Thursday, October 28, 2021

पुस्तक परिचय - Faith & Toil

 






शिक्षा किसी भी समाज और राष्ट्र के निर्माण में एक महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करती है।  यह तो सर्वविदित है कि अशिक्षित होना एक अभिशाप है। भारत में गुरुकुलों का इतिहास बहुत पुराना है जहाँ  रह कर विद्यार्थी शिक्षा ग्रहण करते रहें हैं।  बाद में धीरे धीरे विद्यालय और विश्वविद्यालय  खुलने लगे , आज तो सरकारी विद्यालयों के साथ साथ ग़ैर- सरकारी विद्यालयों की भरमार हैं ।  भारत में , विशेषरूप से बैंगलोर में St. Joseph  High School का  योगदान सराहनीय है।  आज जिस दुर्लभ पुस्तक का परिचय देने जा रहा हूँ उसका शीर्षक है - Faith & Toil - The History of St. Joseph's Boys' High School Bangalore और इसके लेखक है - Christopher Rego.

        इस पुस्तक का प्रकाशन  St. Joseph's Boys' High School , Bangalore  के 150 वर्ष ( 1858 -2008 ) पूरे होने के अवसर पर  किया गया।  शायद बहुत कम  लोगो को इसकी जानकारी होगी कि  लगभग 80 वर्षों तक इसका संचालन MEP ( Mission Errangéres de Paris ) करती रही लेकिन बाद में 1937 में इसकी बागडोर Jesuit Fathers   को दे दी  गयी। St. Joseph's Boys' High School की स्थापना 1858 में Mgr. Charbonnaux  द्वारा की गयी थी  इस पुस्तक में सिर्फ 150 वर्षों का ही नहीं अपितु 1858 से 300 वर्ष पूर्व तक का इतिहास भी दर्ज़ है।  यह पुस्तक St. Joseph से जुड़े हुए  लोगो के लिए तो तो महत्त्वपूर्ण है ही , इतिहासकारों के लिए भी किसी ख़ज़ाने से कम नहीं। पुस्तक पर कोई मूल्य नहीं है इसलिए यह अमूल्य है। पुस्तक की कितनी प्रतियाँ प्रिंट हुई इसका  मुझे अंदाज़ा नहीं लेकिन इसमें कोई दो राह नहीं कि यह एक दुर्लभ पुस्तक है। 










पुस्तक का नाम - Faith & Toil - The History of St. Joseph's Boys' High School Bangalore 


Writer  -  Christopher Rego

Language - English

Publisher  - Stark World Publishig Pvt.Ltd ( On behalf of " The old Boys' Association of  St. Joseph's Boys' High School )

Publication Year  - First Edition - August , 2008

Copyright  -  Writer ( Not mentioned in Book )

Language - English

Pages  - 354

Price - Not mentioned 

Binding - Hardbound 

Printed in India

Size - 7.4 " x  10.6 "


ISBN - 978 -81-906936-2-2


Book contains many rare  B&W photographs and Introduction by Author.


प्रस्तुति - इन्दुकांत आंगिरस 



Saturday, October 23, 2021

पुस्तक परिचय - परिवर्तन की पुकार








ऐसा अक्सर कहा जाता है कि साहित्य समाज का दर्पण होता है और एक हद तक यह सच भी है।  आज जिस पुस्तक से आपको परिचित कराने जा रहा हूँ  उसका नाम है - परिवर्तन की पुकार और इसके लेखक है डॉ रणजीत।  इस पुस्तक में उनकी चालीस युगांतकरामी कविताएँ हैं और इन कविताओं में प्रगतिशील विचारधारा साफ़ उजागर होती हैं। विद्रोही  स्वर की  ये  कविताएँ आज भी उतनी ही प्रासंगिक हैं जितनी की उस समय थी बल्कि यूँ समझिए कि आज के परिवेश में ये कविताएँ पहले से भी अधिक प्रासंगिक बन पड़ी हैं। 

क्रान्ति के लिए तो एक ही कविता काफ़ी होती हैं लेकिन इस काव्य संग्रह में अधिकाँश कविताएँ क्रान्ति लाने में सक्षम हैं।  काश इन कविताओं को आज का युवा पढता और गुनता तो देश की दशा इतनी बिगड़ी न होती।  बानगी  के तौर पर  इस संग्रह से यह  कविता देखें -


शब्द - सैनिकों से 


जाओ !

ओ मेरे शब्दों के मुक्ति - सैनिकों , जाओ !

जिन जिन के मन का देश अभी तक है ग़ुलाम 

जो एकछत्र सम्राट स्वार्थ के शासन में पिस रहे अभी हैं सुबह -शाम 

घेरे हैं जिनको रूढ़ि -ग्रस्त चिंतन की ऊँची दीवारें 

जो बीते युग के संस्कारों की सरमायेदारी का शोषण 

सहते  हैं बेरोकथाम 

उन सब तक नयी रौशनी का पैग़ाम आज पहुँचाओ

जाकर उनको इस क्रूर दमन की कारा से छुड़वाओ !

जाओ !

ओ मेरे शब्दों के मुक्ति - सैनिकों , जाओ !

                        *



पुस्तक का नाम - परिवर्तन की पुकार    ( कविता संग्रह )


लेखक -  डॉ  रणजीत 


प्रकाशक - प्रकाशन केंद्र , लखनऊ 


प्रकाशन वर्ष - प्रथम संस्करण , अगस्त 2002


कॉपीराइट - डॉ  रणजीत  ( Not mentioned in Book )


पृष्ठ - 60


मूल्य -10/ INR  ( दस  रुपए केवल )


Binding - पेपरबैक 

Size - डिमाई 4.8 " x 7.5 "


ISBN - Not Mentioned


मुखपृष्ठ चित्र -Not Mentioned




प्रस्तुति - इन्दुकांत आंगिरस 


NOTE :  अगर आप हिन्दुस्तानी हैं और आपके मन में भारत माँ के प्रति प्रेम हैं तो इस काव्य संग्रह को ज़रूर पढ़ें। 


Friday, October 22, 2021

पुस्तक परिचय - A Streetcar Named Desire





विश्व में  फ़िल्मों से भी पुराना इतिहास नाटकों का है। थिएटर के ज़रीये विश्व में अनेक महान लेखकों के नाटकों का मंचन होता रहा है। कुछ नाटकों के  मंचन तो इतने लोकप्रिय हो जाते हैं कि उनका मंचन विभिन्न शहरों में अनेक बार आयोजित किया जाता है और बहुत से नाटकों पर तो फ़िल्मों का निर्माण भी होता रहा है। आज मैं  जिस पुस्तक का परिचय आपको देने जा रहा हूँ उसका नाम है - A Streetcar Named Desire  और इसके लेखक है -Tennessee Williams । इस नाटक  में  11 सीन  हैं।  इसका पहला मंचन NewYork शहर में हुआ था। समकालीन थिएटर साहित्य में इस नाटक को  काफी सफलता मिली और 1947  में इसे Pulitzer Prize  से भी नवाज़ा गया। 1951 में इस पर फ़िल्म बनाई गयी, हालांकि फ़िल्म में मूल नाटक से कुछ बदलाव कर दिए गए थे लेकिन फिर भी फ़िल्म को अपार सफलता मिली थी और अमेरिका एवं  कनाडा में यह फ़िल्म बॉक्स ऑफ़िस पर सुपर हिट हो गयी थी। फ़िल्म को अनेक पुरस्कारों से नवाज़ा गया था जिनमे ऑस्कर अवार्ड्स  उल्लेखनीय हैं । इस नाटक का अनुवाद विश्व की अनेक भाषाओं  में हो चुका है लेकिन मुझे  हिन्दी भाषा का अनुवाद नहीं मिल पाया । इस नाटक में अमेरिका में विश्वयुद्ध के उपरान्त अमेरिकी महिलाओं पर लगाई पाबंदियों को उजागर किया गया हैं। 



पुस्तक का नाम - A Streetcar Named Desire


Writer  -  Tennessee Williams 

Language - English

Publisher  - Signet

Publication Year  - First Edition - 1951 


Copyright  - The University of the South - 1947

Pages  - 144

Price - Mentioned at Back Cover page 

Binding - Paperback

Printed in USA 

Size - 4.6 " x  7.2 "


ISBN - 978 -0-451-16778-1


Book contains eight ( 8 ) B&W photographs and Introduction by Author.


प्रस्तुति - इन्दुकांत आंगिरस 


Tuesday, October 12, 2021

हिन्दी भाषा का भविष्य कितना उज्ज्वल है ?

