Wednesday, April 30, 2025

शहर और जंगल - आत्मदाह

 आत्मदाह 


आत्मदाह कोई खेल नहीं 

झुलस जाता है सारा बदन चंद मिनटों में 

रह जाती है सिर्फ राख , सिर्फ राख 


इसे क़ुर्बानी भी कह सकते है आप 

इसे जवानी भी कह सकते है आप 

दीवारों से फोड़ना भी पड़ जाता है सर 

कभी यूँ भी उजड़ जाते हैं घर 

जीवन में यूँ भी आती है निराशा कभी 

बनना पड़ता है ख़ुद भी तमाशा कभी 


तब रह जाता है शेष क्या 

अर्थ क्या अनर्थ क्या 

अब नहीं किसी की डाह 

हँस क्र करता हूँ आत्मदाह 


मेरा ये भुना हुआ गोश्त 

शायद किसी काम आ ही जाये 

मेरे दोस्त !   


मेरे जिस्म से उठता ये धुआँ भी उठ जाएगा

बिखर ही जाएगी मेरी राख 

मेरे ख़ून  की चन्द सूखी हुई बूँदें 

कुछ वर्दीधारी पुलिसवालों के 

भारी जूतों के तले 

तलाश कर सकते हैं आप 

पर मेरे  जले जुए गोश्त की गंध को 

क़ैद नहीं कर पाएगी 

दुनिया की कोई भी ताकत 

दुनिया की कोई भी सरकार 


मेरे जले हुए गोश्त की गंध 

जब घुल जाएगी 

सब की साँसों में 

तब तुम 

किस किस की छाती पे 

चलवाओगे गोली 

किस किस की साँसों पर 

लगवाओगे ताला ?


मेरी क़ुर्बानी को 

इतिहास भी भूल नहीं पाएगा 

मेरा ख़ून एक दिन 

ज़रूर रंग लाएगा 


मेरा ये भुना हुआ गोश्त 

किसी न किसी 

काम आ ही जाएगा 

मेरे दोस्त !

 

Victor Hugo-

 Victor-Marie Hugo, vicomte Hugo was born on  26 February 1802 –  22 May 1885) was a French Romantic author, poet, essayist, playwright, and politician. During a literary career that spanned more than sixty years, he wrote in a variety of genres and forms.

His most famous works are the novels The Hunchback of Notre-Dame (1831) and Les Misérables (1862). In France, Hugo is renowned for his poetry collections, such as Les Contemplations and La Légende des siècles (The Legend of the Ages). Hugo was at the forefront of the Romantic literary movement with his play Cromwell and drama Hernani. His works have inspired music, both during his lifetime and after his death, including the opera Rigoletto and the musicals Les Misérables and Notre-Dame de Paris. He produced more than 4,000 drawings in his lifetime, and campaigned for social causes such as the abolition of capital punishment and slavery.

Although he was a committed royalist when young, Hugo's views changed as the decades passed, and he became a passionate supporter of republicanism, serving in politics as both deputy and senator. His work touched upon most of the political and social issues and the artistic trends of his time. His opposition to absolutism, and his literary stature, established him as a national hero. Hugo died on 22 May 1885, aged 83. He was given a state funeral in the Panthéon of Paris, which was attended by over two million people, the largest in French history.[2]

As a novelist, diarist, and member of Parliament, Victor Hugo fought a lifelong battle for the abolition of the death penalty. The Last Day of a Condemned Man published in 1829 analyses the pangs of a man awaiting execution;

THE TURKISH CAPTIVE.

     ("Si je n'était captive.")

     {IX., July, 1828.}
     Oh! were I not a captive,
       I should love this fair countree;
     Those fields with maize abounding,
       This ever-plaintive sea:
     I'd love those stars unnumbered,
       If, passing in the shade,
     Beneath our walls I saw not
       The spahi's sparkling blade.

