
NOTE : मूल लेखक के बारे में अधिक जानकारी के लिए उनका विकी पेज देखें।
Wonderful ma'am
ReplyDeleteGreat going Ma'am.
ReplyDeleteGreat story. Wonderful
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ReplyDeleteराज सत्ता और राजनीति पर कड़ा कटाक्ष है
ReplyDeleteसत्य के बहुत करीब है
सभी राजनीतिक सीमाओं में ऐसा ही कुछ हो रहा है- जिसकी लाठी उसकी भैंस हो गई है
राजनेता राजा बने हुए हैं
पिछड़े राजनेता, राजा बनने की ओर में लगे हैं
प्रजा त्रस्त है, परास्त है
अनुवाद में, बहुत अच्छे ढंग से विषय वस्तु को दर्शाया है
अनुवादिका प्रशंसा के पात्र हैं- उनको बहुत-बहुत शुभकामनाएं
सुंदर सहज प्रभावी अनुवाद के लिए बहुत बधाई
ReplyDeleteबहुत खूब 👌👌
ReplyDeleteकहानी का अनुवाद प्रभावी है। हार्दिक बधाई 💐💐
सुंदर प्रभावी अनुवाद, कथा आज भी प्रासंगिक, भाषा में प्रवाह, अनुवादिका को बहुत बधाई
ReplyDeleteWow very nice story 👌🏻
ReplyDeleteThanks for nice comments and encouragement.
ReplyDeleteBahut hi khoob ,looking ahead for many many more masterpieces to publish
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