 



हिन्दी भाषा के प्रचार- प्रसार के लिए देश में अनेक सरकारी एवं ग़ैर- सरकारी  संस्थाएँ खुली हुई हैं।  ये सभी संस्थाएँ अपने अपने स्तर  पर हिन्दी भाषा के प्रचार - प्रसार में जुटी हैं , विशेषरूप से सितम्बर के महीने में हिन्दी भाषा के उन्नयन के लिए अनेक कार्यक्रम होते हैं क्योंकि १४ सितम्बर का दिन हिन्दी दिवस के रूप में मनाया जाता है।  अहिन्दी प्रदेशों में तो बहुत से कार्यालयों में हिन्दी भाषा की परीक्षा उत्तीर्ण करने पर कर्मचारियों को वेतन में धन लाभ भी प्रदान किया जाता है। 

पिछले दो वर्षों में कोरोना के चलते ऐसे बहुत सी हिन्दी संस्थाएँ जो सामन्यतः सिर्फ़ विदेशों में हिन्दी का प्रचार - प्रसार कर रही थी , अब भारतीय  लेखकों से बड़ी सुगमता से जुड़ गयी हैं या यूँ कहिए भारतीय  लेखक ऐसी विदेशी संस्थाओं से जुड़ गए हैं।  पिछले दिनों एक मित्र ने अपना प्रमाण पत्र साझा किया, जी हाँ , इस बात का प्रमाण  पत्र कि उन्होंने अंतरराष्ट्रीय काव्य लेखन प्रतियोगिता २०२० में प्रतिभागिता  की। 

विश्व हिन्दी सचिवालय , मॉरीशस द्वारा ज़ारी किये गए इस प्रमाण पत्र में निम्नलिखित कुछ  ग़लतिया हैं -


अशुद्ध                                    शुद्ध 


हिंदी                                  हिन्दी


तत्वावधान                         तत्त्वावधान


उज्जवल                            उज्ज्वल


संपादक                            सम्पादक 



संभव है कि उपरोक्त ग़लतियाँ टाइपो मिस्टेक  हो लेकिन  यह आश्चर्य  की बात है कि इस प्रमाण पत्र पर श्रीमती पूनम चतुर्वेदी शुक्ला -मुख्य सम्पादक - सृजन ऑस्ट्रेलिया , डॉ शैलेश शुक्ला - प्रधान सम्पादक -सृजन ऑस्ट्रेलिया और प्रोफ़ेसर वनोद कुमार मिश्र - महासचिव , विश्व हिन्दी सचिवालय , मॉरीशस  के हस्ताक्षर हैं।  यह अपने आप में आश्चर्य  ही है कि तीनो विद्वानों में से किसी की  भी नज़र  इन त्रुटियों पर नहीं पड़ी। यह प्रमाण पत्र शायद हज़ारों लेखकों के पास गया होगा । प्रतिभागी का नाम - पता  भी अँगरेज़ी भाषा में लिखा है।  ऐसे में सिर्फ़  ईश्वर ही  बता सकता है कि हिन्दी भाषा का भविष्य कितना उज्ज्वल है ?

Sunday, October 10, 2021

पुरानी पांडुलिपि - जर्मन कहानी Ein altes Blatt का हिन्दी अनुवाद




                                                         

                                                         
                         Franz Kafka ( 1883 - 1924 )                               शिप्रा चतुर्वेदी 


Ein altes Blatt  -   पुरानी पांडुलिपि



यह ऐसा है, मानो हमने अपनी मातृभूमि की रक्षा का ध्यान रखने में कुछ असावधानी बरती I हमने अब तक उसकी फ़िक्र नहीं की और अपने काम में लगे रहे; पर पिछले कुछ समय के परिणाम चिंतित करते हैं I

राजमहल के सामने चौक पर मेरा मोची का कारखाना है I सुबह के धुंधलके में मैंने दुकान खोली ही थी कि मैंने देखा इस ओर आने वाली सभी गलियाँ हथियारबंद लोगों से भरी हुई थीं I लेकिन ये हमारे सैनिक नहीं हैं, बल्कि लगता है कि उत्तर से आये हुए क्रूर ख़ाना-ब -दोश  हैं I मुझे एक बात यह समझ नहीं आई कि वे राजधानी तक आ कैसे आ गए, जबकि सीमा से यह बहुत दूर है I बहरहाल, वे वहाँ/यहाँ हैं; ऐसा लगता है कि उनकी संख्या दिन-ब-दिन बढ़ती जाती है I 

अपने स्वभाव के अनुरूप वे खुले आसमान के नीचे रह रहे हैं, घर उन्हें कतई पसंद नहीं हैं I वे अपनी तलवार की धार तेज़ करने में, तीरों को नुकीला बनाने में, घोड़ों के साथ अभ्यास करने में व्यस्त रहते हैं I डराने की हद तक साफ़ नीरव वातावरण को उन लोगों ने अब घुड़साल बना दिया था I हम लोगों ने अपनी दुकान से भाग जाने और कम से कम घोर अनिष्ट को दूर कर सकने की चेष्टा की, पर यह कम से कमतर होता गया, क्योंकि यह प्रयत्न निष्फल था I इसके अलावा इस बात का भी डर था कि हम जंगली घोड़ों के नीचे आ जाएँ या कोड़ों की मार से घायल हो जाएँ I 

बंजारों से बातचीत नहीं की जा सकती I हमारी भाषा उन्हें आती नहीं, उनकी अपनी कोई है नहीं I एक दूसरे को समझने के लिए वे कौए की प्रजाति के पक्षियों जैसी आवाज़ निकालते हैं I ये आवाज़ें  हरदम सुनाई देती हैं I हमारी जीवन शैली, हमारे कार्य-कलाप, गृह-सज्जा उनकी समझ से परे है और उन्हें उसकी परवाह भी नहीं है I इसके फलस्वरूप हर सांकेतिक भाषा पर नकारात्मक प्रतिक्रिया देते हैं I उन्हें समझाने के लिए आप  जबड़े ऐंठ लेते हैं, हाथों को जोड़ों पर मोड़ लेते हैं पर वे आपको नहीं समझते और कभी समझेंगे भी नहीं I अक्सर वे मुँह   बिराते हैं; तब उनकी आँखों का सफ़ेद  हिस्सा घूम जाता है और मुँह  से झाग निकलने लगता है पर इस सबसे वे न तो कुछ कहना चाहते हैं न डराना ही  चाहते हैं; वे यह करते हैं क्योंकि यह उनकी आदत है I जिस चीज़ की उन्हें ज़रुरत होती है, उसे वे ले लेते हैं  I यह नहीं कहा जा सकता कि वे हिंसा का प्रयोग कर रहे हैं I उनकी इस कार्यवाही  के पहले ही लोग एक ओर हो जाते हैं और सब कुछ उनके लिये छोड़ देते हैं I  

मेरे भण्डार से भी उन्होंने कुछ लिया I पर मैं इसकी शिकायत नहीं कर रहा I उदाहरण के लिए जब मैं देखता हूँ, सामने वाले कसाई की कैसी कट रही है I वह सामान  अन्दर लाता ही है कि  सब कुछ छिन जाता है और बंजारों द्वारा निगल लिया जाता है I उनके घोड़े भी माँस  खाते हैं; अक्सर एक घुड़सवार घोड़े के बगल में लेटा होता है और दोनों अपनी-अपनी ओर से माँस  के उसी टुकड़े से अपनी क्षुधा शांत कर रहे होते हैं I कसाई डर जाता है और माँस की आपूर्ति बंद करने का साहस नहीं कर पाता है I पर हम समझते हैं, धनराशि एकत्र करते हैं और उसकी सहायता करते हैं I यदि बंजारों को माँस न मिलता, कौन जाने, वे क्या करते, फिर भी रोज़ माँस मिलने की स्थिति में भी उनके दिमाग़  में क्या आएगा , कौन जानता है I

अंततः कसाई ने सोचा कि वह कम से कम पशुओं को जिबह करने की ज़िम्मेदारी  से तो बच सकता है और सुबह एक जीवित बैल ले आया I वह इसे अब कभी नहीं दोहराएगा I मैं शायद एक घंटे अपने कारखाने में पीछे हक्का-बक्का ज़मीन पर  लेटा रहा और मैंने अपने सभी कपड़े, चादरें, तकिया अपने ऊपर डाल लिये थे ताकि बैल की अनवरत रोने-चिल्लाने की आवाज़ सुनने से बच सकूँ , क्योंकि बंजारे सब तरफ़  से उस पर टूट पड़े थे और दाँतों  से उसके गर्म माँस के टुकड़े नोंच  रहे थे I मैं जब बाहर आने का साहस जुटा पाया उसके बहुत पहले ही सब कुछ शांत हो गया था; वे बैल के अवशेष के पास ऐसे लेटे थे जैसे पियक्कड़ एक बैरल शराब पीने के बाद थककर लेट जाते हैं I 