     I am no Tartar maiden
       That a blackamoor of price
     Should tune my lute and hold to me
       My glass of sherbet-ice.
     Far from these haunts of vices,
       In my dear countree, we
     With sweethearts in the even
       May chat and wander free.

     But still I love this climate,
       Where never wintry breeze
     Invades, with chilly murmur,
       These open lattices;
     Where rain is warm in summer,
       And the insect glossy green,
     Most like a living emerald,
       Shines 'mid the leafy screen.

     With her chapelles fair Smyrna—
       A gay princess is she!
     Still, at her summons, round her
       Unfading spring ye see.
     And, as in beauteous vases,
       Bright groups of flowers repose,
     So, in her gulfs are lying
       Her archipelagoes.

     I love these tall red turrets;
       These standards brave unrolled;
     And, like an infant's playthings,
       These houses decked with gold.
     I love forsooth these reveries,
       Though sandstorms make me pant,
     Voluptuously swaying
       Upon an elephant.

     Here in this fairy palace,
       Full of such melodies,
     Methinks I hear deep murmurs
       That in the deserts rise;
     Soft mingling with the music
       The Genii's voices pour,
     Amid the air, unceasing,
       Around us evermore.

     I love the burning odors
       This glowing region gives;
     And, round each gilded lattice,
       The trembling, wreathing leaves;
     And, 'neath the bending palm-tree,
       The gayly gushing spring;
     And on the snow-white minaret,
       The stork with snowier wing.

     I love on mossy couch to sing
       A Spanish roundelay,
     And see my sweet companions
       Around commingling gay,—
     A roving band, light-hearted,
       In frolicsome array,—
     Who 'neath the screening parasols
       Dance down the merry day.
     But more than all enchanting
       At night, it is to me,
     To sit, where winds are sighing,
       Lone, musing by the sea;
     And, on its surface gazing,
       To mark the moon so fair,
     Her silver fan outspreading,
       In trembling radiance there.

     W.D., Tait's Edin. Magazine

Sunday, April 27, 2025

Turkish

 The Turkish proverb "Emek olmadan yemek olmaz." translates to:

"Without effort, there is no reward." or "You can't get food without labor."
It means that success or rewards cannot be achieved without hard work.

ar — "there is / there are"
yok — "there isn't / there aren't"
nerede — "where"
kimde — "with whom" or "who has it"

bina/ inşaat : Building 

Thursday, April 17, 2025

समीक्षा - अकुलाते लोगों की कसमसाहट और व्यथा की आहट

 समीक्षा - 


 अकुलाते लोगों की कसमसाहट और व्यथा की आहट 


- आशीष दशोत्तर 


कविता के सामने हर दौर में कई सारे संकट खड़े रहे हैं । कविता इन संकटों का मुकाबला करती रही , इन्हें जवाब देती रही और इनसे उबर कर एक ऐसे समाज की अवधारणा को पेश करती रही, जिसमें आम इंसान को कुछ पल की ख़ुशी नसीब हो सके । 

कोई भी दौर ऐसा नहीं रहा जिसमें मुश्किलें न रही हों , जिसमें परेशानियां न हों , जिसमें विसंगतियां न हों , जहां विद्रूपताओं का घेरा न हो । एक कवि जब इन सभी को अपनी समदृष्टि से देखा है तो वह उनके बीच से भी एक बेहतरीन वक़्त की तलाश करता है । उसके लिए जहां मुश्किल है वही समाधान भी । जहां दुःख - दर्द है , वहीं ख़ुशी भी । जहां किसी की आह है वहीं सुकून भी । कमोबेश इन्हीं सबके बीच से होकर गुज़रने की कोशिश हर कवि ने की है । 

ग़ालिब कहते हैं - 

हुस्ने - फ़रोगे- शम्अ- सुखन दूर है असद,

पहले दिले - गुदाख़्ता पैदा करे कोई।


पहले अपने भीतर संवेदनाएं होना ज़रूरी हैं। भीतर जब तक किसी परेशानी को देखकर तकलीफ़ नहीं होती है तब तक बेहतर कविता की रचना नहीं हो सकती । समय के निरंतर होते बदलावों के बीच घिरे मनुष्य के सामने उपस्थित मुश्किलों से सक्रिय पत्रकार और कवि श्री प्रमोद झा भी व्यथित हैं। पत्रकारिता और लेखन के ज़रिए एक लंबे समय से अपने रचाव की दुनिया को विस्तृत करते रहे कवि प्रमोद झा भी अपनी कविताओं में कुछ ऐसी ही संवेदनाओं को आवाज़ देते दिखाई पड़ते हैं। अपने सद्य: प्रकाशित कविता संग्रह 'प्रतिरोध के स्वर ' में वे जनमानस के समक्ष मौजूद ऐसी ही तकलीफ़ों से दो - चार होते हैं। 


समय अंधा नहीं होता ,

समय देखता रहता है असंख्य दृश्यों को 

जीवन धाराओं को 

समय के हृदय में बहुत सारी अनुभूतियां ,

जीवन रूपी रंगमंचों के कलाकारों के 

अनगिन कृत्य और दुष्कृतियों की 

समीक्षा करता है समय ,

उत्कृष्ट ,उत्कृष्टतम कृतियों की 

प्रशंसा करता है समय 

सत्य - असत्य अंधकार और प्रकाश का 

साक्षात्कार करता है समय। 


(समय अंधा नहीं होता)


प्रमोद झा की कविताएं समाज के शोषित और व्यथित वर्ग की आवाज़ को बुलंद करती हैं । यह स्पष्ट है कि हर दौर ने इस समाज को विभक्त कर रखा गया है। एक शोषित वर्ग है जो शोषण का शिकार हो रहा है और एक शोषक वर्ग है जो निरंतर बढ़ता ही जा रहा है । उसके रूप बदल रहे हैं । वह शोषकों के रक्त का प्यासा है । किसी न किसी तरह दमित लोगों के रक्त को चूस रहा है । एक पूरे के पूरे वर्ग को उपेक्षित कर पीड़ाएं झेलने के लिए मजबूर किया जा रहा है। उसकी तरफ़ ध्यान नहीं दिया जा रहा है और उसके नाम पर राजनीति की जा रही है।  ऐसे समाज के प्रति एक कवि के मन में संवेदनाएं उभरना स्वाभाविक हैं।


गहन पीड़ा में कुकुरमुत्तों जैसे 

उग आए कैक्टस 

मौत की घाटियों में रक्तधाराएं ,

त्रासदियां ही त्रासदियां ,

मातमी सन्नाटों को बारंबार उघाड़ने 

और चीरने की असफल कोशिशें ,

कितने ही घर- परिवार बिखर गए 

ताश के पत्तों की मानिंद 

राक्षस रक्तबीजों की गिरती ही रहीं रक्त बूंदें ,

एक से बढ़कर एक रक्तबीज। 


(ख़ून में नहाया मणिपुर)


जिस समाज में इतने दुःख दर्द हों,  पीड़ाएं कदम-कदम पर मौजूद हों, वहां एक संवेदनशील व्यक्ति चुप नहीं रह सकता । कवि प्रमोद झा बहुत बेचैनी और अकुलाहट के कवि हैं । उनके भीतर का आक्रोश फूट-फूट कर कहता है कि निर्दयी समाज किस तरह आम इंसान के ग़म से बेफिक्र हो सकता है । किसी मजलूम की आंखों से गिरते हुए आंसू क्यों उसे बेचैन नहीं करते ? क्यों उसे सदैव कुचलने के लिए मजबूर किया जाता है ?  उसके भीतर के करूणामयी संसार को कोई क्यों नहीं देख पाता ? ऐसे कई सारे सवाल एक संवेदनशील कवि को बेचैन करते हैं। यही बेचैनी एक कवि के ज़िंदा होने का सबूत भी है। जिस कवि को इस तरह के दुःख दर्द बेचैन नहीं करते , वह सत्ता का चरणपूजक हो सकता है , जनता का चाहने वाला कभी नहीं।