तभी मुझे ऐसा लगा कि मैंने राजा को राजमहल की खिड़कियों में से एक खिड़की पर खड़े हुए देखा है I  वैसे इन बाहरी कमरों की खिड़कियों की तरफ़ कोई कभी आता नहीं I  वे सिर्फ़  सबसे अंदरूनी बग़ीचे  में रहते हैं; पर इस बार वे खड़े थे, कम से कम मुझे तो यही लगाI  एक खिड़की पर, सिर झुका कर अपने महल के सामने के जनसमूह को देखते रहे I 

“अब क्या होगा?” हम एक-दूसरे से पूछते I “हमें कब तक यह बोझ और दुःख बर्दाश्त करना होगा ?” राजमहल ने बंजारों को प्रलोभित किया है पर वे यह नहीं जानते, इन्हें भगाएँ  कैसे I द्वार बंद रहता है I पहरेदार, पहले हमेशा एक उत्सवी रूप में अन्दर-बाहर परेड करते थे, अब वे अपने-आप को जालीदार खिडकियों के पीछे रोके हुए हैं I हम कारीगरों और व्यापारियों के ऊपर मातृभूमि की रक्षा का भार सौंप दिया गया है; पर हम ऐसे काम के लिए नहीं बड़े हुए; कभी हमने इस बात की शेखी भी नहीं मारी कि हम इसके क़ाबिल  हैं I यह एक ग़लतफ़हमी है और हम इसकी वज्ह  से तबाह हो रहे हैं I  



मूल लेखक -  Franz Kafka

 

अनुवादक -     Shipra Chaturvedi 



NOTE :  मूल लेखक के बारे में अधिक जानकारी के लिए उनका विकी पेज देखें। 





Tuesday, October 5, 2021

पुस्तक परिचय - 'ख़्वाहिशों का मेन्यू कार्ड'

 







स्त्री विमर्श की अनूठी कविताएँ



रूबी मोहन्ती की ये कविताएँ नारी के कवि मन में उभर रहीं भिन्न-भिन्न तस्वीरों का एक अनूठा कोलाज़ कही जा सकती हैं। इन कविताओं के अंदाज़े-बयां, तेवर और इनकी मौलिकता में आया आधुनिक बोध, अछूता बिंब-विधान और भाषा का नयापन प्रभावित करता है। इस मायने में ये कविताएँ नए स्त्री विमर्श को भी जन्म देती हैं - 

मैं... तुम्हारी बाँहों में 

 सिमटी हो कर भी 

अपने आपको 

घर के हर कोने में 

भटकता पाती हूँ 


रूबी मोहन्ती की प्रेम कविताओं में भाषा और भावों का सौंदर्यबोध असाधारण है। प्रेम के अंतरंग क्षणों में भी भाषा की साध, भावों की ठहर और अभिव्यक्ति की शालीनता रेखांकित करने योग्य है - 


और देह की वो गंध हर बार... 

 कराती है अहसास... 

तन की संकरी सीढ़ियों से 

 उतरकर मन के 

उस पार जाने का


लगता ही नहीं कि 'ख़्वाहिशों का मेन्यू कार्ड' , रूबी मोहन्ती की पहली किताब है। क्या भाषा, क्या शिल्प, क्या कहन, क्या प्रभाव, हर दृष्टि से श्रेष्ठ कविताओं से सजा यह कविता-संग्रह निसंदेह पठनीय है। कुछ मायनों में ये कविताएँ जिजीविषा की, संघर्षशीलता की और आस्था की कविताएँ हैं। 

समकालीन कविता साहित्य में इस कविता-संग्रह को निसंदेह महत्वपूर्ण स्थान मिलेगा क्योंकि रूबी मोहन्ती हमारे समय को आश्वस्त करती एक बेहतरीन कवयित्री के रूप में सामने आई हैं। 


पुस्तक का नाम - ख़्वाहिशों का मेन्यू कार्ड   ( कविता संग्रह )

लेखक -  रूबी मोहन्ती

प्रकाशक - प्रलेक प्रकाशन , मुम्बई 

प्रकाशन वर्ष - प्रथम संस्करण , 2021

कॉपीराइट - रूबी मोहन्ती

पृष्ठ - 124

मूल्य -225/ INR  ( दो  सौ पच्चीस  रुपए केवल )

Binding - पेपरबैक 

Size - डिमाई 4.8 " x 7.5 "

ISBN - 978 -93-90916-48-1

मुखपृष्ठ  -JVP Publication Pvt. ltd


                                                           प्रस्तुति - नरेश शांडिल्य


Sunday, October 3, 2021

पुस्तक परिचय - Le Nabab

 










मुझे पुस्तकों से प्रेम है और आप में  से भी अनेक लोग पुस्तक प्रेमी होंगे।  इसमें कोई दो राह नहीं  है कि व्ट्सप और फेसबुक के इस दौर में पुस्तक प्रेमियों की संख्या में भारी कमी आई है लेकिन पुस्तकों का जादू अभी खत्म नहीं हुआ  है। हर पुस्तक का अपना वजूद होता है , उसके पीछे एक कहानी होती है।  मुझे जब भी कोई दुर्लभ पुस्तक मिलती है तो आप सभी के साथ साझा  करने का मन करता है।  वैसे तो शायद आप सभी जानते होंगे कि किस पुस्तक को हम दुर्लभ कह सकते  है  लेकिन फिर भी सभी की जानकारी के लिए बता दूँ कि सामन्यतः  वो कौन सी विशेषताएँ  होती है जो एक पुस्तक को दुर्लभ बनाती है।  

 दुर्लभ पुस्तक की विशेषताएँ :


1 किस भी पुस्तक का 100 वर्ष पुराना होना। 


2 किसी भी पुस्तक का प्रथम संस्करण। 


3 किस भी पुस्तक पर उसके लेखक के हस्ताक्षर। 


4 कोई भी पुस्तक जिसका एक ही संस्करण हो और  प्रतियाँ बहुत कम छपी हो। 


आज जिस दुर्लभ पुस्तक का परिचय प्रस्तुत कर रहा हूँ ,उसका नाम है - Le Nabab  । आरम्भ में तो इस पुस्तक को कुछ ख़ास ख्याति नहीं मिली थी लेकिन बाद में पुस्तक काफी लोकप्रिय हो गयी थी।  इस पुस्तक के  प्रथम ओपेरा का मंचन  (3 ACT ) 1st  सितम्बर 1853 को पेरिस में हुआ और कुल 38 बार इसका  मंचन हुआ। इस पुस्तक में भारत और इंग्लैंड के दृश्य हैं।  पुस्तकों की दुनिया में पुरानी पुस्तकों के विक्रेता  भी महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करते हैं। इस पुस्तक में  ' The Minerva Book Shop  , Anarkali , Lahore  ' लगी  मोहर   इस बात की पुष्टि करती है कि कभी न कभी इस पुस्तक की ख़रीद - फ़रोख़्त इस दुकान में हुई होगी। 



Name of the Book - Le Nabab 

                                  ( TOME II )


Writer ALPHONSE DAUDET

Language - French

Publisher - Iprimerie Nelson , Edimbourg , Ecosse 

copyright -  Not mentioned

Printed  -  in England 

First Edition - 1877

ISBN - Not mentioned 

Size - 4.4 " X 6.5 " ( vest - pocket size  )

Pages -   288

Binding  - Hardbound

Price - Not Mentioned 

Cover Painting - Anonymous




प्रस्तुति - इन्दुकांत आंगिरस 



NOTE : लेखक के बारे में अधिक जानकारी के लिए उनका विकिपेज देखें। 


Saturday, October 2, 2021

व्यंग्य - हुए मर के हम जो रुसवा - उर्दू से हिन्दी अनुवाद

 


     लेखक: मुश्ताक़ अहमद यूसुफ़ी 

अनुवादकडॉआफ़ताब अहमद


यह एक व्यंग्य लेख है। यह मुश्ताक़ अहमद यूसुफ़ी की पुस्तक“ख़ाकम बदहन(मेरे मुँह में ख़ाक) में शामिल है। इस निबंध में लेखक ने एक बुज़ुर्ग की मृत्यु के अवसर पर क़ब्रिस्तान के दृश्यों से लेकर ‘मरहूम’ (स्वर्गीय) के घर पर मरणोपरांत रस्मों और उनके दौरान लोगों की गपशप को व्यंग्यात्मक शैली में पेश किया है। इस निबंध के मुख्य पात्र यही मरहूम (स्वर्गीय) हैं जो इस निबंध में लोगों की चर्चा और नानाप्रकार की प्रतिक्रियाओं का केंद्र हैं। दूसरे अहम पात्र मिर्ज़ा हैं, जिनका पूरा नाम ‘मिर्ज़ा अब्दुल वदूद बेग’ है। मिर्ज़ा लेखक के मित्र या हमज़ाद (छायापुरुष) के रूप में उनकी लगभग सभी रचनाओं में मौजूद होते हैं। ये अपने ऊटपटांग विचारों और विचित्र दलीलों के लिए जाने जाते हैं। यूसुफ़ी अपनी अकथनीय, उत्तेजक और गुस्ताख़ाना बातें मिर्ज़ा की ज़ुबान से कहलवाते हैं। यह किरदार हमें मुल्ला नसरुद्दीन की याद दिलाता है।