ओ करुणा ,

तेरी आंखों में आंसू 

हमेशा रोती रहती है , 

क्या रात भर तू सोती नहीं है 

जब भी तुम्हारे बारे में सोचता हूं 

कितने ही चेहरे सामने आ जाते हैं ,

मीरा का भजन गूंजने लगता है 

कृष्ण प्रेम में मीरा रोती थी 

अश्रुधार में तू ही तो समाई करुणा ।

ओ करुणा ,

यशोधरा को भी नहीं छोड़ा 

जीवन पर सिद्धार्थ के बिना 

बिछोह वेदना में तड़पती रही वह 

उर्मिला के शयनकक्ष में प्रविष्ट हो गई 

लक्ष्मण के बिछोह में गिरते रहते आंसू 

तन , मन अश्रुपूरित। 


(आंसू पोंछ नहीं पाई करूणा)


मुक्तिबोध जब कहते हैं ' तय करो , तुम किधर हो ?' तब वह पूरे समाज के सामने एक प्रश्न खड़ा करते हैं । यही प्रश्न आज हर किसी के समक्ष खड़ा हुआ है । दिन-ब-दिन समाज को विभक्त करने की कोशिशें हो रही हैं । मनुष्य को मनुष्य से जुदा किया जा रहा है । इतिहास के गड़े मुर्दे उखाड़ कर वर्तमान को तहस-नहस किया जा रहा है । भविष्य की एक ऐसी ज़मीन गढ़ी जा रही है जिसमें नफ़रत और हिंसा के अतिरिक्त कुछ नहीं हो। वर्तमान पीढ़ी के ख़्वाबों को कुचला जा रहा है । जिन हाथों में रोज़गार होना चाहिए वहां तरह-तरह के रंगों के परचम थमाए जा रहे हैं। अपने समय को गढ़ने की चिंता में जिस पीढ़ी को मसरूफ़ होना चाहिए , उन्हें प्रभात फेरियों में उलझाया जा रहा है । समाज से समन्वय की भावनाओं को ख़त्म किया जा रहा है । सदियों से मौजूद हमारी साझा संस्कृति को तार-तार किया जा रहा है। वक़्त ने जिनके लिए जान की बाज़ी लगाना सिखाया , उन्हें जान का दुश्मन बनाया जा रहा है । ऐसे में एक कवि की चुप्पी लाज़िमी नहीं । उसे बोलना चाहिए । ऐसी ताक़तों के विरुद्ध बोलना चाहिए । उन परिस्थितियों के विरुद्ध बोलना चाहिए जो ऐसे वातावरण को निर्मित करने के लिए ज़िम्मेदार है । कवि प्रमोद झा भी ऐसी परिस्थितियों के विरुद्ध प्रतिबद्धता से आवाज़ उठाते हैं । वे कविताओं के ज़रिए समाज के मौजूदा हालात और मनुष्यता के सामने के ख़तरों से भी आगाह करते हैं।


क्या दे सकते हो ?

हम अच्छी तरह जानते हैं ,

बखूबी जानते हैं तेरी हरकतों , फितरतों 

और करगुजारियों को 

सालों से हाशिए पर जमे 

उपेक्षितों , वंचितों , दलितों 

और आदिवासियों को 

बेहद जरूरी हक़ अधिकार मिले ही कहां हैं ,

तुम नहीं दे सकते बहुत सारी रोटियां 

बीमारों को दे नहीं सकते दवाइयां 

हर तरफ पड़े हुए हैं रोज़गार के लाले। 


(क्या दे सकते हो तुम )


आम जनता की तकलीफों से वाबस्ता रहकर तरक्की पसंद तहरीक़ के हमसफ़र शाइर फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ कहते हैं - 