बात से बात निकालना, लेखनी के हाथों में ख़ुद को सौंपकर मानो केले के छिलके पर फिसलते जाना अर्थात विषयांतर, हास्यास्पद परिस्थितियों का निर्माण, अतिश्योक्तिपूर्ण वर्णन, किरदारों की सनक और विचित्र तर्कशैली, एक ही वाक्य में असंगत शब्दों का जमावड़ा, शब्द-क्रीड़ा, अनुप्रास अलंकार, हास्यास्पद उपमाएं व रूपक, अप्रत्याशित मोड़, कविता की पंक्तियों का उद्धरण, पैरोडी और मज़ाक़ की फुलझड़ियों व हास्य रस की फुहारों के बीच साहित्यिक संकेत व दार्शनिक टिप्पणियाँ, और प्रखर बुद्धिमत्ता यूसुफ़ी साहब की रचना शैली की विशेषताएँ हैं। उनके फ़ुटनोट भी बहुत दिलचस्प होते हैं। इस निबंध में यूसुफ़ी साहब की रचना शैली की अनेक विशेषताएँ विद्यमान हैं।–अनुवादक

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हुए मर के हम जो रुसवा


अब तो मामूल सा बन गया है कि कहीं मौत पर सांत्वना या कफ़न-दफ़न में शरीक होना पड़े तो मिर्ज़ा को ज़रूर साथ ले लेता हूँ। ऐसे मौक़ों पर हर व्यक्ति हमदर्दी के तौर पर कुछ न कुछ ज़रूर कहता है। मगर मुझे न जाने क्यों चुप लग जाती है, जिससे कभी-कभी न सिर्फ़ शोकाकुल परिवार को बल्कि ख़ुद मुझे भी बड़ा दुख होता है। लेकिन मिर्ज़ा ने चुप होना सीखा ही नहीं। बल्कि यूँ कहना चाहिए कि सही बात को ग़लत मौक़े पर बेधड़क कहने की ख़ुदा ने जो विलक्षण प्रतिभा उन्हें प्रदान की है वह कुछ ऐसे ही समारोहों में गुल खिलाती है। वे घुप्प अंधेरे में, राह में चिराग़ नहीं जलाते, फुलझड़ी छोड़ते हैं, जिससे  बस उनका अपना चेहरा रात के स्याह फ़्रेम में जगमग-जगमग करने लगता है। और फुलझड़ी का लफ़्ज़ तो यूँही मुरौवत में क़लम से निकल गया वर्ना होता यह है कि ‘जिस जगह बैठ गए आग लगा कर उट्ठे।’

इसके बावजूद वे ख़ुदा के उन सर्वव्यापी बंदों में से हैं जो मोहल्ले के हर छोटे-बड़े समारोह में, ख़ुशी हो या ग़मी, मौजूद होते हैं। ख़ास तौर पर दावतों में सबसे पहले पहुँचते और सबके बाद उठते हैं। उठने-बैठने की इस शैली में एक स्पस्ट लाभ यह देखा कि वे बारी-बारी पीठ पीछे सबकी निंदा कर डालते हैं। उनकी कोई नहीं कर पाता है।

अतः इस शनिवार की शाम को भी मेवा शाह क़ब्रिस्तान में वे मेरे साथ थे। सूरज इस मौन बस्ती को जिसे हज़ारों ख़ुदा के बन्दों ने मर-मरके बसाया था, लाल अंगारा सी आँख से देखता–देखता अंग्रेज़ों के इक़बाल (वैभव) की तरह डूब रहा था। सामने बेरी के पेड़ के नीचे एक ढाँचा क़ब्र-बदर पड़ा था। चारों ओर मौत की सत्ता थी और सारा क़ब्रिस्तान ऐसा उदास और उजाड़ था जैसे किसी बड़े शहर का बाज़ार इतवार को। सभी दुखी थे। (बक़ौल मिर्ज़ा,दफ़न होते समय शव के सिवा सब दुखी होते हैं”) मगर मिर्ज़ा सबसे अलग-थलग एक पुराने शिलालेख पर नज़रें गाड़े मुस्कुरा रहे थे। कुछ क्षणों बाद मेरे पास आए और मेरी पसलियों में अपनी कोहनी से आंकुस लगाते हुए उस शिलालेख तक ले गए, जिस पर क़ब्रवासी के जन्म--पेन्शन की तारीख़, जन्मस्थली व निवास स्थान, वल्दियत--ओहदा (मानद मजिस्ट्रेट, श्रेणी तीन) के साथ-साथ उसकी सारी डिग्रियाँ, डिवीज़न और यूनीवर्सिटी के नाम समेत खुदी हुई थीं और आख़िर में, बहुत मोटे अक्षरों में, उससे मुँह फेर कर जाने वालों को कविता के द्वारा मंगल-सन्देश दिया गया था कि अल्लाह ने चाहा तो बहुत जल्द उनका भी यही हश्र होने वाला है।

मैंने मिर्ज़ा से कहायह क़ब्र का शिलालेख है या नौकरी के लिए आवेदन पत्र? भला डिग्रियाँ, पद और वल्दियत वग़ैरह लिखने की क्या तुक थी?”

उन्होंने आदत के अनुसार बस एक शब्द पकड़ लिया। कहने लगे, “ठीक कहते हो, जिस तरह आजकल किसी की उम्र या तनख़्वाह मालूम करना बुरी बात समझी जाती है, उसी तरह, बिल्कुल उसी तरह, बीस साल बाद किसी की वल्दियत पूछना बेहूदगी समझी जाएगी!”

अब मुझे मिर्ज़ा के चौंचाल स्वभाव से ख़तरा महसूस होने लगा। लिहाज़ा उन्हें वल्दियत के भविष्य पर मुस्कुराता छोड़कर मैं आठ दस क़ब्र दूर एक टुकड़ी में शामिल हो गया, जहाँ एक साहब स्वर्गवासी के जीवन के हालात मज़े ले-लेकर बयान कर रहे थे। वे कह रहे थे कि ख़ुदा की उन पर रहमत हो मरहूम (स्वर्गीय) ने इतनी लम्बी उम्र पाई कि उनके क़रीबी रिश्तेदार दस-पंद्रह साल से उनकी  इंश्योरेंस पॉलिसी की उम्मीद में जी रहे थे। उन उम्मीदवारों में अधिकतर को मरहूम ख़ुद अपने हाथ से मिट्टी दे चुके थे। बाक़ी लोगों को यक़ीन हो गया था कि मरहूम ने अमृत न केवल चखा है बल्कि ग़टग़टा के पी चुके हैं। बयानकर्ता ने तो यहाँ तक बयान किया कि चूँकि मरहूम शुरू से रख-रखाव के बहुत ज़्यादा क़ायल थे, अतः अंत तक इस स्वस्थ धारणा पर अडिग रहे कि छोटों को बड़ों के सम्मान  में पहले मरना चाहिए। अलबत्ता इधर चंद बरसों से उनको टेढ़ी चाल चलने वाले ग्रहों से यह शिकायत हो चली थी कि अफ़सोस अब कोई दुश्मन ऐसा बाक़ी नहीं रहा, जिसे वे मरने की बददुआ दे सकें।

उनसे कटकर मैं एक दूसरी टोली में जा मिला। यहाँ मरहूम के एक परिचित और मेरे पड़ोसी उनके गैलड़1 (सौतेले) लड़के को अल्लाह की मर्ज़ी पर सब्र की नसीहत और गोलमोल शब्दों में विकल्प की दुआ देते हुए फ़रमा रहे थे कि “बरख़ुरदार! ये मरहूम के मरने के दिन नहीं थे।” हालाँकि पाँच मिनट पहले यही साहब, जी हाँ, यही साहब मुझसे कह रहे थे कि “मरहूम ने पाँच साल पहले दोनों बीवियों को अपने तीसरे सेहरे की बहारें दिखाई थीं और ये उनके मरने के नहीं, डूब मरने के दिन थे।” मुझे अच्छी तरह याद है कि उन्होंने उंगलियों पर हिसाब लगाकर कानाफूसी के अंदाज़ में यह तक बताया कि “तीसरी बीवी की उम्र मरहूम की पेंशन के बराबर है। मगर है बिल्कुल सीधी और बेज़बान। उस अल्लाह की बंदी ने कभी पलटकर नहीं पूछा था कि तुम्हारे मुँह में कै दाँत नहीं हैं। मगर मरहूम इस ख़ुशफ़हमी का शिकार थे कि उन्होंने सिर्फ़ अपनी दुआओं के बल से महोदया का चाल-चलन क़ाबू में रखा है। अलबत्ता ब्याहता बीवी से उनकी कभी नहीं बनी। भरी जवानी में भी मियाँ-बीवी ३६ के अंक की तरह एक दूसरे से मुँह फेरे रहे और जब तक जिये, एक दूसरे के हवास पर सवार रहे। महोदया ने मशहूर कर रखा था कि (ख़ुदा उनकी रूह को न शरमाए) ‘मरहूम शुरू से ही ऐसे ज़ालिम थे कि वलीमे (विवाह भोज) का खाना भी मुझ नई नवेली दुल्हन से पकवाया।’”