यही जुनूं का , यही तोको-दार का मौसम 

यही है ज़ब्र , यही इख्तियार का मौसम।


इस मौसम को समझना और इससे होकर गुज़रना बहुत मुश्किल है। देखा जाए तो एक रचनाकार की दुनिया किसी दीवाने से कम नहीं होती । उसके सामने सब कुछ होते हुए भी वह वही दृश्य देखता है जिसका इजाज़त उसका दिल देता है। तमाम खुशहालियों के बीच उसकी नज़र उन अभावों पर ही जाती है जिससे एक बहुत बड़ा वर्ग प्रभावित है । एक रचनाकार को इसीलिए दीवाना भी कहा जाता है कि उसकी दीवानगी का आलम सिर्फ़ वही समझ पाता है । यही दीवानगी उसकी ज़िद भी बनती है , उसका जज़्बा भी बनती है और उसका जुनून भी । एक कवि के यहां जब यह सब कुछ मौजूद होता है तो वह अपने भीतर के जज़्बात को शिद्दत से उभार पाता है।


बड़ी हसीं दुनिया होती है 

आशिकों और दीवानों की ।

जज़्बात ही जज़्बात , आगा पीछा न कभी 

सोचे और समझने की 

दीवानगी हावी होती है इस कदर के 

तमाम बहारों को सीने में समेट लें 

रोजी-रोटी की फैलती चादर को 

दरख्तों पर ही टांग दें ,

ग़मों का बाज़ार भी लगाने से फायदा ही क्या 

दिल ही ख़रामा-ख़रामा चले ,

दिमाग़ से और भी क्या लेना 

लेनदारी तो उसी महबूबा से जो छत पे 

बारहा आवाजाही करती रहे। 


(दीवानों की दुनिया)


कवि प्रमोद झा ने अपनी इन 65 कविताओं में इशारों ही इशारों में बहुत सी बातें समझाने की कोशिश की है। कई कविताओं में सीधे-सीधे ज़िम्मेदारों से आंख मिलाने का साहस भी किया है । ये कविताएं बहुत सीधी कविताएं हैं । इनमें अधिक उतार-चढ़ाव नहीं । शब्दों की बाज़ीगरी नहीं। पेचीदगियां भी नहीं , लेकिन सच्चाई हर जगह मौजूद है ‌। ये कविताएं सच्चाई को बयां करती कविताएं हैं । इनमें सच्चे इंसान को किसी तरह का खौफ़ नजर नहीं आता लेकिन बुरे आदमी का दिल दहलता है। 

वक़्त से आंख चुराने की कोशिश भी ये कविताएं नहीं करतीं। ये सीधे-सीधे बतियाती हैं , आपके भीतर उतरती हैं और आपके भीतर किसी कोने में मौजूद करुणा को बाहर निकाल कर लाती है। उन करूणामयी आंखों से जब आप संसार को देखते हो तब आपको महसूस होता है कि जो खुशहाली आपके सामने दिखाई जा रही है , उसके पीछे का सच क्या है।  ज़िम्मेदार किस तरह से लोगों को बहका रहे हैं, बरगला रहे हैं । किस तरह से सरकारें आम इंसान को चंद सहूलियतों की आड़ में छल रही हैं । किस तरह ग़रीब की थाली आज भी खाली है और अमीरों की ताक़त निरंतर बढ़ रही है। चंद धनाढ्यों की सूची अख़बारों में पेश कर समाज को संपन्न बताने की कोशिशें हो रही हैं । सहूलियतों की भीख दे देकर आम इंसान को कमज़ोर किया जा रहा है । उसे परजीवी बनाया जा रहा है । उसे सिर्फ एक टूल की तरह इस्तेमाल किया जा रहा है । ये कविताएं इस पूरे षडयंत्र का पर्दाफाश करती हैं और बहुत सादगी से अपनी बात उन लोगों तक पहुंचती हैं जो इन सारे षड्यंत्रों का शिकार हैं । कवि प्रमोद झा इन कविताओं के ज़रिए जिस कसमसाहट को सामने लाने की कोशिश करते हैं , उसमें वे पूरी तरह सफल दिखाई देते हैं। 


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प्रतिरोध के स्वर 

कवि - प्रमोद झा 

प्रकाशक - समदर्शी प्रकाशन, ग़ाज़ियाबाद 

मूल्य - 210/-

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- 12/2, कोमल नगर 

बरबड़ रोड़ 

रतलाम -457001( म. प्र.)