मैंने गुफ़्तगू की दिशा मोड़ने के लिए घनी क़ब्रिस्तान की ओर संकेत करते हुए कहा “देखते ही देखते चप्पा-चप्पा आबाद हो गया।”

मिर्ज़ा हमेशा की तरह फिर बीच में कूद पड़े। कहने लगे,देख लेना वह दिन ज़्यादा दूर नहीं जब कराची में मुर्दे को खड़ा गाड़ना पड़ेगा और नायलॉन के रेडीमेड कफ़न में ऊपर ज़िप (zip) लगेगी ताकि मुँह देखने दिखाने में आसानी रहे।”

मेरा मन इन बातों से ऊबने लगा तो एक दूसरी टोली में चला गया, जहाँ दो नौजवान सितार के ग़िलाफ़ जैसी पतलूनें चढ़ाए चहक रहे थे। पहलेटेडीबॉय” की पीली क़मीज़ पर लड़कियों की ऐसी वाहियात तस्वीरें बनी हुई थीं कि नज़र पड़ते ही शालीन आदमी लाहौल पढ़ने लगते थे और हमने देखा कि हर शालीन आदमी बार-बार लाहौल पढ़ रहा था। दूसरे नौजवान को मरहूम की असमय मृत्यु से सचमुच हार्दिक कष्ट पहुँचा था, क्योंकि उसका सारावीकेंड” चौपट हो गया था।

चोंचों और चुहलों का यह सिलसिला शायद कुछ देर और जारी रहता कि इतने में एक साहब ने हिम्मत करके मरहूम के पक्ष में पहला शुभ वचन कहा और मेरी जान में जान आई। उन्होंने सही फ़रमायायूँ आँख बंद होने के बाद लोग कीड़े निकालने लगें, यह और बात है, मगर ख़ुदा उनकी क़ब्र को ख़ुशबू से भर दे , मरहूम बिला-शुबहा (निःसंदेह) साफ़ दिल, नेक-नीयत इंसान थे और नेक-नाम भी। यह बड़ी बात है।”

नेक-नामी में क्या संदेह है। मरहूम अगर यूँही मुँह हाथ धोने बैठ जाते तो सब यही समझते कि वज़ू कर रहे.....” जुमला ख़त्म होने से पहले प्रशंसक की चमकती चंदिया एकाएक एक धंसी हुई क़ब्र में डूब गई।

इस चरण पर एक तीसरे सज्जन ने (जिनसे मैं परिचित नहीं) ‘अगर मैं व्यक्तिगत लांछन लगा रहा हूँ तो मेरा मुँह काला’ वाले लहजे में नेक-नीयती और साफ़-दिली का विश्लेषण करते हुए फ़रमाया कि कुछ लोग अपनी जन्मजात कायरता के कारण सारी उम्र पापों से बचे रहते हैं। इसके विपरीत कुछ लोगों के दिल सचमुच आईने की तरह साफ़ होते हैं— यानी अच्छे विचार आते हैं और गुज़र जाते हैं।

मेरी शामत आई थी कि मेरे मुँह से निकल गयानीयत का हाल सिर्फ़ ख़ुदा को मालूम है मगर अपनी जगह यही क्या कम है कि मरहूम सबके दुख-सुख में शरीक और साधारण-से-साधारण पड़ोसी से भी झुककर मिलते थे।”

अरे साहब! यह सुनते ही वह सज्जन तो लाल भभूका हो गए। बोले, “हज़रत! मुझे अन्तर्यामी होने का दावा तो नहीं। फिर भी इतना ज़रूर जानता हूँ कि अक्सर बूढ़े ख़ुर्रांट अपने पड़ोसियों से सिर्फ़ इस ख़याल से झुककर मिलते हैं कि अगर वे क्रुद्ध हो गए तो कंधा कौन देगा।”

ख़ुश क़िस्मती से एक नेक बन्दे ने मेरी हिमायत की। मेरा मतलब है मरहूम की हिमायत की। उन्होंने कहा “मरहूम ने, माशाअल्लाह, इतनी लम्बी उम्र पाई। मगर सूरत पर फटकार ज़रा नहीं बरसती थी। अतः सिवाए कनपटियों के और बाल सफ़ेद नहीं हुए। चाहते तो ख़िज़ाब लगाके कमसिनों में शामिल हो सकते थे मगर तबियत में ऐसी फ़क़ीरी थी कि ख़िज़ाब का कभी झूठों भी ख़याल नहीं आया।”

वह साहब सचमुच फट पड़े, “आप को ख़बर भी है? मरहूम का सारा सिर पहले निकाह के बाद ही धुनी रूई की तरह सफ़ेद हो गया था। मगर कनपटियों को वे जानबूझकर सफ़ेद रहने देते थे ताकि किसी को शक न हो कि ख़िज़ाब लगाते हैं। सिल्वर-ग्रे क़ल्में! यह तो उनके मेकअप में एक नेचुरल टच था!”

अरे साहब! इसी चालाकी से उन्होंने अपना एक नक़ली दाँत भी तोड़ रखा था,” एक दूसरे निंदक ने ताबूत में आख़िरी कील ठोंकी।

कुछ भी सही वे उन खूसटों से हज़ार गुना बेहतर थे जो अपने पोपले मुँह और सफ़ेद बालों की तारीफ़ छोटों से यूँ सुनना चाहते हैं, मानो यह उनके निजी संघर्ष का फल है।” मिर्ज़ा ने बिगड़ी बात बनाई।

उनसे पीछा छुड़ाकर कच्ची-पक्की क़ब्रें फांदता मैं मुंशी सनाउल्लाह के पास जा पहुँचा, जो एक शिलालेख से टेक लगाए बेरी के हरे-हरे पत्ते कचर-कचर चबा रहे थे और इस बात पर बार-बार आश्चर्य व्यक्त कर रहे थे कि अभी परसों तक तो मरहूम बातें कर रहे थे। मानो जान निकलने के उनके अपने शिष्टाचार के मुताबिक़ मरहूम को मरने से तीन चार साल पहले चुप हो जाना चाहिए था।

भला मिर्ज़ा ऐसा मौक़ा कहाँ ख़ाली जाने देते थे। मुझे संबोधित करके कहने लगे, याद रखो! मर्द की आँख और औरत की ज़ुबान का दम सबसे आख़िर में निकलता है।

यूँ तो मिर्ज़ा के बयान के मुताबिक़ मरहूम की विधवाएँ भी एक दूसरे की छाती पर दो हत्तड़ मार-मारकर विलाप कर रही थीं, लेकिन मरहूम के बड़े नाती ने जो पाँच साल से बेरोज़गार था, चीख़-चीख़कर अपना गला बिठा लिया था। मुंशीजी बेरी के पत्तों का रस चूस-चूसकर जितना उसे समझाते पुचकारते, उतना ही वह मरहूम की पेंशन को याद करके धाड़ें मार-मारकर रोता। उसे अगर एक तरफ़ मलकुल-मौत (मौत का फ़रिश्ता) से गिला था कि उस ने तीस तारीख़ तक इंतज़ार क्यों न किया तो दूसरी तरफ़ ख़ुद मरहूम से भी सख़्त शिकवा था:‘क्या तेरा बिगड़ता जो न मरता कोई दिन और?