 मो. 9827084966

Sunday, April 13, 2025

Turkish -Lesson_1

 Doğum günün kutlu olsun! – Happy Birthday!

Nice mutlu yıllara! – To many happy years!
İyi ki doğdun! – Good that you were born! (common way of saying "Happy Birthday")
Sağlık, mutluluk ve başarılar dilerim! – I wish you health, happiness, and success!
Yeni yaşın sana mutluluk getirsin! – May your new age bring you happiness!
Doğum günün kutlu olsun, nice yıllara! – Happy Birthday, to many more years!

kalem
masa
silgi
sözluk

Wednesday, April 9, 2025

Greek - Η βάφτιση", Λεξιλόγιο

 Η βάφτιση", Λεξιλόγιο 👶

Λεξιλόγιο (Vocabulary) η βάφτιση/τα βαφτίσια: christening ο νονός: godfather η νονά: godmother ο βαφτισιμιός: godson η βαφτισιμιά: goddaughter το βαφτιστήρι: (neut.) godchild

Monday, April 7, 2025

एक करोड़

एक करोड़ 


आलिशान बंगले के ड्राइंग रूम में मौत का सा सन्नाटा पसरा हुआ था।  शिवनारायण और उनकी पत्नी गहरी सोच में डूबे थे। उनका पुत्र मनोज 

बार बार अपना पसीना पौंछ रहा था।  उसकी शादी को अभी दो महीने ही हुए थे। शुरू शुरू में सब ठीक था लेकिन पिछले कुछ दिनों से उसकी पत्नी रोमा ने घर में तूफ़ान उठा रखा था। रोमा अपना ब्यूटी पार्लर चैन खोलना चाहती थी और उसके लिए उसने अपने पति से १ करोड़ रूपये की डिमांड कर दी थी।रोमा ने अपने पति और सास ससुर को अल्टीमेटम दे दिया था कि अगर उसे २४ घंटे में १ करोड़ रूपये नहीं मिले तो वह अपने ससुर पर बलात्कार और दहेज़ का केस लगाने में बिलकुल नहीं हिचकेगी। इसीलिए घर में मातम छाया था। मनोज मायूसी से अपने कमरे में घुसने लगा तो उसे रोमा की आवाज़ सुनाई दी।  रोमा  अपनी किसी सहेली से बाते कर रही थी। 


- " तू देखती जा अब मैं  कैसे   इनको बन्दर नाच नचाती हूँ  , इनको नाको चने न चबवा दिए तो मेरा नाम रोमा नहीं। अगर मुझे अगले २४ घंटे  में  मेरी रकम नहीं मिली तो फिर देखना  " रोमा ने बिफ़रते हुए अपनी सहेली से कहा। 


- " आख़िर तू करेगी क्या ? " सहेली ने जिज्ञासा से पूछा।


- " दहेज़ , नारी उत्पीड़न और बलात्कार का ऐसा केस डालूँगी कि इनके चूले हिल जाएँगी "।  रोमा ग़ुस्से से बोली थी। 


- " अपने ही पति पर बलात्कार का केस ? पगला गयी है क्या ? कोर्ट नहीं मानेगा ....." सहेली ने झिझकते हुए कहा। 


- " अरे , बलात्कार का केस पति पर नहीं अपने ससुर पे डालूँगी। पूरे समाज में इनका मुँह काला करुँगी। "