इधर मुंशीजी का सारा ज़ोर इस फ़लसफ़े पर था कि बरख़ुरदार! यह सब नज़र का धोखा है। वास्तव में जीवन और मृत्यु में कोई अंतर नहीं। कम-से-कम एशिया में। और मरहूम बड़े नसीब वाले निकले कि दुनिया के बखेड़ों से इतनी जल्दी मुक्त हो गए। मगर तुम हो कि नाहक़ अपनी जवान जान को हलकान किए जा रहे हो। यूनानी कहावत है कि: ‘वही मरता है जो महबूबे-ख़ुदा होता है।’

उपस्थित जन अभी दिल ही दिल में ईर्ष्या से जले जा रहे थे कि हाय, मरहूम की आई हमें क्यों न आगई कि दम भर को बादल के एक फ़ालसई (बैंगनी) टुकड़े ने सूरज को ढक लिया और हल्की-हल्की फुवार पड़ने लगी। मुंशीजी ने अचानक बेरी के पत्तों का फूक (रस) निगलते हुए इस फुवार को मरहूम के जन्नती होने का शुभशगुन क़रार दिया। लेकिन मिर्ज़ा ने भरी भीड़ में सर हिला-हिलाकर इस भविष्यवाणी का विरोध किया। मैंने अलग लेजाकर वजह पूछी तो फ़रमाया:

मरने के लिए सनीचर का दिन बहुत मनहूस होता है।”

लेकिन सबसे ज़्यादा पतला हाल मरहूम के एक मित्र का था, जिनके आँसू किसी तरह थमने का नाम नहीं लेते थे कि उन्हें मरहूम से पुराने लगाव और दोस्ती का दावा था। इसलिए आत्मिक घनिष्टता के सुबूत में अक्सर उस घटना का ज़िक्र करते कि “बग़दादी क़ायदा (अरबी अक्षर-माला) ख़त्म होने से एक दिन पहले हम दोनों ने एक साथ सिग्रेट पीना सीखा था।” अतः इस समय भी महोदय के विलाप से साफ़ टपकता था कि मरहूम किसी सोचे समझे मंसूबे के तहत दाग़ (दुख) बल्कि दग़ा दे गए और बिना कहे-सुने पीछा छुड़ाके चुप-चपाते जन्नत-उल-फ़िर्दौस (स्वर्ग) को रवाना हो गए— अकेले ही अकेले!

बाद में मिर्ज़ा ने खोलकर बताया कि आपसी प्रेम और अंतरंगता का यह हाल था कि मरहूम ने अपनी मौत से तीन माह पहले महोदय से दस हज़ार रूपये सिक्क--राइजुल-वक़्त (वैध-मुद्रा), व्याज-मुक्त क़र्ज़ के तौर पर लिये और वह तो कहिए, बड़ी ख़ैरियत हुई कि इसी रक़म से तीसरी बीवी का मेहर (निर्वाह-व्यय) बेबाक़ कर गए वर्ना क़यामत में अपने सास-ससुर को क्या मुँह दिखाते।

2

आपने अक्सर देखा होगा कि घने मुहल्लों में मुख़्तलिफ़ बल्कि परस्पर विरोधी समारोह एक दूसरे में बड़ी ख़ूबी से घुल-मिल जाते हैं। मानो दोनों वक़्त मिल रहे हों। चुनांचे अक्सर सज्जन दावत--वलीमा (विवाह-भोज) में हाथ धोते समय चेहलुम (मृत्यु पश्चात चालीसवें दिन का भोज) की बिरयानी की डकार लेते, या सोयम (मृत्यु पश्चात तीसरे दिन का भोज) में अपने निशाकालिक विजय अभियानों की चटपटी दास्तान सुनाते पकड़े जाते हैं।

पड़ोसी के रूप में भोगविलास का यह चित्र भी अक्सर देखने में आया कि एक क्वाटर में हनीमून मनाया जा रहा है तो रत-जगा दीवार के उस तरफ़ हो रहा हैऔर यूँ भी होता है कि दाईं तरफ़ वाले घर में आधी रात को क़व्वाल बिल्लियाँ लड़ा रहे हैं, तो भाव-समाधि बाईं तरफ़ वाले घर में लग रही है। आमदनी पड़ोसी की बढ़ती है तो इस ख़ुशी में नाजायज़ ख़र्च हमारे घर का बढ़ता है और यह घटना भी कई बार घटी कि मछली छैल-छबीली पड़ोसन ने पकाई और ‘मुद्दतों अपने बदन से तेरी ख़ुश्बू आई

इस समारोही घपले का सही अंदाज़ा मुझे दूसरे दिन हुआ जब एक शादी के समारोह में सारे समय मरहूम की दुखद मृत्यु का ज़िक्र होता रहा। एक बुज़ुर्ग ने, जो सूरत से स्वयं अनंत-यात्रा पर जाने के लिए तैयार प्रतीत होते थे, चिंतापूर्ण स्वर में पूछा, "आख़िर हुआ क्या?जवाब में मरहूम के एक सहपाठी ने इशारों व गुपचुप संकेतों में बताया कि मरहूम जवानी में विज्ञापनी रोगों का शिकार हो गए। अधेड़ उम्र में गरमी-रोग से ग्रस्त रहे। लेकिन अंतिम दिनों में धर्मशीलता हो गई थी।

फिर भी आख़िर हुआ क्या?” अनंत-यात्रा के लिए तैयार बुज़ुर्ग मर्द ने अपना सवाल दोहराया।

भले चंगे थे अचानक एक हिचकी आई और चल बसे,” दूसरे बुज़ुर्ग ने अंगोछे से एक फ़र्ज़ी आँसू पोंछते हुए जवाब दिया।

सुना है चालीस वर्ष से मरणासन्न अवस्था में थे,” एक सज्जन ने सूखे से मुँह से कहा।

क्या मतलब?”

चालीस वर्ष से खाँसी से पीड़ित थे और अंततः इसी में प्राण त्यागा।”

साहब! जन्नती (स्वर्गवासी ) थे कि किसी अजनबी मर्ज़ में नहीं मरे। वर्ना अब तो मेडिकल साइंस की तरक़्क़ी का यह हाल है कि रोज़ एक नया मर्ज़ ईजाद होता है।”

आपने गांधी गॉर्डन में उस बोहरी-सेठ को कार में चहलक़दमी करते नहीं देखा जो कहता है कि मैं सारी उम्र दमे पर इतनी लागत लगा चुका हूँ कि अब अगर किसी और मर्ज़ में मरना पड़ा तो ख़ुदा की क़सम, ख़ुदकुशी कर लूँगा।” मिर्ज़ा चुटकुलों पर उतर आए।

वल्लाह! मौत हो तो ऐसी हो! (सिसकी) मरहूम के होंठों पर जान निकलते समय भी मुस्कान खेल रही थी।”

अपने क़र्ज़दाताओं का ख़याल आ रहा होगा,” मिर्ज़ा मेरे कान में फुसफुसाए।

गुनहगारों का मुँह मरते वक़्त सुअर जैसा हो जाता है, मगर चश्म--बद्दूर! मरहूम का चेहरा गुलाब की तरह खिला हुआ था।”

साहब! सलेटी रंग का गुलाब हमने आज तक नहीं देखा,” मिर्ज़ा की ठंडी-ठंडी नाक मेरे कान को छूने लगी और उनके मुँह से कुछ ऐसी आवाज़ें निकलने लगीं जैसे कोई बच्चा चमकीले फ़र्नीचर पर गीली उंगली रगड़ रहा हो।

असल अल्फ़ाज़ तो ज़ेहन से मिट गए, लेकिन इतना अब भी याद है कि अंगोछे वाले बुज़ुर्ग ने एक दार्शनिक भाषण दे डाला, जिस का मतलब कुछ ऐसा ही था कि जीने का क्या है। जीने को तो जानवर भी जी लेते हैं, लेकिन जिसने मरना नहीं सीखा, वह जीना क्या जाने। एक स्मित समर्पण, एक अधीर अंगीकरण के साथ मरने के लिए एक उम्र की तपस्या दरकार है। यह बड़े धीरज और बड़े साहस का काम है, बंदानवाज़!

फिर उन्होंने बेमौत मरने के ख़ानदानी नुस्ख़े और हँसते-खेलते अपना प्राण त्याग कराने के पैंतरे कुछ ऐसे उस्तादों वाले तेवर से बयान किए कि हमें अनाड़ी मरने वालों से हमेशा-हमेशा के लिए नफ़रत हो गई।

भाषण समाप्त इस पर हुआ कि मरहूम ने किसी अंतर्बोध द्वारा सुन-गुन पा ली थी कि मैं शनिवार को मर जाऊँगा।

हर मरने वाले के बारे में यही कहा जाता है,” तस्वीरी क़मीज़ वाला टेडीबॉय बोला।

कि वह शनिवार को मर जाएगा?” मिर्ज़ा ने उस मुँहफट का मुँह बंद किया।

अंगोछे वाले बुज़ुर्ग ने बोलने से पहले अपने नरी के जूते की गर्द झाड़ी, फिर पेशानी से पसीना पोंछते हुए मरहूम के अपनी मृत्यु के पूर्वज्ञान की गवाही दी कि दिवंगत ने शरीर त्यागने से ठीक चालीस दिन पहले मुझसे फ़रमाया था कि इंसान नश्वर है!