- " लेकिन तेरे ससुर ने ऐसा कुछ किया क्या ? "सहेली ने पूछा 


- " अरे वो बुड्ढा क्या करेगा , उसके बस का भी कुछ नहीं है लेकिन क़ानून वही मानेगा जो मैं कहूँगी " रोमा ने दृढ़ता से कहा था। 


उधर ड्राइंग रूम में शिवनारायण ख़ामोशी से अपनी नई नवेली संस्कारी  बहू के नाम १ करोड़ का चेक  काट रहे थे। 

Saturday, April 5, 2025

Ghazal Lesson _ RAV

 [22:26, 04/04/2025] Ram Awadh Vishvkarma 2: जे ए के आर्ट एण्ड कल्चर फ़ाउन्डेशन की जानिब से अगली नशिस्त के लिए बज़्मे नौ सुख़न के लिए तरही मिसरा शायर  साक़ी  फ़ारुक़ी साहब  की ग़ज़ल का मिसरा  दिया जा रहा है 

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मिसरा ए तरही--> 'ऐ रौशनी-फ़रोश अंधेरा न कर अभी

वज़्न------------> 221        2121     1221       212

                       

 मुज़ारे मुसम्मन अख़रब मकफ़ूफ़ महज़ूफ़

अर्कान------> मफ़ऊल    फ़ाइलात    मुफ़ाईलु      फ़ाइलुन

क़ाफ़िया--- अंधेरा दरिया किनारा सवेरा आदि.....

रदीफ़-------->  न  कर अभी

फ़िल्मी गीत 

1-हम ज़िन्दगी की राह में मजबूर हो गए

2-शिकवा नहीं किसी से किसी से गिला नही

3-उनके ख्याल आये तो आते चले गये |

4- मिलती है ज़िंदगी में मोहब्बत कभी-कभी


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तो दोस्तों शुरू हो जाइये बेहतरीन अश'आर कहने के लिए 

निवेदक 


जे. ए. के. आर्ट एण्ड कल्चर फ़ाउन्डेशन

[22:49, 04/04/2025] Ram Awadh Vishvkarma 2: साथियों

मैं आपको एक तरही मिसरा दे रहा हूँ इस पर लिखने की कोशिश करिये। जे ए के द्वारा दिया गया मिसरा हो सकता है आपको सूट न करे। तो मिसरा है

'भरी दोपहर में अँधेरा हुआ'

काफिया आ की मात्रा वाला है

जैसे झमेला ,सबेरा, बसेरा, धेला, फेरा, डेरा, तेरा, मेरा, अकेला, खेला, चेला, करेला ,आदि।

रदीफ- हुआ

बहर है-

फऊलुन  फऊलुन  फऊलुन  

फ 'अल

122   122   122  12


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अँधेरा हुआ है भरी दोपहर में'

पहले दिये मिसरे को ऐसा भी कर के ग़ज़ल कही जा सकती है।इसका काफिया होगा

डर, घर ,पर ,सर, उधर, सफर, शजर , जहर, आदि

रदीफ - में


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बहर है

फऊलुन फऊलुन फऊलुन फऊलुन

122   122   122   122

बह्रे मुतकारिब मुसम्मन सालिम

यह सालिम बहर मतलब शुद्ध बहर है जिसमें एक ही रुक्न 

फऊलुन का प्रयोग किया गया है।इसमें कोई दूसरा रुक्न नहीं मिलाया गया है।  फऊलुन  मुतकारिब बहर का रुक्न है ।यह चूँकि यह  चार बार मिसरे में आया है इसलिए यह मुसम्मन कहलायेगा। इस प्रकार इसका नाम हुआ