इंसान के विषय में यह ताज़ा ख़बर सुनकर मिर्ज़ा मुझे एकांत में ले गए। दरअसल एकांत का शब्द उन्होंने इस्तेमाल किया था, वर्ना जिस जगह वे मुझे धकेलते हुए ले गए, वह ज़नाने और मर्दाने की सरहद पर एक चबूतरा था, जहाँ एक मीरासन घूँघट निकाले ढोलक पर गालियाँ गा रही थी। वहाँ उन्होंने उस रुचि की तरफ़ संकेत करते हुए जो मरहूम को अपनी मौत से थी, मुझे अवगत कराया कि यह ड्रामा तो मरहूम अक्सर खेला करते थे। आधी-आधी रातों को अपनी होने वाली विधवाओं को जगा-जगाकर धमकियाँ देते कि मैं अचानक अपना साया तुम्हारे सिर से उठा लूँगा। पलक झपकते में माँग उजाड़ दूँगा। अपने घनिष्ट मित्रों से भी कहा करते कि वल्लाह! अगर ख़ुदकुशी जुर्म न होती तो कभी का अपने गले में फंदा डाल लेता। कभी यूँ भी होता कि अपने आपको मुर्दा कल्पना करके डकारने लगते और कल्पना-दृष्टि से मंझली के सोंटा जैसे हाथ देखकर कहते ‘बख़ुदा! मैं तुम्हारा रंडापा नहीं देख सकता।’ मरने वाले की एक-एक ख़ूबी बयान करके सूखी सिसकियाँ भरते और सिसकियों के दरमियान सिग्रेट के कश लगाते और जब इस प्रक्रिया से अपने ऊपर अश्रुपूर्ण अवस्था तारी कर लेते तो रूमाल से बार-बार आँख के बजाए अपनी डबडबाई हुई नाक पोंछते जाते। फिर जब रोने की शिद्दत से नाक लाल हो जाती तो थोड़ा सब्र आता और वे कल्पना जगत में अपने कंपकंपाते हुए हाथ से तीनों विधवाओं की माँग में एक के बाद दूसरे, ढेरों अफ़शाँ भरते। इससे फ़ुर्सत पाकर हर एक को कोहनियों तक महीन-महीन, फँसी-फँसी चूड़ियाँ पहनाते (ब्याहता को चार चूड़ियाँ कम पहनाते थे)

हालाँकि इससे पहले भी मिर्ज़ा को कई बार टोक चुका था कि ख़ाक़ानी--हिन्द2 उस्ताद ‘ज़ौक़’ हर क़सीदे3 के बाद मुँह भर-भरके कुल्लियाँ किया करते थे। तुम्हारे लिए हर बात, हर जुमले के बाद कुल्ली ज़रूरी है। लेकिन इस वक़्त मरहूम के बारे में ये ऊल-जुलूल बातें और ऐसे खुल्लम-खुल्ला लहजे में सुनकर मेरी तबीयत कुछ ज़्यादा ही खिन्न हो गई। मैंने दूसरों पर ढालकर मिर्ज़ा को सुनाई:

ये कैसे मुसलमान हैं मिर्ज़ा! गुनाहों की मग़फ़िरत (माफ़ी) की दुआ नहीं करते, न करें। मगर ऐसी बातें क्यों बनाते हैं ये लोग?”

ख़ुदा के बन्दों की ज़बान किसने पकड़ी है। लोगों का मुँह तो चेहलुम के निवाले ही से बंद होता है।”

3

मुझे चेहलुम में भी शामिल होने का इत्तेफ़ाक़ हुआ। लेकिन सिवाए एक भले मानुस मौलवी साहब के जो पुलाव के लिए चावलों की लम्बाई और गलावट को दिवंगत के ठेठ जन्नती होने की निशानी क़रार दे रहे थे, बाक़ी सज्जनों की ललित-बयानी का वही अंदाज़ था। वही जगजगे थे, वही चहचहे!

एक सज्जन जो नान-क़ोरमे के हर अंगारा निवाले के बाद आधा-आधा गिलास पानी पीकर समय से पहले ही तृप्त बल्कि तर-बतर हो गए थे, मुँह लाल करके बोले कि “मरहूम की औलाद निहायत निकम्मी निकली। मरहूम सख़्ती से वसीयत फ़रमा गए थे कि मेरी मिट्टी बग़दाद ले जाई जाए लेकिन नाफ़रमान संतान ने उनकी आख़िरी ख़्वाहिश का ज़रा भी लिहाज़ न किया”।

इस पर एक मुँहफट पड़ोसी बोल उठे, “साहब! यह मरहूम की सरासर ज़्यादती थी कि उन्होंने ख़ुद तो आख़िरी साँस तक म्युनिसिपल सीमाओं से क़दम बाहर नहीं निकाला। हद यह है कि पासपोर्ट तक नहीं बनवाया और....”

एक वकील साहब ने क़ानून के बाल की खाल खींची अंतर्राष्ट्रीय क़ानून के अनुसार पासपोर्ट सिर्फ़ ज़िंदों के लिए ज़रूरी है। मुर्दे पासपोर्ट के बिना भी जहाँ चाहें जा सकते हैं।”

ले जाए जा सकते हैं,” मिर्ज़ा फिर लुक़मा दे गए।

मैं कह रहा था कि यूँ तो हर मरने वाले के दिल में यह इच्छा सुलगती रहती है कि मेरी कांसे की मूर्ति (जिसे आदमक़द बनाने के लिए अक्सर वक़्त अपनी ओर से पूरे एक फ़ुट का इज़ाफ़ा करना पड़ता है) म्युनिसिपल पॉर्क के बीचों-बीच प्रतिस्थापित की जाए और ....”

और शहर की सारी सुंदरियाँ चार महीने दस दिन4 तक मेरी लाश को गोद में लिये, बाल बिखराए बैठी रहीं” मिर्ज़ा ने जुमला पूरा किया।

मगर साहब! वसीयतों की भी एक हद होती है। हमारे छुटपन का क़िस्सा है। पीपल वाली हवेली के पास एक झोंपड़ी में सन् 39 . तक एक अफ़ीमी रहता था। हमारे सतर्क अनुमान के अनुसार उम्र 66 साल से किसी तरह कम न होगी, इसलिए कि ख़ुद कहता था कि पैंसठ साल से तो अफ़ीम खा रहा हूँ। चौबीस घंटे अंटा-ग़फ़ील (बेसुध) रहता था। ज़रा नशा टूटता तो दुखी हो जाता। दुख यह था कि दुनिया से बेऔलादा जा रहा हूँ। ख़ुदा ने कोई पुरुष-संतान न दी जो उसकी बान की चारपाई का जायज़ वारिस बन सके! उसके बारे में मोहल्ले में मशहूर था कि पहले विश्वयुद्ध के बाद नहीं नहाया है। उस को इतना तो हमने भी कहते सुना कि ख़ुदा ने पानी सिर्फ़ पीने के लिए बनाया था मगर इंसान बड़ा ज़ालिम है ‘राहतें और भी हैं ग़ुस्ल की राहत के सिवा 5 ।’

हाँ तो साहब! जब वह आख़िरी साँसें लेने लगा तो मोहल्ले की मस्जिद के इमाम का हाथ अपने डूबते दिल पर रखकर यह वादा करवाया कि मेरी मैयत को ग़ुस्ल (स्नान) न कराया जाए। बस पोले-पोले हाथों से तयम्मुम6 कराके कफ़ना दिया जाए वर्ना हश्र में दामन पकडूँगा।”

वकील साहब ने समर्थन करते हुए फ़रमाया, “अक्सर मरने वाले अपने करने के काम वारिसों को सौंप कर ठंडे-ठंडे सिधार जाते हैं। पिछली गर्मियों में दीवानी अदालतें बंद होने से चंद दिन पहले एक मुक़ामी शायर का देहांत हुआ। यह बिल्कुल सच बात है कि उनके जीते जी किसी फ़िल्मी पत्रिका ने भी उनकी नंगी नज़्मों (कविताओं) को प्रकाशित न किया। लेकिन आपको हैरत होगी कि मरहूम अपने भतीजे को उनकी आत्मा को शान्ति दिलाने के लिए यह राह सुझा गए कि मरने के बाद मेरी शायरी मेंहदी रंग के काग़ज़ पर छपवाकर साल-के-साल मेरी बर्सी पर फ़क़ीरों और मुरीदों को मुफ़्त बाँटी जाए।”

पड़ोसी की हिम्मत और बढ़ी, “अब मरहूम ही को देखिए। ज़िन्दगी में ही ज़मीन का एक टुकड़ा अपनी क़ब्र के लिए बड़े अरमानों से रजिस्ट्री करा लिया था, हालाँकि बेचारे उसका अधिग्रहण पूरे बारह साल बाद कर पाए। नसीहतों और वसीयतों का यह हाल था कि मौत से दस साल पहले एक फ़ेहरिस्त अपने नातियों के हवाले कर दी थी, जिसमें नाम बनाम लिखा था कि फ़लाँ-वल्द-फ़लाँ को मेरा मुँह न दिखाया जाए। (जिन हज़रात से ज़्यादा नाराज़ थे, उनके नाम के आगे वल्दियत नहीं लिखी थी।) तीसरी शादी के बाद उन्हें इसका दीर्घ परिशिष्ट तैयार करना पड़ा, जिसमें सारे जवान पड़ोसियों के नाम शामिल थे।”

हमने तो यहाँ तक सुना है कि मरहूम न सिर्फ़ अपने जनाज़े में शामिल होने वालों की तादाद तय कर गए बल्कि आज के चेहलुम का मेन्यू भी ख़ुद ही तय कर गए थे।” वकील ने रेखाचित्र में चहकता रंग भरा।

इस नाज़ुक चरण पर ख़शख़शी दाढ़ी वाले बुज़ुर्ग ने पुलाव से परितृप्त होकर अपने पेट पर हाथ फेरा और ‘मेन्यू’ की प्रशंसा व समर्थन में एक श्रृंखलाबद्ध डकार दाग़ी, जिसकी समाप्ति पर यह मासूम इच्छा व्यक्त की कि आज मरहूम जीवित होते तो यह व्यवस्था देखकर कितने ख़ुश होते!