बहरे मुतकारिब  मुसम्मन सालिम

Friday, April 4, 2025

Ghazal Lesson - RAV

 मित्रों नमस्कार

रदीफ काफिये के साथ चिपकी होनी चाहिये। मिसरे में अगर रदीफ अलग थलग लगे मतलब ऐसा लगे कि रदीफ जबरदस्ती चश्पा किया गया है तो रदीफ का वहां कोई औचित्य नहीं। रदीफ सार्थक है या नहीं इसका सरल पहचान है कि रदीफ को हटाने के बाद यदि शेष बचा अंश अपने आप में वाक्य पूर्ण हो रदीफ बेकार जबरदस्ती वहां फिट किया गया लगता है। उदाहरण के लिये -

आप जो हमसे दूर गये

दिल से हम मजबूर गये

आप न थे तो क्या थे हम

आपसे मिल मशहूर गये

स्पष्ट है रदीफ काफिये का प्रयोग नियमानुसार किया गया है परन्तु पहली पंक्ति में ही रदीफ चश्पा हुई है और बाकी में पंक्ति में नहीं। आप खुद सोचिए 

मजबूर गये, मशहूर गये में दोनों में मतलब मजबूर के साथ गये जोड़ने का और मशहूर के साथ गये जोड़ने का क्या मतलब निकलता है। क्या आपको नहीं लगता कि यह गये शब्द को जबरदस्ती ठूसा गया है।

इसको ऐसा करके देखें


आप जो हमसे दूर हुये

दिल से हम मजबूर हुये

आप न थे तो क्या थे हम

आपसे मिल मशहूर हुये

और दोनों में फर्क महसूस करें।

Tuesday, April 1, 2025

शहर और जंगल - प्लेटफॉर्म

शहर और जंगल  - प्लेटफॉर्म


वह जो प्लेटफॉर्म के अँधेरे कोने में 

बैठी है थकी हारी उदास  

हाँ , मैं जानता हूँ 

उस अबला का इतिहास 


जन्मभूमि  ही जिसकी हो प्लेटफॉर्म 

क्या बताऊँ उस अबला का नाम 

जाने कौन है बाप उसका 

जाने कौन महतारी है 

पर यक़ीनन 

वह हिन्दोस्तान की सम्माननीय  नारी है। 


प्लेटफॉर्म ही था उसका परिवार 

था वही उसका घर 

भीख माँग कर करती थी गुज़र 

फाँका करती थी प्लेटफॉर्म की धूल 

उसने कब जाना पाठशाला स्कूल 


बीत गया ऐसे ही बचपन उसका 

रीत गया ऐसे ही बचपन उसका 

एक रात अचानक 

भीख माँगता  बचपन जवान हो गया 

चंद लोगों के मनोरंजन का सामान हो गया 


बाल सँवारे काजल डाले 

जब चलती थी इठला कर वह 

लगा होठों पर लाली 

बजती थी कहीं सीटी , बजती थी कही ताली 

अल्हड बदमस्त जवानी थी उसकी 

फैली दूर तक कहानी थी उसकी 

छोड़ दिया था माँगना उसने भीख 

पैसा कमाने की कला गयी थी सीख 

पर चलती यह कहानी भी कब तक 

फिर रहती है जवानी भी कब तक 

ढलना था , ढल  ही यौवन काल गया 

जैसे गुज़रा साल गया 

अब न बजती थी सीटी 

अब न बजती थी ताली 

जब तब पड़  जाती थी गाली 


प्लेटफॉर्म के 

इस अँधेरे कोने में झुका कर सर 

कर  रही है शायद इन्तिज़ार उस ट्रेन का 

जो उसे उसकी 

अंतिम मंज़िल तक पहुँचाएगी 

इस दुनिया के मुसाफ़िरख़ाने से 

शायद मुक्त उसे कर जाएगी 

बेहतर है इस मुसाफ़िर की ट्रेन कभी न आये 

बेरहम ज़िंदगी के भारी बोझ तले 

मौत कभी न मुस्काये 

मौत कभी न मुस्काये। 


आएगी , आएगी 

इस मुसाफ़िर की ट्रेन भी आएगी। 



- कवि - इन्दुकांत आंगिरस