अब पड़ोसी ने ज़ुबान की तलवार को बेम्यान किया, “मरहूम सदा से हाज़मे की ख़राबी के मरीज़ थे। खाना तो खाना, बेचारे के पेट में बात तक नहीं ठहरती थी। चटपटी चीज़ों को तरस्ते ही मरे। मेरी घर वाली बता रही थीं कि एक दफ़ा मलेरिया में सन्निपात हो गया और लगे बहकने। बार-बार अपना सिर मंझली की जाँघों पर पटकते और सुहाग की क़सम दिलाकर यह वसीयत करते थे कि हर जुमेरात को मेरी फ़ातिहा7, चाट और कुँवारी बकरी की सिरी पर दिलवाई जाए।”

मिर्ज़ा फड़क ही तो गए। होंठ पर ज़ुबान फेरते हुए बोले, “साहब! वसीयतों की कोई हद नहीं। हमारे मोहल्ले में डेढ़ पौने दो साल पहले एक स्कूल मास्टर का देहांत हुआ, जिन्हें ईद-बक़ारा ईद पर भी बिना फटा पाजामा पहने नहीं देखा। मगर मरने से पहले वे भी अपने लड़के को हिदायत कर गए कि ‘पुल बना, चाह (कुआँ) बना, मस्जिद--तालाब बना!’

लेकिन पिता श्री की आख़िरी वसीयत के मुताबिक़ कल्याण-कार्य के करने में लड़के की मुफ़लिसी के अलावा मुल्क का क़ानून भी बाधक हुआ।”

यानी क्या?” वकील साहब के कान खड़े हुए।

यानी यह कि आजकल पुल बनाने की इजाज़त सिर्फ़ पी.डब्लू.डी. को है और अगर किसी तरह कराची में चार फ़ुट गहरा कुआँ खोद भी लिया तो पुलिस उसका खारी कीचड़ पीने वालों का चालान ख़ुदकुशी की कोशिश करने के जुर्म में करदे गी। यूँ भी फटीचर से फटीचर क़स्बे में आजकल कुएँ केवल ऐसे वैसे मौक़ों पर डूब मरने के लिए काम आते हैं। रहे तालाब, तो जनाब! ले दे के उनका यही उपयोग रह गया है कि दिन भर उनमें गाँव की भैंसें नहाएँ और सुबह जैसी आई थीं, उससे कहीं ज़्यादा गंदी होकर चिराग़ जले बाड़े में पहुँचें।”

ख़ुदा-ख़ुदा करके यह संवाद समाप्त हुआ तो पटाख़ों का सिलसिला शुरू हो गया:

मरहूम ने कुछ छोड़ा भी?”

बच्चे छोड़े हैं!”

मगर दूसरा मकान भी तो है।”

उसके किराये को अपनी क़ब्र की सालाना मरम्मत व सफ़ेदी के लिए समर्पित कर गए हैं।”

पड़ोसियों का कहना है कि ब्याहता बीवी के लिए एक अंगूठी भी छोड़ी है। अगर उसका नगीना असली होता तो किसी तरह बीस हज़ार से कम की नहीं थी।”

तो क्या नगीना नक़ली है?”

जी नहीं।असली इमिटेशन है!”

और वह पचास हज़ार की इंश्योरेंस पॉलिसी क्या हुई?”

वह पहले ही मंझली के मेहर में लिख चुके थे।”

उसके बारे में यार लोगों ने चुटकला गढ़ रखा है कि मंझली विधवा कहती है कि रसिया मन-बसिया के बिना जीवन अजीरन है। अगर कोई उनको दोबारा ज़िंदा करदे तो मैं ख़ुशी से दस हज़ार लौटाने पर तैयार हूँ।”

हमने निजी सूत्रों से सुना है कि अल्लाह उन्हें करवट-करवट जन्नत नसीब करे, मरहूम मंझली पर ऐसे लहालोट थे कि अब भी रात-बिरात, सपनों में आ आकर डराते हैं।”

मरहूम अगर ऐसा करते हैं तो बिल्कुल ठीक करते हैं। अभी तो उनका कफ़न भी मैला नहीं हुआ होगा, मगर सुनने में आया है कि मंझली ने रंगे चुने दुपट्टे ओढ़ना शुरू कर दिया है।”

अगर मंझली ऐसा करती है तो बिल्कुल ठीक करती है। आपने सुना होगा कि एक ज़माने में लखनऊ के निचले तबक़े (वर्ग) में यह रिवाज़ था कि चालीसवें पर न सिर्फ़ तरह-तरह के खानों शानदार  इंतज़ाम किया जाता, बल्कि विधवा भी सोलह-सिंगार करके बैठती थी ताकि मरहूम की तरसी हुई आत्मा को भरपूर लाभ हो सके।” मिर्ज़ा ने मरे पर आख़री दुर्रा लगाया।

वापसी पर रास्ते में मैंने मिर्ज़ा को आड़े हाथों लिया, जुमा को तुमने उपदेश नहीं सुना? मौलवी साहब ने कहा था कि मरे हुओं का ज़िक्र करो तो अच्छाई के साथ। मौत को न भूलो कि एक न एक दिन सबको आनी है।”

सड़क पार करते-करते एक दम बीच में अकड़कर खड़े हो गए। फ़रमाया, “अगर कोई मौलवी यह ज़िम्मा ले ले कि मरने के बाद मेरे नाम के साथ “रहमतुल्लाह” लिखा जाएगा तो आज ही— इसी वक़्त, इसी जगह मरने के लिए तैयार हूँ। तुम्हारी जान की क़स्सम!”

आख़िरी जुमला मिर्ज़ा ने एक अधीर कार के बम्पर पर लगभग उकडूँ बैठकर जाते हुए अदा किया।

***




                                                                      अनुवादक: डॉ. आफ़ताब अहमद

                                                        वरिष्ठ व्याख्याता, हिन्दी-उर्दू, कोलंबिया विश्वविद्यालय, न्यूयॉर्क

1 1 गैलड़: लड़का जिसे उसकी माँ अपने साथ दूसरे पति या यार के यहाँ लेकर चली आई हो; सौतेला

2 2 ख़ाक़ानी--हिन्द अर्थात भारत के ख़ाक़ानी। मुग़ल बादशाह बहादुरशाह ‘ज़फ़र’ के दरबारी कवि और शायरी के उस्ताद शेख़ इब्राहीम ‘जौक़’ की उपाधि। ख़ाक़ानी बारहवीं शाताब्दी में ईरान में क़सीदे (प्रशस्ति) का महान फ़ारसी शायर था। ‘ज़ौक’ ने बहादुर शाह ‘ज़फ़र’ के बहुत से उम्दा क़सीदे लिखे हैं।

3 3 क़सीदा: कविता की एक विधा जिसमें किसी बादशाह या अमीर की प्रशंसा अतिशयोक्तिपूर्ण ढंग से की जाती है। ‘जौक़’ इस विधा के सबसे बड़े शायर माने जाते हैं।

4 4 पति के मरने या तलाक़ के बाद चार महीना दस दिन तक मुस्लिम स्त्री के लिए शादी करना वर्जित है। इस समय को इद्दत कहते हैं।

5 5 और भी दुख हैं ज़माने में मुहब्बत के सिवा

राहतें और भी हैं वस्ल की राहत के सिवा (फ़ैज़ अहमद ‘फ़ैज़)

6 6 तयम्मुम: दोनों हथेलियाँ, उँगलियों समेत, सूखी और पाक मिट्टी या किसी गर्द की तह जमी हुई सतह,मसलन साफ़ दीवार, पर फेरना और फिर हथेलियों को मुँह और बाज़ुओं पर फेरना। इबादत के लिए अगर वज़ू का पानी न उपलब्ध हो या पानी से किसी बीमारी का ख़तरा हो तो तयम्मुम करके नमाज़ पढ़ी जाती है

7 7 फ़ातिहा दिलाना: मृतक की रूह को सवाब पहुँचाने के लिए क़ुरान पढ़ने और खाना खिलाने की रस्म।